रानी सारंधा

“ सैया, तुमने कुल की मर्यादा खो दी ।

ऐसा कभी न हुआ था ! '' युद्ध में शत्रु को पीठ दिखाकर घर भाग आए बुंदेला वीर अनिरुद्धसिंह बहन सारंधा की यह फटकार सुनकर तिलमिला उठे !

उल्टे पाँव लौट पड़ें ।

अआर्से से पति-वियोग में व्याकुल शीतलादेवी को ननद की यह घिक्कार बुरी लगी, नागिन की तरह बल खाकर बोली-“ मर्यादा इतनी प्यारी है ?

अपना पति होता तो हृदय में छिपा लेती ! ”

सारंधा-“ना, छाती में छुरा चुभा देती ! ”

कालांतर में अनिरुद्धसिंह ने शत्रु पर विजय पाई और बहन सारंधा का विवाह बुंदेला कुल-तिलक ओरछे के राजा चम्पतराय से कर दिया ।

वीर चम्पतराय की वीरता की चर्चा सुनकर मुगल बादशाह शाहजहाँ ने चम्पतराय को अपने हुजूर में रख लिया और कालपी का राज्य और जागीर उसे दे दी ।

सारंधा इस गुलामी को जिंदगी से बुझी-बुझी रहती थी ।

चम्पतराय ने कारण पूछा तो बोली- ओरछे में मैं एक राजा की रानी थी |

यहाँ मैं एक जागीरदार की चेरी हूँ ।

ओरछे में वह थी जो अवध में कौशल्या थी , यहाँ मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूँ ।

जिस बादशाह के सामने आज आप आदर से सिर झुकाते हैं, वह कल आपके नाम से काँपता था ।

रानी से चेरी होकर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे वश में नहीं है ।

आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियाँ बड़े जिविलनकानिलिनलका लव रानी सारंधा महंगे दामों मोल ली हैं ।

चम्पतराय के नेत्रों पर से एक पर्दा-सा हट गया । चम्पतराय दिल्‍ली से अपने प्यारे बुंदेलखण्ड लौट आये ।

बुंदेलखण्ड भी उन्हें पुनः पाकर निहाल हो गया ! पर बादशाह शाहजहाँ से दुश्मनी ठन गई।

शाहजहाँ बीमार पड़ गया ।

शाहजादा दाराशिकोह राज्य चलाने लगा ।

उधर औरंगजेब अपने भाई मुराद को साथ लेकर दिल्‍ली का तख्त पाने के लिए चढ़ाई पर निकला ।

उसने चम्पतराय से सहायता माँगी ।

चम्पतराय की सहायता से वह अपने अभियान में सफल हुआ ।

युद्ध-भूमि में बादशाही सेना के सेनापति वली बहादुर खां को लोथ के पास उसका बढ़िया घोड़ा था जिसे अपने कब्जे में कर घोड़ों के शौकीन राजा चम्पतराय अपने अस्तबल की शोभा बढ़ाना चाहते थे ।

पर घोड़ा था कि किसी के काबू में न आता था ।

आखिर रानी सारंधा ने बड़े साहस और प्यार से घोड़े को काबू में कर पति को भेंट किया ।

खुशामदी वली बहादुर खां अब बादशाह औरंगजेब का कृपा-पात्र बन गया था ।

सहायता के बदले में औरंगजेब ने चम्पतराय को भी ऊँचा पद और भारी जागीर दी ।

खां साहब को अपने घोड़े के हाथ से निकल जाने का बड़ा दुख था ।

एक दिन कुँवर छत्रसाल उसी घोडे पर सवार अकेला जा रहा था ।

वली बहादुर खां ने अपने पच्चीस-तीस सिपाही पीछे भेजकर कुँवर से वह घोड़ा छीन लिया ।

माता रानी सारंधा की आँखों से चिंगारियाँ निकलने लगीं ।

भरे दरबार में जाकर उसने वली बहादुर को फटकार सुनाई- युद्ध में जो वीरता न दिखा सके , एक अबोध बालक से घोड़ा छीनकर दिखाए ?"

सारंधा अपनी वीरता, साहस और मान-मर्यादा का डंका बजाती हुई वली बहादुर खां से घोड़ा छीन लाई ।

औरंगजेब चम्पतराय को दी हुई जागीर और बारह हजारी मनसब छीन लेने की धमकी देता है ।

पर सारंधा स्वयं सब पर लात मार देती है |

औरंगजेब ने अपमान का बदला लेने के लिए चम्पतराय के ओरछा दुर्ग को घेर लिया ।

बुंदेले वीर अपनी जान पर खेल गए पर पराधीनता स्वीकार नहीं की ।

सारंधा ने युद्ध में जान की बाजी लगा दी ।

वह अपने बीमार और घायल पति को बचाकर निकाल लाई । शत्रु -सैनिकों ने उन्हें रास्ते में घेर लिया ।

बचने की कोई सूरत न पाकर सारंधा ने शत्रुओं के हाथ पड़ने की अपेक्षा आत्म-बलिदान करना श्रेयस्कर समझा और पति का संकेत पाकर पति की छाती में अपनी कटार चुभाने के बाद अपनी छाती में भी गड़ा ली ।

आत्मभिमान का कैसा विषादमय अंत है !