ठाकुर का कुआं

जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी से सख्त बदबू आयी ।

वह गंगी से बोला- यह कैसा पानी है ?

मारे बास के पिया नहीं जाता ।

गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है !

गंगी प्रतिदिन शाम को पानी भर लाया करती थी ।

कुआं दूर था; बार-बार जाना मुश्किल था ।

कल वह पानी लायी , तो उसमें बू बिल्कुल न थी; आज पानी में बदबू कैसी ?

लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी ।

जरूर कोई जानवर कुएं में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे तो कहां से ?

ठाकुर के कुएं पर कौन चढ़ने देगा ।

दूर ही से जिलागा डांट बताएंगे ।

साहू का कुआं गांव के उस सिरे पर है; परन्तु वहां भी कौन पानी भरने देगा ?

कोई और कुआं गांव में है नहीं ।

जोखू कई दिन से बीमार है ।

कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता ।

ला थोड़ा पानी नाक बन्द करके पी लूं ।

गंगी ने पानी न दिया ।

खराब पानी पीने से बीमारी बढ़ जाएगी- इतना जानती थी; परन्तु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती है ।

बोली- यह पानी कैसे पियोगे ?

न जाने कौन जानवर मरा है ।

कुएं से मैं दूसरा पानी लाये देती हूं ।

जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- दूसरा पानी कहां से लायेगी ?

"ठाकुर और साहू के दो कुएं तो हैं ।

क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे ?'

'हाथ-पांव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा ।

बैठ चुपके से । ब्राह्मम-देवता आशीर्वाद देंगे , ठाकुर लाठी मारेंगे, साहू जी एक के पांच लेंगे ।

गरीबों का दर्द कौन समझता है ! हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है ।

ऐसे लोग कुएं से पानी भरने देंगे !'

इन शब्दों में कड़वा सत्य था ।

गंगी क्या जवाब देती; किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया ।

रात के नौ बजे थे ।

थके-मांदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पांच बेफिक्रे जमा थे ।

मैदानी बहादुरी का तो न अब जमाना रहा है, न मौका ।

कानूनी बाहदुरी की बातें हो रही थीं । कितनी

होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे में रिश्वत दे दी और साफ निकल गये ।

कितनी अक्लमन्दी से एक मार्के के मुकदमे की नकल ले आये ।

नाज़िर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती ।

कोई पचास मांगता, कोई सौ ।

यहां बे पैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी ।

काम करने का ढंग चाहिए ।

इसी समय गंगी कुएं से पानी लेने पहुंची ।

कुप्पी की धुंधली रोशनी कुएं पर आ रही थी ।

गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इन्तजार करने लगी ।

इस कुएं का पानी सारा गांव पीता है ।

किसी के लिए रोक नहीं; सिर्फ़ ये बदनसीब नहीं भर सकते ।

गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबन्दियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा-हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँचे हैं ?

इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ?

यहाँ तो जितने हैं एक-से-एक छँटे हैं । चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें; झूठे मुकदमे ये करें ।

अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गडरिये की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया ।

इन्हीं पण्डित जी के घर में तो बारहों मास जुआ होता है ।

यही साहूजी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं ।

काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है ।

किस बात में हैं हमसे ऊँचे ! हां, मुँह से हमसे ऊँचे हैं ! कभी गांव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आंखों से देखने लगते हैं ।

जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परन्तु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं !

कुएं पर किसी के आने की आहट हुई ।

गंगी की छाती धक्‌-धक्‌ करने लगी ।

कहीं देख ले तो गजब हो जाय ! एक लात भी तो नीचे न पड़े ।

वह आगे बढ़ी और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये में जा खड़ी हुई ।

कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महंगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा ।

इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी ! उस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं !

कुएं पर दो स्त्रियां पानी भरने आयी थीं ।

इनमें बातें हो रही थीं।

' खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ |

घड़े के लिए पैसे नहीं हैं ।'

'हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है ।'

“हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते ।

बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं !'

' लौंडियाँ नहीं तो और क्या हो तुम ?

रोटी-कपड़ा नहीं पातीं ?

दस-पांच रुपये छीन-झपटकर ले ही लेती हो ।

और लौंडियाँ कैसी होती हैं !'

"मत जलाओ , दीदी ! छिन भर आराम करने को जी तरस कर रह जाता है ।

इतना काम तो किसी दूसरे के घर कर देती , तो इससे कहीं आराम से रहती ।

ऊपर से वह एहसान मानता ।

यहाँ काम करते-करते मर जाओ; पंर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता ।'

दोनों पानी भरकर चली गयीं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएं से जगत के पास आयी ।

बेफिक्र चले गये थे ।

ठाकुर भी दरवाजा बन्द कर अन्दर आंगन में सोने जा रहे थे ।

गंगी ने क्षणिक सुख की सांस ली ।

किसी तरह मैदान साफ हुआ ।

अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानता के साथ और समझ-बूझकर न गया होगा ।

गंगी दबे पांव कुएं की जगत पर चढ़ी ।

विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था ।

उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला ।

दायें-बायें चौकननी दृष्टि से देखा , जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा. हो ।

अगर इस समय वह पकड़ ली गयी, तो फिर उसके लिए माफी या रियाअत की रत्ती भर उम्मीद नहीं ।

अन्त में देवताओं की याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएं में डाल दिया ।

घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता से ।

जरा भी आवाज्‌ न हुई ।

गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी मारे ।

घड़ा कुएं के मुँह तक आ पहुँचा ।

कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से उसे न खींच सकता था ।

गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया ।

शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा ।

गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी । रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हलकोरे की आवाजें सुनाई देती रही ।

ठाकुर कौन है ?' पुकारते हुए कुएं की तरफ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी ।

घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है ।