अभिलाषा

कल मेरे पड़ोसी पानवाले ने अपनी पत्नी को मार-पीट कर घर से निकलने पर मज़बूर कर दिया - उस पत्नी को,

जिस पर पहले एक दिन वह जान छिड़कता था।

मैं घंटों देखती रही कि शायद वह स्त्री लौट आए या पानवाला ही उसे मना कर लौटा लाए ।

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । कितना काम करती थी वह !

सुबह सवेरे से आधी रात तक दुकान चलाती थी, पति से ज्यादा काम करती थी !

इतना निर्दयी क्यों हो जाता है पुरुष, नारी के प्रति ?

यह सब सोचती हुई मैं अपने शयनकक्ष में गई ।

मेरे पतिदेव निद्रामग्न थे ।

कभी मैं उनके इस शशिमुख पर लट्टू थी, उनके विशाल वक्ष पर सिर रखकर मैं आनंदित हो सिहर उठती थी ।

पर आज ऐसा कुछ नहीं होता।

समय बीतने पर हमारी अभिलाषा क्यों मंद पड़ जाती है ?

केवल पाँच साल पहले मैं पति का सान्निध्य पाने को तड़पती रहती थी !

उन्हें घर से जाते देखने को लालायित रहती थी, उनके आने की प्रतीक्षा में घंटों छत पर राह देखती रहती थी !

अब वह अभिलाषा कहाँ चली गई ।

द्वार बंद होता है तो जान जाती हूँ कि वह चले गए, द्वार खुलता है तो मालूम हो जाता है कि वह आ गए !

तब उनकी छोटी-छोटी बातों छोटे-छोटे कामों को भी मैं अनुरक्त मुग्ध नेत्रों से देखा करती थी, पर अब न जाने क्यों वैसा भाव रहा ही नहीं ।

उनका दिया हुआ गुलदस्ता, उनका पत्र,

उनकी हर चीज पहले मुझे अनुराग से भर कर मेरे हृदय के तार-तार को कम्पित कर देते थे,

पर आज वह अभिलाषा न जाने कहां खो गई !

मैं देवी से वरदान मांगती थी सदा संयोग का ! देवी ने मुझे वरदान दिया भी,

पर अब मैं देवी से मांगना चाहती हूँ कि देवी !

मुझे वे दिन लौटा दो जब हृदय में प्रेम की तीव्र अभिलाषा थी ।

मैं अब भी देवी से वह दिन दिखाने की प्रार्थना करूंगी जब मैं किसी निर्जन जलतट या सघन वन में अपने प्रियतम को ढूंढती फिरू,

नदी की लहरों से पूछूं, मेरे प्रियतम को तुमने देखा है ?

वृक्षों से सवाल करूं, मेरे प्रियतम कहाँ गए ?

सहसा मैंने रोते हुए सोते प्रियतम की छाती पर सिर रख दिया और उस परम सुख का अनुभव किया जिसके लिए कितने दिनों से मेरा हृदय तड़प रहा था ।

आज फिर मुझे पतिदेव का हृदय धड़कता हुआ सुनाई दिया, आज उनके स्पर्श में फिर स्फूर्ति का भान (आभास) हुआ !