बालिका श्रद्धा को जन्म देते ही कोकिला के जीवन का कायाकल्प हो गया ।
उसे अपने विगत कुत्सित जीवन के प्रति घृणा और पश्चाताप हो गया ।
श्रद्धा षोडषी हुई, सुन्दरी, सुशीला, विदुषी हुई। पर 'रण्डी की बेटी'-
यह आवाज़ जब कभी सुनती तो उसे समाज से बड़ी घिन होती ।
उसकी सहपाठिनें उससे कतराती थीं ।
वह खुद उनसे दूर रहती थी -वह एकांत प्रिय थी ।
अपनी माँ कोकिला के प्रति उसके मन में अधिक श्रद्धा थी क्योंकि कीचड़ से निकल
आने को वह अधिक साहस और गौरव की बात मानती थी ।
एक दिन माँ ने पूछा, बेटी तेरे मन में अपने जन्म की कोई
ग्लानि नहीं है तो तू विवाह से इनकार क्यों करती है ?
श्रद्धा बोली, अम्मां, मैं पहले खूब पढ़ना चाहती हूँ ।
डाक्टर, वकील कुछ बनना चाहती हूँ, उसके बाद कोई सच्चा प्रेम करने वाला इच्छुक
वर मिलेगा तो उससे विवाह भी कर लूंगी ।
अभी मैं इस बारे में सोच भी नहीं सकती ।
महिला मण्डल की सभा में श्रद्धा के प्रभावशाली भाषण सुनकर श्रोता वाह! वाह !
करते और तालियाँ बजाते रह जाते थे ।
एक एम.ए. का विद्यार्थी युवक भगतराम श्रद्धा की वक्तृता से विशेष प्रभावित हुआ ।
श्रद्धा के प्रगतिशील विचारों से वह सहमत ही नहीं अपितु बहुत आकर्षित भी हुआ ।
वह श्रद्धा से मिला ।
श्रद्धा भी उसके सादेपन और हृदय की सच्चाई से प्रभावित हुई ।
दोनों का मेल-मिलाप प्रगाढ़ प्रेम में बदल गया ।
भगतराम ने एम. ए. पास कर ली।
वह श्रद्धा के घर आने-जाने लगा।
कोकिला भी उसे देखकर उसके सांवले, भोले और निष्कपट व्यक्तित्व की प्रशंसा किए बिना न रह सकी ।
उसकी इच्छा होती थी कि जल्दी से जल्दी भगतराम के साथ अपनी बेटी की शादी करके निश्चित हो जाए ।
भगतराम अर्थशास्त्र का अध्यापक हो गया।
एक दिन कोकिला ने भगतराम से कह ही दिया - अब किस सोच-विचार में हो बेटा ?
भगतराम ने कहा- अम्माजी मैं तो राजी हूँ, पर घरवाले किसी तरह राजी नहीं होते !
भगतराम के मां-बाप शहर से दूर रहते थे ।
वे जात के चमार थे । एक दिन दोनों भगतराम के विवाह के इरादे से उसके पास शहर में ही आ गए ।
भगतराम ने बताया कि मेरा विवाह यहीं श्रद्धा से निश्चित हो रहा है ।
जब चौधरी और चौधराइन ने सुना कि श्रद्धा
कोकिला रण्डी की बेटी है तो उन्होंने अस्वीकार कर दिया ।जब उन्होंने देखा कि भगतराम श्रद्धा से ही शादी करने का पक्का इरादा बना चुका है और श्रद्धा भी बड़ी ही सेवा - भाव वाली सुन्दर और सुशीला है - साक्षात् लक्ष्मी है,
तो अपनी बिरादरी की परवाह न - करके वे श्रद्धा को अपनी बहू बनाने को तैयार हो गए ।
यह सब जानकर कोकिला भी बेटी के विवाह की भरपूर तैयारियाँ करने में जुट गई ।
श्रद्धा भी उमंग से भरी हुई खुश थी ।
पर ज्यों-ज्यों शादी का दिन निकट आ रहा था, यकायक भगतराम के प्राण सूख रहे थे ।
चार दिन रह गए, भगतराम विक्षिप्त-सा हो गया ।
चौधरी और चौधराइन ने आसेब उतारने के लिए तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक किए,
कोकिला ने डॉक्टर बुलाए, पर भगतराम की हालत बिगड़ती ही गई ।
एक दिन भगतराम ने आँखें खोलकर श्रद्धा की ओर देखा और बोला- तुम आ गईं श्रद्धा !
मैं तुम्हारी ही राह देख रहा था ! यह अंतिम प्यार लो ।
आज ही सब ' आगा-पीछा' का अंत हो जायेगा, जो आज से तीन वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था ।
तुम वफ़ा की देवी हो, पर मुझे रह रहकर यह भ्रम होता था, क्या तुम खून के असर का नाश कर सकती हो ?
क्या तुम जन्म के प्राकृतिक नियमों को तोड़ सकोगी ? " मैं तुम्हारे योग्य न था ! ""
उसके ये उद्गार सुनकर क्षुब्ध हुई श्रद्धा एकदम वापस अपने घर लौट गई।
पर आवेग उतरने पर फिर से भगतराम के पास आ पहुँची ।
भगतराम ने आँखे खोलकर कहा- मैं जानता था, तुम आओगी ! इसीसे अभी तक प्राण अवशेष थे।
भगतराम ने अपने वक्षस्थल पर झुकी श्रद्धा के अश्रु सिक्त कपोलों को चूम लिया और बोला- "यह हमारा और तुम्हारा विवाह है श्रद्धा !
यह मेरी अंतिम भेंट है !" और इसके साथ ही उसकी आँखें सदा के लिए बंद हो गईं ।
श्रद्धा के मुख से निकला-प्यारे, मैं तुम्हारी हूँ और सदा तुम्हारी ही रहूँगी !