अंग्रेज-राज को दिनों में रियासतों का जमाना था ।
रियासतदार कुँवर गजराजसिंह एक लम्बे-चौंडे , तड़ंगे, रूपवान, लहीम-शहीम व्यक्तित्व के धनी थे ।
मानी-अभिमानी थे, अभिजात थे ।
खानदानी रियासत की सदियों पुरानी विरासत के मालिक थे ।
शिकार का बेहद शौक था ।
राजे-रजवाड़ों में अय्याशी तथा ऐशो-आरम से जिन्दगी गुंजर-बसर करने के जितने शौक होते हैं, वे सब उनमें थे ।
सारी सुविधाएँ प्राप्त थीं ।
नौकरों / कारिन्दों , सचिवों , खानसामों की लम्बी चौड़ी फौज. हर वंक्त हुकूम बजा लाने के लिए कुँवर साहब की तीमारदारी में मशगूल रहती थी ।
रानी साहिबा “वसुधा' रूपवती महारानी थीं ।
अपने पतिदेवता पर यूँ तो दिल-ओ-जान से फिदा थीं, लेकिन अपनी मुँह चढ़ी दासी मुनिया के कहने में आकर इस बात से कुछ परेशान हो रही थीं कि वह तो राजमहलों की गुड़िया बनकर रह॑ गई हैं ।
पति देवता पर उनका ज्यादा जोर नहीं चलता ।
कुँवर साहब को तो शिकार तथा दोस्तों से ही फुर्सत नहीं मिलती कि वे अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए कुछ वख़्त निकाल सकें ।
उनके साथ दिलजोई कर सकें ।
जब देखो , तब शिकार में या चंडूखाने की बैठक में अपने यार-दोस्तों के बीच घिरे रहते हैं ।
उधर उनकी अदनी सी फटेहाल दासी मुनिया' है, जो खुद कमाती-धमाती है, मेहनत-मजूरी करती है, अपने पति पर अपना रूआब-दुआब गालिब रखती है ।
उसका पति भीगी बिल्ली बना उसके कहे में रहता है ।
वह पति की धौंस नहीं सहती क्योंकि वह *वकिंग-बुमैन ' है ।
कोरी 'हाउस-वाईफ' नहीं है, जो केवल पति की कमाई पर ही मयस्सर रहे ।
मुनिया ने महारानी वसुधा को यह भी समझा दिया कि जो महिलाएँ कमाती-धमाती नहीं है , घर पर ही रहते हुए बतौर ' हाउस- वाईफ '
घर-गृहस्थी का सारा बोझ उठाती हैं, वे भी कम लहीम-शहीम नहीं होतीं , कम मेहनती नहीं होतीं ।
अपितु उनके श्रम का मूल्य तो और भी ज्यादा होना चाहिए, जो केवल 8 घंटे काम न करके 24 (चौबीसों) घंटे पति के घर की तीमारदारी में सश्रम लगी रहती हैं ।
वसुधा को अपनी अहमियत का अहसास हुआ |
कुँवर गजराजसिंह को पीलीभीत (यू.पी. ) के जंगलों में शिकार के लिए गए एक लम्बा अर्सा गुजर गया था ।
रानी वसुधा ने बीमारी की हालत में भी तुरन्त अपने पति के पास जंगलों में जाने की ठान ली ।
उसने रियासत के मैनेजर को बुलाकर कड़ा आदेश देते हुए तुरन्त दो मोटरकारें हाजिर करने का रियासती हुक्म दिया ।
घर के डॉक्टर ने हरचन्द कोशिश की कि वह अस्वस्थ है,
बीमारी की इस दशा में लम्बे थकान भरे सफ़र पर न जाए,
पर रानी साहिबा ने डॉक्टर की सलाह मानने से इंकार कर दिया ।
वह मोटरगाड़ी से कुँवर गजराजसिंह तक-अपने पति के शिविरों तक जा पहुँची ।
अपनी पत्नी को इस तरह अचानक आया हुआ देखकर कुँवर साहब एकदम अचकचा गए ।
ड्राईवर पर बहुत नाराज़ हुए कि बीमारी की हालत में वह मालकिन को इस तरह लेकर आया ही क्यूँ ।
उधर रानी साहिबा की तबियत और बिगड़ गई ।
