लड़के से लड़की भली, जो कुलबन्ती होय ।
तुलसी महतो (पिता) और लक्ष्मी (माँ) की बिटिया-सुभागी बचपन से ही एक सुलक्षणा थी ।
बेचारी अभागिन 17 वर्ष की होते-होते बाल विधवा हो गई ।
माँ, सुभागी को बहुत प्यार करती थी ।
उसे किसी की नज़र न लग जाए, इसीलिए अंधविश्वाीसवश उसे हमेशा डाँटती-डपटती रहती थी ।
सुभागी किसी बात को दिल पर नहीं लेती थी ।
वह रात-दिन घर की भलाई के लिए ही खटती रहती थी ।
जब विधवा हुई, घर में रोना-पीटना मचा, कोहराम हुआ, तब वह कुछ भी न समझ पायी कि यह सब क्यों हो रहा है ।
कारण, एक अबोध बालिका ही तो थी ।
गाँव वालों / बिरादरी वालों ने तुलसी महतो पर बहुत जोर डाला कि ' सुभागी' को कहीं और ब्याह दे,
उनकी बिरादरी में विधवा विवाह को बुरा नहीं माना जाता था, 'सुभागी ' ही इसके लिए तैयार न हुई ।
उसने कह दिया कि वह रात-दिन मेहनत-मंजूरी करके अपना भी पेट पाल लेगी , अपने बूढ़े होते माँ-बाप की भी सेवा-सुश्रूसा / देखभाल कर लेगी ।
एक बड़ा भाई था-रामू ! हट्टा- कट्टा , ब्याहता , गबरू जवान ।
पर था एकदम निकम्मा, महाउजडूंड, झगड़ालू, अहंकारी, स्वार्थी और नामुराद, बेमुरव्बत-माँ बाप या छोटी बहिन की सुध न लेने वाला ।
उसकी मेहरिया बदूतमीजी में उससे भी दो हाथ ऊपर ही थी ।
हर वक्त उधार खाए बैठी रहती थी ।
अपनी ननद सुभागी से बुरी तरह जलती थी ।
सास-श्वसुर की कतई कोई इज्जत नहीं करती थी ।
हर वक्त जली-कटी सुनाती रहती , अपने आदमी के कान भरती रहती ।
रामू और उसकी बीबी को माँ-बाप तथा बहिन सुभागी बोझ लगने लगे ।
वह बाप के सामने ही जब चाहता, सुभागी को झाड़ पिला देता ।
सुभागी चुपचाप सब कुछ सहन करती थी ।
तुलसी महतो से यह सब न देखा गया ।
उसने गाँव के पंच बुलाकर उनकी गवाही में अपनी संपत्ति का बँटवारा कर दिया ।
अपने लड़के रामू और उसके परिवार को अपने से अलग कर उनसे नाता तोड़ लिया ।
रामू भी अजीब हेंकड़ किस्म का कुत्ता था, उस कुपुत्र ने भी इस बात की परवाह न की ।
एक ' सुभागी ' ही थी, जो यह सब देखकर मन ही मन बहुत व्यथित थी ।
वही आखिरी वक्त तक माँ-बाप की बुढ़ौती की लाठी बनी रही ।
गाँव के मुख्तार बाबू सज्जनसिंह भद्र-पुरुष थे । वे तुलसी महतो के मित्र भी थे ।
उन्होंने महतो को वचन दिया था कि सुभागी का वे एक पिता की तरह हमेशा ध्यान रखेंगे ।
दैवयोगवश तुलसी महतो बुरी तरह बीमार पड़ गया ।
बचने की कोई उम्मीद न रही ।
सुभागी ने रात-दिन दौड़ धूप की , पर पिता को बचा न सकी । बेटा रामू पिता को मुखग्नि देने तक श्मशान-घाट नहीं गया ।
माँ लक्ष्मी ने ही अपने पति तुलसी का दाह-संस्कार किया था ।
सज्जनसिंह की मदद से सुभागी ने पिता की अंतिम क्रिया के बाद आलीशान तरीके से महामृत्युभोज दिया ।
मृत्युभोज की शान-औ-शौकृत देखकर पूरे गाँव ने अचंभित हो दाँतों तले उंगली दबा ली ।
दुर्दववश माँ लक्ष्मी भी थोड़े से समयान्तराल बाद चल बसी ।
माँ का मृत्युभोज भी सुभागी ने ही किया ।
उस पर सज्जनसिंह का 500/- (पाँच सौ रुपये) का कर्जा चढ़ गया था ।
लेकिन सुभागी ने हार नहीं मानी ।
रात-दिन मेहनत-मजूरी करके उसने तीन साल में सारा कर्जा चुका दिया ।
सारा गाँव उसकी चारित्रिक-दृढ़ता, परिश्रमी-प्रवृत्ति, सहनशीलता, सदाशयता, पर दुःखकातरता एवं सुधड़ता को देखकर उसकी प्रशंसा करता था ।
भाई रामू तथा उसकी भाभी ने तो सारे नाते-रिश्ते खत्म कर लिए थे ।
मानो उन्होंने सुभागी के बुजूद से ही इंकार कर दिया था ।
पिता तुल्य सज्जनसिंह ' सुभागी ' की सुधड़ता, ईमानदारी तथा उसकी परिवार-संचालन क्षमता को
देखकर अत्यन्त प्रसन्न थे ।उनका जवान बेटा मन-ही-मन ' सुभागी '
को दिल से चाहने लगा था ।सज्जनसिंह ने उचित अवसर देखकर सुभागी के आगे प्रस्ताव रखा कि वह उनके घर की शोभा-श्री बनकर उनके परिवार में उनके बेटे की बहू बनकर आ जाए ।
सुभागी एक बार तो सकुचाई, पर पिता-तुल्य सज्जनसिंह को न नहीं कर सकी |
उसने लज्जा से आँखें झुका लीं । सज्जनसिंह ने उसे चिर सुहागन' का आशीर्वाद देते हुए अपने घर की बहू बना लिया ।
सारा गाँव खुश था ।
सुभागी को भी मानों दूसरे माँ-बाप और एक प्यारा-सा पति मिल गया था ।
किसी ने ठीक ही कहा है, कुपत्ते, अहंकारी , नामुराद पुत्र से तो सुलक्षणा पुत्री भली ।
लड़की चरित्रवान हो , समझदार हो, तो पूरे परिवार में, कुल में उजाला कर देती है ।