अलग्योझा

भोला महतो एक परिश्रमी पर निर्धन किसान था ।

बच्चों की खातिर पहली बीबी का देहावसान हो जाने पर घर-गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए दूसरा ब्याह रचाकर, ' पन्‍ना' जैसी रूपगर्विता गर्म-मिजाज औरत ले आया ।

उसका बेटा रग्घू विमाता को स्वीकार नहीं कर पाया ।

वह कटा-कटा सा रहने लगा ।

सारे गाँव में बालक रग्घू बाप की ही नहीं , दूसरों की आँख की भी किरकिरी बन गया था ।

सब देखते थे कि पन्ना रग्घू को बेटे के समान ही मानती है, पर रग्घू ही है, जो बाल-मनोविज्ञानवश उसे अपनी सगी-माँ की स्मृति से रूपांतरित नहीं कर पाया है ।

पन्‍ना के चार बच्चे हुए ।

तीन लड़के-केदार, खुन्नू और लछमन, तथा एक लड़की फुनिया ।

संयोग से भोला की मृत्यु हो गई ।

भोला ने गरीबी की हालत में भी भरे-पूरे परिवार को बिखरने न दिया था ।

पन्ना को रग्घू पर भरोसा न था, कि वह बाप के मरने के बाद घर को संभाल सकेगा ।

लेकिन बाप के न रहने पर रग्घू को अपने कर्तव्य का ज्ञान हुआ ।

वह रात-दिन मेहनत करके खेती की जमीन गोड़ने लगा ।

पशुओं को चारा-पानी देने लगा तथा अपनी विमाता पन्‍ना और अपने सौतेले भाईयों तथा बहिन का हर तरह से ध्यान रखने लगा ।

यहाँ तक कि, वह अपने गले में पड़ी अपनी महरूम माँ की निशानी-ताबीज को बेचकर घर के लिए एक गाय भी खरीद लाया । पन्‍ना रग्घू के एकदम से बदल गए बर्ताव को देखकर उस पर सौ-सौ

जान निहाल हो गई ।

रग्घू 23 साल का गबरू जवान हो गया था ।

बाप ' के न रहने के बाद उसने मेहनत-मशक्कत करके अपने घर को संभाल लिया था ।

अपनी विमाता की बहुत इज्ज़त करता था ।

छोटे भाईयों पर तो जान छिड़कता था । उसकी बीबी मुलिया अभी अपने मायके में ही थी ।

वह बड़ी कड़क-मिज्ञाज औरत थी ।

रग्घू लाख कहने पर भी उसे अपने घर लाकर घर की सुख-शांति को दियसलाई दिखाना नहीं चाहता था ।

लेकिन विमाता पन्‍ना के आग्रह और जिदूद के आगे उसकी एक न चली ।

वह अपनी मेहरिया को ले आया | मुलिया ने आते ही तिरिया-चरित्तर दिखाना शुरू कर दिया ।

वह गऊ जैसी अपनी सास ' पन्‍ना' से गाहे-बगाहे लड़ने लगी ।

उसे छोटी-छोटी उम्र के अपने देवर तथा ननद भारी लगने लगे ।

उसे लगा कि उसका मर्द रग्घू तो रात-दिन जान मारकर दो पैसे कमाता है और उसकी सास का कुनवा है कि सब कुछ हज़म कर जाता है ।

उसने लड़-झगड़कर तरह-तरह के तमाशे खड़े करके आखिरकार अपने मर्द रग्घू को. मजबूर कर ही दिया कि वह अलगौझा कर ले ।

न चाहते हुए भी रग्घू को दो-दो चूल्हों / चौंकों पर समझौता करना पड़ा ।

उसके छोटे भाई लोग-जो धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे, भाभी की धौंस सहने को तैयार नहीं हुए ।

