स्वामिनी

स्त्री हो या पुरुष, उनमें कर्तव्य की भावना, उत्तरदायित्व बोध भी तभी जागृत होता है जब उन्हें मालिकाना हक दिया जाता है ।

उन्हें स्वामित्व प्रदान किया जाता है ।

इसी को लक्षित करते हुए प्रेमचन्द ने अपनी कहानी ' स्वामिनी ' की वस्तु रचना की है |

रामप्यारी और रामदुलारी दो सगी बहनें थीं ।

दोनों के स्वभाव में ज़मीन-आसमान का फर्क था ।

रामप्यारी बड़ी थी, रामदुलारी छोटी ।

रामप्यारी दिल की बड़ी थी , खुले दिमाग से सोचती थी तथा परिश्रमी भी भी थी , समझदार भी ।

रामदुलारी संकुचित-हृदया थी |

दोनों गाँव के चौधरी शिवदास के दोनों लड़कों माथुर और बिरजू के साथ ब्याही जाकर चौधरी के घर पहुँच गई ।

गाँव का चौधरी शिवदास एक मस्त-मलंग, संपन्न, रूढ़िवादी , पर कुछ हद तक मितव्ययी किस्म का बुढ़ऊ किसान था ।

दुर्भाग्यवश उसका बड़ा बेटा बिरजू असमय ही काल-कवलित हो गया ।

उसकी बड़ी बहू रामप्यारी विधवा हो गई ।

बेटे की मृत्यु से दुःखी चौधरी शिवदास ने बड़ी बहू का गुम दूर करने की नीयत से उसे गृह-स्वामिनी के सारे दायित्व निभाने के लिए घर के भंडारे की चाबियाँ सौंप कर घर- गृहस्थी को चलाने की सारी जुम्मेवारियों का बोझ उस पर डाल दिया ।

उसे गृह-स्वामिनी होने का अहसास करा दिया ।

रामप्यारी भी अपने सासू-विहीन घर में (ससुराल में) यह नया अधिकार और पद पाकर बहुत प्रसन्न हुई ।

धीरे-धीरे वह घर-गृहस्थी की सारी जुम्मेवारियाँ संभालने लगी ।

उसके अपनी तो कोई संतान थी नहीं, सो वह अपना सारा लाडप्यार अपनी बहिन और देवरानी रामदुलारी तथा उसके बच्चों पर लुटाने लगी ।

उधर बुढ़क श्वसुर शिवदास घर-गृहस्थी की , तमाम लेन-देन की जुम्मेवारी रामप्यारी के कंधों पर डालकर निश्चिंत हो ही उठे थे ।

श्वसुर महोदय ने वैध व्य से उपजी कुंठा को स्वामित्व के गर्व से दबा देने का उपक्रम किया था ।

रामप्यारी सोच- समझकर घर का खर्चा चलाने लगी ।

कहीं वह कंजूसी बरतती थी और कहीं दरियादिली भी दिखाती थी ।

छोटी बहिन , यानि कि ननद कामचोर भी थी , आलसी भी और एक हद तक बदतमीज़ तथा स्वार्थिनी भी ।

घर के काम-धंधों को लेकर गाहेबगाहे रामप्यारी से उलझ भी पड़ती थी ।

श्वसुर शिवदास भी घर के छोटे-मोटे कामों में हाथ न बँटाते थे ।

सारा तामझाम रामप्यारी को ही देखना पड़ता था । रामप्यारी सफ़ाई-पसन्द थी ।

हर चीज़ करीने से रखती थी , हर काम तरीके से , सफाई के साथ करना चाहती थी ।

वह रात-दिन काम में खटती रहती थी ।

उसी के कारण घर सुधर गया , संभल गया, स्वर्ग बन गया । घर वाले तथा बाहरी गाँव वाले उसकी सुघड़ता से जलने लगे ।

उससे ईर्ष्या करने लगे ।

उसकी अपनी ही बहिन तथा ननद भी-दुलारी ने सोने के कड़े खरीदने की अड् पर काफी बाबेला भी मचाया ।

रामप्यारी ने सारा अपमान सहकर भी उसकी इच्छा पूरी कर दी ।

गाँव में एक धड़ा ऐसा भी था, जो रामप्यारी का प्रशंसक था ।

वह देख रहा था कि भरी जवानी में पति को खोकर भी स्वयं दूसरा घर (विवाह) न करके ,

रामप्यारी अधने इसी घर के लिए अपने को हलकान किए जा रही है और एक-एक करके अपने तमाम जेवर आदि घर का खर्चा चलाने के लिए हमेशा-हमेशा के लिए अपने से दूर करती जा रही है, फिर भी घर वालों के मुँह सीधे नहीं हो रहे हैं ।

उसने छोटी बहिन के नवजात शिशु के जन्ममंगल की खुशियों पर खुले हाथ से खर्च करके पूरे गाँव को न्यौत कर अपनी दरियादिली का परिचय दिया ।

श्वसुर शिवदास ने उसे एक बार रोकना भी चाहा, पर स्वामिनी के गर्व में फूली रामप्यारी ने श्वसुर महोदय को समझा-बुझाकर ऐसा करने से रोक लिया ।

मथुरा के मन में भाभी के प्रति श्रद्धा / आदर का भाव था । उधर श्वसुर शिवदास की मृत्यु हो गई ।

देवर मथुरा नौकर-चाकरों से काम लेना जानता न था ।

वह अब घर का स्वामी था ।

दुलारी तो थी ही कामचोर-सो घर की हालत बिगड़ने लगी ।

कामचोर नौकर मस्त हो हलुवा-पूड़ी उड़ाते रहते थे, पर चौधरी के खेतों पर सही तरह से काम न करते थे ।

कुछ मुहँजोर भी होने लगे थे ।

मथुरा अपनी बीबी तथा बच्चों को लेकर गाँव छोड़ मेहनत / मजूरी कर ज्यादा पैसे कमाने की गरज़ से शहर जाने पर उतारू हो गया ।

रामप्यारी ने बहुत समझाया कि वह घर की पुश्तैनी ज़मीन-ज़ायदाद, खेतीबाड़ी छोड़कर शहर पलायन न करे, पर वह नहीं माना ।

रामप्यारी को भी साथ ले जाने से इंकार कर दिया ।

मन मारकर भाभी ने देवर-दौरानी तथा उसके बच्चों को हँसते-हँसते विदा तो कर दिया, पर मन ही मन वह बुझ गई ।

उसके मुँह लगे नौकर जोखू ने ऐसी विकट एकाकी स्थिति में उसका साथ दिया ।

रात-दिन कड़ी मेहनत करके उसने मालकिन के घर को फिर धन-धान्य से भर दिया ।

रामप्यारी के मन में जोखू के लिए कोमल प्रेमभाव अंकुरित हुआ ।

जोखू अविवाहित था ।

रामप्यारी ने उस पर ब्याह करने का दबाब डाला ।

बातों ही बातों में जोखू ने जता दिया कि रामप्यारी जैसी सुघड़ , समझदार, परिश्रमी तथा मित्‌व्ययी-स्त्री अगर मिल जाए, तो वह ब्याह के बारे में एकदफा को सोच भी सकता है,

अन्यथा नहीं । रामप्यारी अब निपट अकेली थी ।

दुनिया में अब उसका कोई भी अपना न था ।

जोखू की बात सुनकर वह झेंप गई, लजा गई ।

इतना ही कह पाई-' तुम बड़े वो हो ।' और मानों सब कुछ कह दिया । है...