गुल्ली-डंडा

'गुल्ली डंडा ' एक विशुद्ध भारतीय खेल है ।

गए वक्तों में यह देश के गरीब लड़कों में उसी तरह लोकप्रिय था,

जैसे कि आजकल अमरीका में ' बेसबॉल ' का खेल है ,

या यूरोप में फुटबाल का खेल |

इसी खेल को प्रतीक बनाकर भारत में ब्रिटिश राज के दिनों में आम आदमी तथा ब्रिटिश भारतीय नौकरशाह (ब्यूरोक्रेट) की जीवन-शैली/ चिंतन शैली के फर्क को बताया गया है,

जो कमोवेश आज भी स्वातंत्रयोत्तर भारतीय समाज में जारी है ।

प्रेमचंद ने कहा है- अंग्रेजों का जमाना था ।

गरीबों, आम आदसमियों तथा हाकिमों के रहन-सहन, उनकी सोच-समझ तथा आपसी मेल-मिलाप,, व्यवहार में ज़मीन-आसमान का फर्क था ।

बड़े लोगों के बीच तो यह फर्क साफू-साफृ दिखता ही था,

उनके बच्चों के बर्ताव में भी यह नज़र आता था ।

कहानी की दृष्टि से गुल्ली-डंडे का भारतीय खेल अंग्रेजों के क्रिकेट के खेल की तुलना में कई गुना बेहतर था ।

गुल्ली-डंडे के खेल में न तो टीम का जुगाड़ करने की झंझट, न ही महंगे खेल-उपकरण, न ही किसी लम्बे चौड़े आलीशान मैदान को तैयार करने की ज़हमत ।

बस एक संगी-साथी पकड़ी, पेड़ की डाल से काट-छाँटकर खुद ही बना लो एक गुल्ली और एक दंडा-और बस फिर चाहें रात-दिन खेलते रहो ।

पदते रहो , पदाते रहो । कोई झंझट नहीं, कोई फिक्र नहीं, खाने-पीने, घर जाने, काम-धंधा करने, पढ़ने-लिखने की भी कोई फिक्र नहीं ।

पूरे खेल की अपनी एक अलग ही पारिभाषिक-शब्दावली है ।

'दाँव' का मज़ा लेना है, पदने-पदाने का जादुई करिश्मा देखना है, तो वह क्रिकेट का बाहरी विदेशी खेल क्या दिखायेगा , जो गुल्ली-डंडे का खेल दिखा सकता है।

कहानी का नायक एक थानेदार का बेटा, खाते-पीते अंग्रेज नौकरशाह परिवार का हिन्दुस्तानी लाडला, उसका प्रतिरोधी 'गया' नामक उसका हमउम्र बालक , एक दलित-चमार का बेटा, दोनों में कया जोड़, क्या मुकाबला ।

लेकिन बचपन की बात और थी ।

बचपन में गाँव के बच्चे छोटे-बड़े का ख्याल नहीं रखते ।

सब बराबरी का भाव रखते हैं , बराबरी के भाव से ही खेलते, लड़ते-झगड़्ते, रूठते तथा मान-मुनौबन करते , दोस्ती आदि निबाहते हैं ।

सो गया' भी कथा-नायक से बचपन में ' गुल्ली-डंडे' के खेल में एक बार अपनी बारी को लेकर 'पदने-पदाने' को लेकर भिड़ गया था |

बाल-मनोविज्ञान, बाल-स्वभाववश ठोंकम-ठुकाई, हाथापाई की . नौबत तक उतर आया था ।

थानेदार का बेटा, कथा-नायक भी लड्कपन की उम्र में गया के हाथों पिट-पिटाकर अपने घर भाग खड़ा हुआ था ।

बाद में कथानायक के थानेदार-बाप का एक बड़े शहर में तबादला हो गया ।

गाँव पीछे छूट गया । बीस बरस का लम्बा अर्सा गुजर गया ।

कथानायक पढ़ लिखकर इंजीनीयर हो गया ।

वह अंग्रेजी-राज़ के दिनों में हाकिम बनकर उसी लड़कपन के गाँवों में आया ।

वहाँ उसने अभी भी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा, तो उसे अपने लड्कपन के दिन याद आ गए ।

गया' याद आ गया । 'गया' गुल्ली-डंडे के खेल का माहिर खिलाड़ी था ।

मानों वह ' गुल्ली डंडे' - का “तेंदुलकर' या *गावस्कर' था ।

कथा-नायक ने गया' की खोज-खबर ली ।

उसे ढूंढ निकाला ।

गया अब लम्बा-चौंडा, काला- कलूटा पहलवाननुमा चमार था । वह अभी भी उतना ही गरीब तथा अनपढ़ था ।

अपने बचपन के साथी को देखकर पहचान भी गया ।

लेकिन कहाँ ' गया' चमार, कहाँ इलाके का हाकिम अंग्रेज सरकार का नौकरशाह ।

' गया' चमार सकुचाया ।

भला हाकिम से बराबरी कैसी । खेल तो बराबर वालों में ही खेला जा सकता है ।

ऊँचे-साहब लोगों के साथ गरीब, दलित चमार की कैसी खेलबंदी ।

वह पीछे हटा, लेकिन कथानायक ने उसे खेलने के लिए मना लिया ।

'गया' सकुचाते हुए गुल्ली-डंडे का खेल खेलता रहा ।

कथानायक जानबूझकर हर तरह की बेईमानी कर, खेल के नियमों को भंग करता दाँव पर दाँव मारता रहा ।

'गया' चुपचाप हर दाँव हारता रहा ।

आखिर, सामने विपक्ष में खड़ा जोड़ीदार अब एक हाकिम था / नौकरशाह-भला “गया ' इतनी हिम्मत कैसे कर सकता था कि गुल्ली-डंडे के खेल में मालिक को हरा दे ।

मालिक को मुँह तोड़ जबाब दे ।

वह कथानायक को जिताता रहा, खुद हारता रहा ।

कथा-नायक को तो हार-जीत के इस खेल में गया की दयानतदारी का पता तब चला, जब अगले ही दिन गाँव में आयेजित ' गुल्ली-डंडे' के मैच में उसने गया' को कमाल के करिश्माई शॉट लगाते हुए देखा ।

सबको पदाते हुए देखा ।

कथानायक समझ गया कि पिछले दिन को गया ' उसके साथ बराबरी के स्तर पर न खेलकर उसे जानबूझकर जिताता रहा था, खेलाता रहा था ।

वह अफसर था, हाकिम,, ब्रिटिश-भारत में भारतीय ब्रिटिश-सरकार का एक हिन्दुस्तानी हाकिम, उससे बराबरी की हिमाकृत-भले ही वह ' खेल ' में ही क्यों न हो-एक अदना सा आम प्रजाजन कैसे कर सकता था ।

छोटाई-बड़ाई के इस भेद को समझकर वह चिंहुक उठा ।