सवा सेर गेहूँ

शंकर एक गरीब कुरमी किसान था ।

उसे अपनी खेती से दो जून खाना भी नसीब नहीं होता था, पर उसका धर्म-भीरू मन साधु-महात्माओं को अपने द्वार से खाली और भूखा नहीं जाने देता था ।

एक रोज एक बड़े महात्मा उसके घर भोजन करने आए ।

घर में थोड़े-से जौ ही थे और सिद्ध महात्मा को जौ की रोटी कैसे खिलाता,

इसीसे गाँव के विप्र महाराज से सवा सेर गेहूँ उधार ले आया और अपनी पत्नी से गेहूँ का आटा पिसवाकर महात्मा जी को गेहूँ की रोटी खिलाई ।

विप्र महाराज साल में दो बार खलिहानी बख्शीश लिया करते थे ।

शंकर ने इस बार विप्र महाराज के सवा सेर गेहूँ की उधारी से उऋण होने के ख्याल से पंसेरी गेहूँ की बजाय डेढ़ पंसेरी गेहूँ बतौर खलिहानी दे दिए ।

परन्तु विप्र महाराज ने तो अपनी बही-हिसाब में वह सवा सेर गेहूँ खड़े रखे थे और वह कर्ज दिन-दिन बढ़कर सात साल में साढ़े पाँच मन गेहूँ हो गया ।

सात साल तक विप्र महाराज चुप रहे, अब टोक कर बोले-" शंकर, कल आके हिसाब कर ले, तेरे नाम साढ़े पाँच मन गेहूँ कब से बाकी पड़ा है, तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या ?”

शंकर ने चकित होकर कहा-“मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे जो साढ़े पाँच मन हो गए ”

विप्र महाराज ने सवा सेर गेहूँ की याद दिलाई तो शंकर ने कहा, ' मैंने तो खलिहानी-डेढ़ पंसेरी दे दी थी !' विप्र महाराज बोले-“लेखा जौ-जौ, बख्शीश सौ-सौ ।

तुमने जो कुछ दिया, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की चार पंसेरी दे दो ।

तुम्हारे नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है, दे दो तो तुम्हारा नाम छेक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा ।

नहीं तो स्टाम्प लिखा लो!"

बेचारे शंकर के पास देने को क्या था ?

न गेहूँ, न रुपये, स्वयं भूखों मर रहा था ।

विप्र महाराज ने आप ही हिसाब बनाकर स्टाम्प पेपर पर साठ रुपये लिखा लिये, तीन रुपये सैंकड़ा सूद

साल-भर में न दे तो सूद साढ़े तीन रुपये !

दस्तावेज की लिखाई और स्टाम्प के अलग लिए ।

ब्राह्मण-महाजन का सूद द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ता ही जाता है ।

शंकर सोचता है-एक तो ऋण, वह भी ब्राह्मण का ! बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाएगा । इस ख्याल ही से उसके रौंगटे खड़े हो जाते थे ।

उसके तन पर चिथड़ा नहीं, पेट भूख से पीठ को लग गया है ।

फिर भी वह रात-दिन मेहनत-मजदूरी में जुट जाता है ताकि साल भर में, साठ रुपये पेट-तन काटकर कर्ज चुकाने के लिए जोड़ ले !

आखिर मर-खप कर वह साठ रुपये जोड़कर विप्र महाराज के पास ले जाता है ।

विप्र महाराज कहते हैं, अब तो पचहत्तर ही लूँगा, साठ नहीं ।

पंद्रह रुपये ब्याज जो और बढ़ गया है ! पचहत्तर नहीं दिए तो ब्याज साढ़े तीन रुपये सैंकड़े का लगेगा !

गरजू कि बेचारा शंकर साठ रुपये देकर भी उक्ण नहीं हो पाया ।

उसे विप्र महाराज का बंधवा मजदूर बनना पड़ता है ।

विप्र महाराज कहते हैं-“गुलामी समझो, चाहे मजदूरी समझो ।

मैं अपने रुपये भराए बिना तुमको कभी न छोडेँगा । तुम भागोगे, तो तुम्हारा लड़का भरेगा ।”

शंकर ने बीस साल तक विप्र महाराज की गुलामी की ।

एक सौ बीस रुपये फिर भी सिर बाकी रहे !

आखिर शंकर इस दुस्सार संसार से प्रस्थान कर गया ।

विप्र महाराज ने उस गरीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी, इतने निर्दयी न थे !

उसके जवान बेटे की गर्दन पकड़ी ।

आज तक वह विप्र जी के यहाँ काम करता है ।

उसका उद्धार कब होगा, होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने ।