प्रेरणा

मेरी कक्षा में सूर्यप्रकाश एक बहुत शरारती और ऊधमी विद्यार्थी था ।

सब विद्यार्थी उससे डरते थे ।

यही नहीं , हम अध्यापकों को भी उससे आशंका और डर हर समय बना रहता था, न-जाने कब क्या शरारत कर डाले ।

टीचर की टेबल की दराज में मेंढक रख देना, हड़ताल करा देना आदि तो उसके लिए खेल था ।

अध्यापकों और मेहनती विद्यार्थियों का मजाक उडाने , छेड़ने और तंग करने में उसे मजा आता था ।

वह गिरोहबंदी में माहिर था |

पास होने की सूर्यप्रकाश को कोई चिंता न थी ।

न-जाने कैसे सालाना परीक्षा में अच्छे अंकों से पास होता था ।

मेरी कक्षा में होने की वजह से सूर्यप्रकाश मेरे लिए विशेष सिरदर्द बना हुआ था !

संयोग से मेरा तबादला हो गया ।

सब लड़कों ने सजल नयकनों से मुझे विदाई दी और स्टेशन पर छोड़ने आए ।

सूर्यप्रकाश भी करुणा और ग्लानि की मूर्ति बना स्टेशन पर खड़ा दिखाई दिया ।

नई जगह आकर मैं नई जगह की समस्याओं में रम गया ।

सूर्यप्रकाश और अन्य शिष्य स्मृति-पटल पर धुंधेल हो गए ।

यहाँ आने पर प्रांत के शिक्षा-मंत्री से मेरी रब्त-जब्त हो गई ।

मैं बालकों की अनिवार्य शिक्षा के हक में नहीं था ।

यह और शिक्षा-नीति की कई बातें मैंने शिक्षा-मंत्री को सुझाईं ।

उनके प्रभाव से मैं कॉलेज का प्रिंसिपल हो गया ।

पर कई छोटी-छोटी बातों पर कॉलेज के अध्यापकों और विद्यार्थियों से मेरा मतभेद हो गया ।

मुझे आशा थी कि शिक्षामंत्री इस तनाव में मेरा साथ देंगे, पर कई साल की उनकी भक्ति का यह फल मिला कि मैं पदच्युत्त कर दिया गया ।

वहाँ से निकलकर मैंने एक एकांत गाँव में नदी के किनारे एक छोटा-सा घर बना लिया और वृक्ष की छाँव तले गाँव के बच्चों की पाठशाला लगाने लगा ।

मुझे इस एकांत जीवन में विशेष आनंद मिल रहा था ।

एक दिन अचानक वहाँ के डिप्टी कमीश्नर मेरे पास आए और मेरे पाँव छूकर प्रणाम करने लगे ।

मैं एकबारगी पहचान न सका ।

यह वही सूर्यप्रकाश था ! मैं हैरान रह गया, कहाँ तो वह

उद्दण्ड, शरारती सूर्यप्रकाश , कहाँ जिले का डिप्टी कमीश्नर बना खड़ा है !

सूर्यप्रकाश ने अपनी कहानी सुनाई-किस प्रकार एक बेसहारा नौ साल का लड़का मोहन उसकी दया और करुणा का पात्र बना

और उसके प्रेम और सहानुभूति ने सूर्यप्रकाश की काया ही पलट दी।

वह शरारतें छोड़ कर संजीदा और विवेकशील, अध्ययनशील युवक बन गया और आज इस पद तक पहुँच गया !

बालक मोहन सूर्यप्रकाश की प्रेरणा बन गया था !