मैं मजिस्ट्रेट वागले कुंवर सज्जन सिंह की गढ़ी में अपने लाव-लश्कर के साथ सात दिन से कैम्प लगाए हुए हूँ ।
सभी ज़मींदार ऐसे मौकों पर बडे सरकारी अफसरों ,
मजिस्ट्रेटों की अगवानी , खातिरतवाजो,
खुशामद करते हैं, मिलने आते हैं, अपने काम निकलवाते हैं पर कुंअर सज्जन सिंह अपने स्वाभिमान,
आत्मगौरव और गर्व में चूर ऐसा कुछ करना अपना अपमान समझते हैं ।
जब सात दिन तक कुंअर साहब मिलने नहीं आए तो मैं खुद उन्हें मिलने गया और उसका रोब-दाब देखकर प्रभावित हुआ ।
सरयू नदी की बाढ़ में गांव के गांव, फसलें , ढोर-डंगर डूब गए। सरकारी सहायता पाने के लिए,
नुकसान का अधिकाधिक मुआवजा पाने के लिए ज़मीदार कमीशनर और हाकिमों की खुशामद करते हैं,
पर सज्जन सिंह ऐसा कुछ नहीं करता ।
क्लेम करना तो दूर, वह स्वयं अपने असामियों का लगान माफ़ कर देता है ।
राष्ट्रीय कवि शंकर के सम्मान में सभा हुई ।
मैं एंट्रेन्स पढ़ते हुए राष्ट्रकवि शंकर के आगे नत-मस्तक हुआ,
पर कुंवर सज्जन सिंह नत-मस्तक होना तो दूर,
बीच में ही सभा से उठकर चले गए ।
पूछने पर कहने लगे-मैं शंकर की कविता का प्रेमी हूँ,
उनकी इज्जत करता हूँ, मगर उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरू नहीं मान सकता , चरणों में सर नहीं झुका सकता ।
” मैं मन-ही-मन सोचने लगा-“यह आदमी नहीं , घमण्ड का पुतला है, देखें इसका सिर कहाँ झुकता है !”
एक शाम मैं नदी की सैर को गया ।
सामने एक उंचे बरगद पर रोशनी में एक व्यक्ति को एक साधु के चरणों में माथा टेके देखा ।
यह कुंवर सज्जनसिंह थे ।
आज मुझे पता चला कि यह सिर झुकता है-“वासनाओं में लिपटे भौतिकवादी लोगों के आगे नहीं ,
चाहे वह कितने ही प्रभावशाली सत्ताधारी क्यों न हों,
अपितु सच्चे विरक्त सिद्ध महात्मा के आगे झुकता है ।
घमण्ड वैराग्य और अध्यात्म के आगे सिर झुकाए था ।”