दिल्ली में लूट-मार, कत्ल-गारत मचाने के बाद नादिरशाह ने शाही महल में आकर हुक्म दिया-“ महल की सब बेगमों को सुसज्जित करके मेरे हुजूर में नाचने के लिए उपस्थित करो !
” हुक्म की देर थी, तभी सब बेगमें बेबस-मज़बूर, मायूस, मन मारे सज-धजकर आ उपस्थित हुईं ।
नादिरशाह ने अपनी कटार-तलवार उतार कर वहां रख दी और आप आराम की नींद के खर्रटे भरने लगा ।
आध घंटे तक सो कर उठा तो सहसा कठोर शब्दों में बोला - एऐ खुदा की बंदियो, मैंने तुम्हारा इम्तहान लेने के लिए बुलाया था ।
पर अफसोस ! कि तुम में नाम को भी गैरत नहीं ।
जिस कौम की औरतों में गैरत नहीं रहती, वह कौम मुर्दा हो जाती है !
क्या यह मुमकिन नहीं था कि तुम मेरे हुक्म को पैरों तले रौंद देती ?
क्या यह मुमकिन नहीं था कि तुममें से कोई यह कटार मुझ सोते हुए के सीने में उतार देती ?
अब यह सल्तनत जिंदा नहीं रह सकती ।
तुम लोग जाओ और हो सके तो अब भी सल्तनत को बचाओ, मैं हवस का पुतला नहीं, हवस की गुलामी छोड़ो ! जाओ !