उनका बड़े भाई से दिल फिर गया ।

' रग्घू इस अलगोझे ' के गम को बर्दाश्त न कर सका ।

30 वर्ष को भरी जवानी में वह चल बसा ।

उसके भी अपने दो छोटे-छोटे बालक हो गए थे ।

रग्घू के चले जाने पर उसकी कर्कशा बीबी मुलिया की सारी हेंकड़ी हवा हो गई ।

उसे अब आटे-दाल का भाव याद आने लगा |

"पन्ना यह सब देखती थी, लेकिन एक समझदार तथा सहनशीला सासू-माँ के रूप में अलगौझा हो जाने पर भी आंगन में उठा दी गई दीवार के परली पार कष्ट-भरे दिन काट रही मुलिया तथा उसके बच्चों की हर तरह से खोज-खबर रखने लगी ।

उधर रग्घू का छोटा भाई ' केदार भी , जो पेहले बड़े भाई तथा भाभी से नाराज़ था, अब

करुणा का पति आदित्य स्वतंत्रता सेनानी था ।

स्वदेश-धर्म, जातीयता तथा राष्ट्र-धर्म को लेकर वह बहुत ऊँचे आदर्श पाले हुआ था |

ब्रिटिश-राज का युग । भारत गुलाम था । कांग्रेस के नेतृत्व में आन्दोलनकारी हँसते-हँसते जेलों में चले जाते थे ।

वे राजनैतिक बंदी कहलाते थे ।

आदित्य भी एक आन्दोलन में बंदी बना लिया गया | उसे तीन साल की बामुशक्कत कैद की सज़ा हुई ।

जेल में उस पर भयंकर अत्याचार किया गया ।

उसके तमाम संगी-साथी , पिछलग्गू उसका साथ छोड़ गए ।

पति आदित्य के राजनैतिक बंदी होकर जेल जाने के बाद करूणा ने उसके पुत्र को जन्म दिया ।

करूणा ने पति की अनुपस्थिति में बड़े कष्टकारक दिन गुजारे ।

उसे पति पर नाज़ था । उसका पति देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर सकता था, पर विदेशी यूरोपीय सत्ता के सामने किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार न था ।

आदित्य को सिल' का रोग हो गया ।

रोग प्राणघाती था । वह बच न सका ।

मृत्यु को प्राप्त हुआ । *करूणा' टूटी तो, पर एक स्वतंत्रता सेनानी की पत्नी होने के कारण फिर से संभल गई ।

वह अपने बेटे ' प्रकाश' का बड़े जतन से लालन-पालन करने लगी |

ग्वालिन परिवार से होने के कारण उसने दूध का व्यवसाय संभाल लिया ।

वह एक उच्चादर्श महिला थी ।

प्रकाश को यथासंभव ऊँचे राष्ट्रीय संस्कार देने लगी ।

प्रकाश धीरे-धीरे बड़ा होने लगा । वह एक कुशल वक्ता, आयोजक , बौद्धिक तथा तर्कशील चिंतक बनता चला गया ।

अपने स्वर्गवासी पिता के पैतृक संस्कार बुद्धि और चेतना के स्तर पर उसमें थोड़ा बहुत तो आए ही थे ।

लेकिन वह त्याग, गरीबी , देशीयता जैसी बातों को हिकारत की निगाह से देखता था ।

उसकी कथनी-करनी में बहुत अन्तर था ।

जो सोचता और कहता था, वैसा करता नहीं था । वह पढ़-लिखकर एक बहुत बड़ा हाकिम,, प्रशासक बनना चाहता थो ।

उसे ब्रिटिश-राज के दिनों में अंग्रेजों के संरक्षण में ऊँचे पाए की नौकरी करने में कोई गुरेज़ न था ।

वह नौकरशाह बनकर जिंदगी के सारे लुत्फ उठाना चाहता था । उसकी माँ करूणा उसके इन विचारों से रत्ती भर भी सहमत न थी ।

लेकिन प्रकाश था, कि अपनी ही धुन में वह अंग्रेज-सत्ताधीशों की प्रशासन-व्यवस्था का एक पाया बन जाने को बेताब था ।

