जादोराय गाँव का किसान है ।
बरखा हुई नहीं , बेचारे दाने-दाने को तरसते हैं ।
बच्चा साधो भूखा-नंगा सोता है, पत्नी देवकी पानी के दो घूँट पीकर ही रह जाती है ।
किसानों ने बहुतेरे जपतप किए , ईंट- पत्थर देवी-देवताओं के नाम से पुजाए,
बलिदान किए, पानी की अभिलाषा में रक्त के पनाले बह गए,
लेकिन इन्द्रदेव किसी तरह नहीं पसीजे ! न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी ।
दरिद्रता और क्षुधा-पीड़ा के दारुण दृश्य दिखाई देते थे ।
लोगों ने पहले तो गहने और बर्तन गिरवी रखे, और अंत में बेच डाले ।
फिर जानवरों की बारी आई और जब जीविका का कोई सहारा न रहा तब बाल-बच्चों को लेकर मजदूरी करने निकल पड़े ।
बे-सहारा जादोराय मजदूरी की तलाश में घर से निकला |
बच्चे साधो को भूख के साथ बुखार ने घेर लिया ।
जहाँ ये मजदूरी के लिए टिके थे, वहाँ एक पादरी ने अपना कैम्प लगाया ।
बच्चा साधो भूखा-नंगा एक दिन पादरी के कैम्प में पहुँच गया ।
पादरी ने बड़े प्यार से उसे केले-बिस्कुट खिलाए और मीठी दवाई पिलाकर उसका बुखार दूर किया ।
बच्चा पादरी के प्यार और खाने-पिलाने के प्रलोभन से उसके पास हिल गया ।
एक दिन जब पादरी अपना कैम्प उठाकर जाने लगे तो बालक साधो अपने
माँ-बाप को छोड़कर चुपचाप पादरी के पास चला गया ।
जादोराय और देवकी अपने बच्चे को तीन दिनों तक भूखे-प्यासे ढूँढ़ते रहे, आखिर हारकर अपने घर लौट आए |
चौदह बरस बीत गए । अब इन्द्रदेव की कृपा से जादोराय के खेत लहलहाते हैं, अनाज का भंडार भरा है, कोई तंगी नहीं ।
जादोराय उल्टा लोगों को रुपया उधार देता है ।
एक दिन अचानक साइकिल पर सवार होकर उसका बेटा साधो उनके पास आता है ।
पहचान कर दोनों माँ और बाप अपने कलेजे के टुकड़े को छाती से लगा लेते हैं ।
साधो उन्हें बताता है कि पादरी के पास वह मजे में रहा ।
अपने दस्तूर से पादरी ने उसे प्यार और प्रलोभन से लुभा कर क्रिस्तान बना लिया था ।
अब वह अपने माँ-बाप की स्नेह-छाया में ही अपने घर पर रहना चाहता है ।
पर जगतसिंह आदि गाँव-बिरादरी के लोग उसके क्रिस्तान बनने और ईसाइयों में रहने के कारण, जादोराय के घर में रहने की बात पर आपत्ति करते हैं-' एक बार धर्म-भ्रष्ट हुआ लड़का बिरादरी में नहीं रह सकता ।
उसके अलग रहन-सहन, खान-पान, छूत-छात का ध्यान रखना होगा ।
साधो की माँ अपने लाल को अपने पास रखने की जिद्द कर बैठी ।
तब जगतसिंह तथा अन्य बिरादरी वाले उन्हें बिराद्री से बाहर कर देने की धमकी देते हैं ।
लड़के साधो का स्वाभिमान भी मुखर हो कहता है-' कया मान लूँ ?
यही कि अपनों में गैर बनकर रहूँ, अपमान सहूँ, मिट्टी का ढेला भी मेरे छूने से अशुद्ध हो जाए !
न, यह मेरे किए न होगा, मैं इतना निर्लज्ज नहीं हूँ। जिनका खून सफेद है, उनके बीच में रहना व्यर्थ है ।'
और साधो वापस चला गया ।
माँ-बाप हाथ मलते रह गए-“हाय! मेरे लाल, तू हमसे अलग हुआ जाता है !
ऐसा योग्य और होनहार लड़का हाथ से निकला जाता है और केवल इसलिए कि अब हमारा खून सफेद हो गया है !”