चरित्रवान एक-पत्नीव्रती कुँवर गजराजसिंह ने पत्नी की देखभाल तथा तीमारदारी में कोई कोर-कसर न उठा रखी ।
2 दिन तक रानी वसुधा बीमार रहीं और पति देवता अपनी पत्नी को देखभाल करते रहे ।
इस दौरान उन्होंने शिकार के लिए बाहर जाने, जंगलों की खाक छानने का रूख भी न किया ।
पति को बराबर अपने पास पाकर महारानी निढाल हो गई ।
तृप्त हो गई ।
उसके दंभ तथा अहंकार भाव को बहुत सुकून मिला ।
उसका माधुर्य फूट पड़ा ।
जिदूद करके पति को शिकार के लिए जाने को कहने लगी ।
साथ ही यह भी इच्छा जाहिर की, कि वे उसे निशाना लगाना सिखा दें,
वह भी पति के साथ शिकार के खेल में शरीक होना चाहती है ।
कुँवर गजराजसिंह ने दो-चार दिन उसे निशाना साधने का प्रशिक्षण दिया ।
उसकी खूब दिलजोई की ।
पूर्व योजनानुसार एक ऊँचा मचान बाँधकर एक भयानक सिंह के शिकार का आयोजन रचा गया ।
शिकार के लिए सारे जरूरी इंतजामात कर दिए गए ।
पति-पत्नी दोनों बंदूकें थाम मचान पर बैठ गए ।
ऐन मौके पर रात के घुप्प अंधेरे . में एक लम्बा-तंड्गा खूँखार सिंह नीचे बंधे भैंसे को जिब्ह करने के लिए आया ।
कुँवर साहब ने तक कर गोली चलाई ।
पहला निशाना चूक गया ।
दूसरी गोली सिंह को लगी जरूर, पर उसे घायल ही कर सको , उसका खात्मा नहीं कर सकी ।
चुटियाआ सिंह गुस्से में गर्जन करता हुआ जोर से मचान पर उछला , कुूँवर साहब मचान के जोर से हिला दिए जाने की वजह से संतुलन न संभाल सके , नीचे ज़मीन पर आ गिरे, उधर सिंह सामने दहाड् रहा था, कूँवर साहब की बंदूक उनके हाथ से छिटक कर दूर जा गिरी थी ।
ऐसे में रानी वसुधा एकदम -. चिहुंक उठी ।
उसने तावड़तोड़ एक-दो निशाने सिंह पर दाग दिए ।
खुद भी मचान से छलांग लगा दी ।
अपने प्राणप्रिये, अपने सर्वस्व की जीवन रक्षा का सबसे जटिल प्रश्न उसके समक्ष था ।
वह बहदवासी को हद तक पगला सी चुकी थी ।
उसने सिंह पर फिर गोली दागी ।
सिंह तड़पने लगा, गिर गया, ठंडा हो गया ।
उधर रानी साहिबा भी गिर कर मूर्छित हो गई ।
जब होश में आई तो पति ने प्यार से पूछा कि उसने यह सब कैसे कर दिया ।
रानी साहिबा ने इतना ही कहा-मुझे नहीं पता मैंने क्या किया, जो भी कुछ हुआ, वह सब एक मुूर्च्छना की हद तक उद्वेगावस्था में हुआ है ।
उसके अपने किए से संभवत: कुछ नहीं हुआ ।
पति पत्नी द्वारा इस तरह जान जोखिम में डालकर उसके प्राण बचा लेने की अदा पर मुग्ध हो गया ।
दोनों वापस अपने राजमहल चले आए ।
राजकूँवर गजराजसिंह ने मन ही मन प्रण कर लिया था कि वे अब भविष्य में अपनी पत्नी तथा बच्चों के प्रति अपने कर्त्तव्य-पथ से विमुख होकर इस तरह शिकार आदि के स्वार्थक-कार्यवृत्तों में अपने को न उलझाएंगे ।
वे भगवान से मनौतियाँ मांगने के लिए मन्दिर की तरफ जा रहे थे ।
शिकार ने पति-पत्नी के गहरे लाग-लगाव / रिश्ते की बारीकी को उजागर कर दिया था |
किसी ने ठीक ही कहा है, घर पहले आता है, शिकार वगैरहा, यारबाजी , गपास्टकबाजी बाद में ।