महाशय गुरुप्रसाद जी रसिक जीव हैं ।
गाने-बजाने , खाने-खिलाने , खेल-तमाशे, नाटक-कविता सब के शौकीन ।
जी में आया एक नाटक कंपनी खोली जाए,
कम्पनी तो न
खुली-किसी ने हिस्से खरीदे ही नहीं-हाँ किगुरुप्रसाद ने एक नाटक | अवश्य लिख डाला और इसका मंचन कराने की फिक्र में गुरुप्रसाद जी |
अपनी पाँच यारों की एक ! मंडली बना कर एक
ड्रामा कौँपनी के सेठ जी को पटाने चले ।
एक साथी अमरनाथ ने कहा-सेठजी, लाहौर की ड्रामेटिक क्लब का मालिक हफ्ते भर यहाँ पड़ा रहा, पैरों पड़ा कि मुझे यह नाटक दे दीजिए ।
लेकिन आपने (गुरुप्रसाद जी ने) न दिया।
इसी तरह सब साथी सेठ जी पर प्रभाव जमाते हैं-नाटक बहुत बढ़िया है, लिखने में पूरी जिंदगी लगा दी है ।
आपके कुशल ऐक्टर जल प्रदर्शित करेंगे तो वाह ! वाह ! हो जायगी... आदि ।
ले रिहर्सत्त के सपय भी खूब तालियां बजा-बजा कर तारीफ के पुन बांध देते हैं ।
वे सेठ जी से पाँच-दस हज़ार शुरू में ही पाने करो आशा जताते हैं
सब्ज बाग दिखाकर गुरुप्रसाद जी से बढ़िया दाखत उडाते हैं ।
दावत में सेठजी को भी आमंत्रित करते हैं ।
सेठ भी पत्त्ने दर्जे का घाघ था ! उसने गुरु प्रसाद का नाटक रख लिया और उन्हें डिपांस्ट्रेशन ( प्रदर्शन ) देखने के लिए आने का खुलाला टैकर चलता किया ।
सेठ जी बोले-हुजूर ने बहुत बढ़िया नाटक लिखा है |
जो लोग धन के लिए या मान के लिए लिखते हैं, उनकी लैखनी में कोई ताकत नहीं आती ।
अफसोस कि यहाँ की जनता को अच्छी चीज की कद्र नहीं ।
पर आप निशिचंत रहें, मैं पचास हजार रुपये इसके डिमास्ट्रेशन पर खर्च कर दूंगा ।
इसका प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड्गा...!
यह सब कहकर सेठजी ने इन्हें चलता किया |
चाहर आकर सब बोले- यह हम सब का गुरुघंटाल निकला!
शुरूप्रसाद सर झुक्ताएं ऐसे चल रहे थे, मानों अभी तक वह स्थिति को ही न समझ पाए हों ।