मुंशी वंशीधर बड़े भाग्यशाली रहे कि उन्हें जाते ही नमक विभाग में दारोगा की नौकरी मिल गई !
उनके पिता की चिर अभिलाषा पूरी हुई ।
पिता ने कहा था-' बेटा, मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो घटते-घटते लुप्त हो जाता है ।
ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है ।
' पिता के उपदेश को बंसीधर ने दूसरे कान से निकाल दिया ।
“चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असंभव है ।
बदलूसिंह , इस आदमी को अभी हिरासत में ले लो ।
ये कड़क शब्द दारोगा बंसीधर के थे ।
दारोगा बनते ही उसने शहर के सब से बड़े इज्जतदार प. अलोपीदीन को पकड़ लिया और उनकी अवैध नमक की गाड़ियाँ पुल पर ही रोक दीं ।
उन्हें गिरफ्तार कर चालान अदालत में पेश किया ।
धर्म ने थोड़ी देर के लिए अवश्य जौ धन को पैरों तले कुचल डाला। पर धन ठहरा परम प्रबल !
अलोपीदीन के धन ने अदालत, न्याय सब खरीद लिए ।
मुकद्दमा शीघ्र समाप्त हो गया । डिप्टी मजिस्ट्रेट ने फैसला लिखा - पं. अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और श्रमात्मक हैं ।”
पंडित जी साफ बरी हुए और दारोगा बंसीधर को मुअत्तल कर दिया गया । बंसीधर ने धन से बेर मोल लिया था, नतीजा तो भुगतना ही था!
बंसीधर मुँह लटकाए घर पहुँचे ।
बूढ़े मुंशी ने सिर पीट लिया ।
कितना समझाकर भेजा था ! अरे ईमानदार बनने चले थे ! घर में अंधेरा, पर मस्जिद में दीया जरूर जलाएँगे !
अरे खेद है, ऐसी समझ पर |
बंसीधर पिता की फटकार पर मन मसोस कर रह गए ! करते भी क्या ?
एक सप्ताह बाद अचानक एक सुबह पं. अलोपीदीन का सजाधजा रथ मुंशी जी के द्वार पर आकर रुका ।
बूढ़े मुंशी ने आवभगत के बाद सफाई देते हुए कहा - क्या कहें, हम तो आपको मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहे, लड़का अभागा निकला ।
पं, अलोपीदीन ने कहा- “ नहीं, ऐसा न कहो, वह तो हीरा है, कुलतिलक और धर्म-परायण !
ऐसे ईमानदार लोग कहाँ मिलते हैं और यह कहकर पं, अलोपीदीन ने बंसीधर के आगे अपनी कुल सम्पत्ति और व्यापार की मैनेजरी की अति उत्तम ऑफर रख दी और कहा-न मत करना,
उस रात आपने मुझे अपने अधिकार-बल से हिरासत में लिया था, आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूँ ।
मैंने हजारों लोगों को अपने धनबल से अपना गुलाम बनाया है पर मुझे परास्त किया तो आपने ।”
बंसीधर की आँखें डबडबा आईं ।
संकुचित भाव से मैनेजरी के कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए ।
प॑ अलोपीदीन ने बंसीधर को गले लगा लिया