ज्योति

बूटी अहीरन थी ।

एक ग्वालिन । भरी जवानी में विधवा हो गई ।

वैधव्य का दुःख झेलना पहाड़ हो गया ।

यूँ तो तीन बच्चों की माँ थी, पर यौवन की रंगत कुलाचें भर रही थी ।

रासरंग, दांपत्य-भोग भाव से अभी जी भरा नहीं था ।

उसे अपने रूप का भी गुमान था ।

उसे लगता था कि अभी उसने खाया-खेला ही क्या है, जो उस अवृप्ता को अकेले घर-गृहस्थी तथा बच्चों के लालन-पालन का भार उठाने के लिए उसका मरदुआ उसे अकेला छोड़कर हमेशा के लिए चला गया ।

पास में कोई लम्बी-चौंड़ी दौलत तो थी नहीं ।

कई बार जी किया, कि सब कुछ छोड़-छाड़कर किसी से नेह का नाता जोड़ ले ।

किसी की भी झोंपड़िया में जाकर बैठ जाए, कम से कम निगोड़ी देह तो तृप्त हो ही जाएगी ।

लेकिन अपने ही पेट जाए बच्चों का ख्याल कर लक्ष्मण-रेखा लांघने से रह गई ।

अपने पातिव्रत्य धर्म को निभाने लगी । बच्चों को बड़ा करने लगी ।

तीन बच्चे, मोहन, सोहन और मैना ।

हदय का रस-सागर धीरे-धीरे उम्र की आँच में सूखने लगा, मन का श्रृंगार-भाव भाप बन कर उड़ने लगा ।

बूटी धीरे-धीरे बुढ़ाने लगी ।

यौवन से मदमाती उसकी देहराशि पर वक्त की परत चढ़ती चली जाती थी ।

पान खाने, होठों को लाल करने / रंगने की तमन्ना दिल में ही रह गई थी ।

गाँव में जब अपने से अधिक उम्र दराज़ औरतों को खाते-पीते, श्रृंगार करते देखती थी, या उनके बारे में सुनती थी, तो उसके सीने पर साँप लोटने लगता था वह हर वक्त कुढ़ती रहती थी ।

हर वक्त गुस्सा तथा नकारात्मक भाव उसकी नाक पर बैठा रहता था ।

अपने बड़े बेटे 'मोहन' को हमेशा डाँटती रहती थी ।

मोहन १6 की उम्र पार कर गया था ।

बड़ा फ्रमाबरदार बेटा था ।

लेकिन माँ की तंगदिली की वजह से कुछ उखड़ा-ठखडा सा रहता था ।

वह एक सुन्दर, कमसिन , गरीब , सीधी-सादी , खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने का चाव रखने वाली गाँव की छोहरिया ' रूपिया' पर मर मिटा था ।

उससे आशनाई करने लगा था ।

मोहन की माँ बूटी को अपने बेटे तथा रूपिया का रूप-लावण्य तथा उसकी श्रृंगारिक-चाहतें एक चुनौती सी लगती थीं ।

वह इस प्रसंग को लेकर मोहन को डाँटने लगी ।

मोहन ने जब बताया कि वह तो उसे जुबान दे चुका है, अपनी 'वाग्दत्ता' बना चुका है, तो बूटी ने भी चेतावनी भरे लहजे में अपना फैसला सुना दिया कि वह या तो माँ को चुन ले, माँ के घर में रहे, अन्यथा चलता बने ।

वह किसी भी सूरत में रूपिया' को अपने घर में बहू बनकर नहीं आने देगी ।

मोहन भी जवान था, मेहनती , वह भी ऐंठ गया ।

सोचने लगा, माँ का तो दिमाग फिर गया है ।

उधर बूटी. थी कि उसका पारा सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ था ।

मोहन ने रूपिया को सारा कदटु प्रसंग बता दिया कि माँ उसे नहीं चाहती ।

उससे उसका विवाह न होने देगी ।

रूपिया बहुत भोली / मासूम थी । उसने भी कह दिया कि वह अपने प्यारे मोहन का चेहरा देख कर ही सारी उमरिया गुजार देगी ।

बस वह उससे दिन में एक-दो बार बतिया लिया करे, मिल लिया करे ।

उसने प्रेमतत्व का कोमल-मूदुल भाव मोहन के दिल में कुछ इस तरह जगा दिया कि मोहन के मन की सारी कड्वाहट/ कटुता जाती रही ।

मोहन अपने छोटे भाई सोहन तथा अपनी बहिन ' मैना ' को लेकर और संजीदा हो गया ।

अपनी कर्कशा-माँ के प्रति भी पूरी तरह नम्र हो, हर तरह से माँ की दिलजोई करने लगा ।

अपने बेटे मोहन में परिवार के प्रति आई इस मधुरता, अपनत्व एवं लगाव की तीव्रता को देखकर बूटी खुश भी हुई, अंचभित भी हुई ।

बूटी ने पाया कि मोहन में उफ़न आए इस ममत्व-माधुर्य का कारण रूपिया ' है ।

उसने गाँव में अपनी हमजोली धनिया के घर में जब रूपिया को निस्वार्थ भाव से सेवा-सुश्रूसा करते देखा, उसकी मासूमियत , रूप की लुनाइयत को जाँचा-परखा, तो उसे रूपिया में वे सारे गुण दिखाई देने लगे जो कोई भी माँ अपने बेटे के लिए अपने घर में लाने वाली बहूरानी के चरित्र में देखना चाहती है ।

बूटी का दायित्व-बोध जाग उठा ।

उसकी तुनकमिज़ाजी और उसके जी का कड़ापन, कोड़ामार भाषा की तल्खी सब छूमंतर हो गए ।

उसने देख लिया, कि शौक-शिंगार ) अच्छा ओढ़ना, पहनना, खाना-पीना और जीवन के / यौवन के हर पल का श्रृंगारिक-भोग करने की लालसा हर स्त्री का, खासकर युवती का सहज स्वाभाविक अधिकार-भाव है ।

इस बात को लेकर दूसरों से-खासकर रूपिया से डाह रखना-यह अपने “आप में पूरी तरह गलत है ।

उसने मोहन से रूपिया का ब्याह रचाकर रूपिया को अपने घर की शोभा बनाने का निर्णय ले लिया ।

सच है, लाग और लगाव में ही जीवन का / घर का सच्चा सुख समाया हुआ है ।