जबकि उसके पिता ने उन्हीं अंग्रेजों से टक्कर लेकर अपने प्राण गँवाए थे ।

वह कॉलेज की ऊँची-ऊँची डिग्रियों को एक : सुनिश्चित , सुन्दर , सम्पन्न भविष्य-निर्माण का कारकीय-तत्व मानता था |

स्वयं डिग्रियाँ तथा वज़ीफे हासिल कर लंदन' जाकर पढ़ाई करने तथा प्रशासनिक सेवा पास करके ऊँचा हाकिम-पद प्राप्त कर लेने के लिए उत्क॑ठित था ।

इसके लिए हर तरह की जुगत भिड़ाने में लगा हुआ था ।

उसकी माँ करूणा कतई नहीं चाहती थी कि उसका बेटा इस तरह पढ़-लिखकर स्वदेश एवं जाति के प्रति स्वाधीनता संघर्ष से आँखें फेरकर किसी भी तरह का कोई विपरीत भाव रखे, विपरीत आचरण करे ।

उसने बेटे को हरचंद समझाया कि वह लंदन जाने का विचार त्याग दे ।

वज़ीफा पाने के लिए आवेदन न करे, लेकिन प्रकाश नहीं माना । हारकर जब अपने रूठे हुए बेटे की दयनीय दशा से द्रवित हो करूंणा ही रजिस्ट्रार से उसके विदेश जाने का वज़ीफा तथा अनुमति-पत्र ले आई, तो प्रकाश खिल उठा ।

माँ ने तो अपनी ममता का गला घोंटकर अपने ममत्व भाव का परचम लहरा दिया था, बेटा प्रकाश माँ की त्रासद- मनःस्थिति की गहराई को समझ ही न सका ।

वह जलनौयान में बैठा समुन्द्र की लहरों पर तिरता लंदन जा रहा था, ताकि वहाँ से डिग्री हासिल कर वापिस हिन्दुस्तान लौटकर मजिस्ट्रेरी कर सके , उधर उसकी माँ ्रासद-स्वप्न में उसके स्वतंत्रता-सेनानी पिता आदित्य की उस रूह का मंजर देख रही थी , जो अपने ही बेटे की इज्लास में जंजीरों में जकड़ा हुआ एक स्वदेशाभिमानी क्रांतिकारी होने के अपराध में सज्ञा सुनने के लिए हाथ बांधे खड़ा था और उसकी अपनी माँ जिस दृश्य को देखकर अपना सिर धुन रही थी ।

एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी का बेटा अंग्रेजी-साम्राज्य का गुलाम, उनका हाकिम-अपने ही पिता को दंड देने के लिए प्रोद्यत ।

करूणा की ममता चीत्कार कर उठी । उसने प्रकाश के पत्रों का जबाब देना भी गवारा न किया ।

वह गली-मुहल्ले के बच्चों को इकठूठा कर उन्हें दूध बाँट देती थी ।

छोटी मोटी चीजें दे देती थी ।

उसने अपनी ममता अपने ही इलाके के गरीब बच्चों पर लुटानी शुरू कर दी ।

वह माँ थी, उसका अपना बेटा तो गुलामी की चादर ओढ़ने के लिए उससे दूर चला ही गया था ।

और एक दिन- वह अपने प्रकाश के भेजे गए एक पत्र की चिंदगियों को इकठदूठा कर उन्हें पढ़ने की जुगत में अपने घर की देहरी पर बेठे-बैठे अपने लाडले की राह तकती ब्रह्मललोक को सिधार गई ।

माँ मर गई । बेटा अंग्रेजों की सरपरस्ती में हाकिम हो जाने के लिए समुद्र-संतरण कर गया था ।

करूणा के हृदय-पटल से बेटे प्रकाश के पिता शहीद आदित्य का चित्र चिपका हुआ था ।

बाप कुर्बान हो गया, बेटा कुर्बानी लेने वालों पर दिल-ओ-जान से मेहरबाँ हो गया ।