पूस की रात

हल्कू एक गरीब छोटा किसान ! खेती से उसे कुछ नसीब नहीं होता ।

उसकी पत्नी मुन्नी कई बार कह चुकी है- में कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते ?

मर-मर कर काम करो, उपज हो, तो बाकी में दे दो बस, चलो छुट्टी हुई !

बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है ।”

हल्कू ने मजूरी से एक-एक पैसा काट-काट कर तीन रुपये कंबल के लिए जमा किए थे ।

माघ-पूस की ठिठुरती रात में वह कंबल के बिना खेत में बर्फ की तरह जम जाता है ।

बिना कंबल रातें कैसे कटेंगी ?

पर ज़मींदार का आदमी सहना बाकी वसूल करने आ धमका ! हल्कू की कंबल पाने की सारी आशाएँ डूब गईं ।

सहना की गालियों और घुड़कियों से बचने के लिए उसने वे तीन रुपये सहना को दे दिए !

न-जाने कितनी बाकी है जो चुकने को ही नहीं आती।

कड़ाके के जाड़े की पूस की रात में वह बिना कंबल के ही खेती की रखवाली के लिए खेत में जाता है ।

सर्दी से ठिठुर्ता है । पल-भर सो नहीं पाता ।

घुटनों में सिर-मुँह देकर बैठता है पर हवा के सर्द झोंके तीर-से लगते हैं ।

उसका साथी उसका जबरा कुत्ता है ।

वही बे-जबान उसकी बेबसी और मुसीबत को समझता है और कूँ-कूँ करके अपनी संवेदना प्रकट करता है ।

सर्दी से बचने के लिए हल्कू पास के आम के बाग से आम के सूखे पत्ते बटोरकर ढेर इकट्ठा कर आग जलाता है ।

तापने से कुछ चैन मिला ।

वह कुछ नींद की झपकियाँ लेता है ।

इतने में नील गायों के एक झुंड ने घुसकर उसकी खेती को रौंद डाला , चर डाला !

उसका जबरा कुत्ता उधर दौड़ा भी और भोंका भी ।

हल्कू को कुछ नींद की झपकियों में पता न चला |

सवेरे हल्कू की पत्नी मुन्नी खेत में आई तो खेती की दुर्दशा देखकर माथा पीटने लगी ।

हल्कू ने भी उठकर देखा। जबरा कुत्ता भी वहाँ मरा पड़ा था, बेचारे ने भोंक-भोंक कर और सर्दी से हलकान होकर दम तोड़ दिए थे ।

मुन्नी के मुख पर उदासी छाई थी , पर हल्कू प्रसन्न था ।

मुन्नी दुखी भाव से बोली- अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी ।

हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा-“ रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा ।”