वाजिंद अली शाह का जमाना था ।
लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था ।
राज-कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह-वर्णन में , कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में , व्यावसायी सुरमे , इत्र, मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे ।
संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी ।
बटेर लड़ रहे हैं । तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है ।
कहीं चौसर बिछी है, पौ-बारह का शोर है, कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है !
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था ।
प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी । कोई फरियाद सुनने वाला न था ।
अंग्रेज कंपनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था ।
मिरजा सज्जाद अली और मीर रौशन अली हरदम शतरंज की बाजी में डूबे रहते थे ।
न घर की सुध न बाहर की ।
बेगमें, नौकर-चाकर, पास-पड़ोस के सभी लोग उनसे तंग आ गए थे, कहते-'बस अब खैरियत नहीं है ।
जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफिज है ।
यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी , आसार बुरे हैं ।'
शतरंज की बाजी लगी थी दीवानखाने में ।
मिरजा की बेगम बिगड़ गई ।
इस मुए शतरंज ने रात-दिन बिगाड़ रखे हैं ।
यह मुआ मीर भी हरदम यहीं पड़ा रहता है ।
' बेगम एकदम आई और बाजी उलट दी, मोहरे फेंक दिए ! कहने लगी-“ अब मीर साहब आए तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी ।
आप तो शतरंज खेलें और मैं चूल्हे-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊंँ !"”
अब बाजी मीर साहब के दीवानखाने में लगने लगी ।
एक दिन सिपाही मीर साहब की तलबी का परवाना लेकर आ गए-फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गए हैं ।
मीर साहब ने नौकर से कहलवा दिया, घर पर नहीं हैं ।
मिरज्ञा साहब भी काँप उठे-कहीं मेरी तलबी भीनहो!
इस तलबी के डर से दोनों ने ही अब वीराने में , घर के बाहर बिसात बिछानी शुरू कर दी ।
इधर मीर साहब की बेगम उस नकली सिपाही से कह रही थी, तुमने खूब धत्ता बताया ।
बेगम का प्रेमी बोला- ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ ।”
एक दिन दोनों एक सुनसान मस्जिद के . में शतरंज खेल रहे थे ।
मिरज़ा की बाजी कमजोर थी , मीर साहब उन्हें मात पर मात दे रहे थे ।
इतने में कंपनी के सैनिक गोरों की फौज लखनऊ पर अधिकार जमाने आ रही थी ।
मीर साहब ने ध्यान बँटाना चाहा तो मिरज़ा बोले-' हीले न कीजिए ।
ये चकमे किसी और को देना, अपनी बाजी बचाइए-यह शह और मात !'
मीर-“” आप भी अजीब आदमी हैं !
यहाँ तो शहर पर आफृत आई हुई है और आपको बाजी की सूझी है ।
शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे ?"
फौज निकल गई ! नवाब को पकड़ ले गई, हुकूमत छीन ली गई, सभी देशवासी तमाशायी की तरह देखते रह गए ।
मिरज़ा और मीर साहब खेल-खेल में कहा-सुनी, तू-तू, मैं-मैं पर उतर आए ।
दोनों की तलवारें निकल आईं ।
दोनों विलासी थे, कायर न थे ।
उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था-मुल्क के लिए, बादशाह के लिए क्यों मरें, पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था ।
दोनों ने पैंतरे बदले , तलवारें चमकीं , दोनों ने वहीं तड़प-तड़्पकर जानें दे दीं ।
अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्हींने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिए !