भारत में अंग्रेजी-राज का जमाना था ।
देश गुलाम था ।
कांग्रेस के नेतृत्व में सत्याग्रही हिन्दुस्तान से ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिए अहिंसक स्वाधीनता-संघर्ष कर रहे थे ।
आंदोलनकारियों की कमर तोड़ देने के लिए ब्रिटिश हुकूमत न्याय की,
इंसानियत की सारी हदें पार करके साम-दाम-दंड-भेद की नीति पर उतर आयी थी ।
हुकूमत के हाथ बहुत लम्बे थे ।
उसके पास फौज थी, पुलिस थी , खुफ़िया-तंत्र था, लम्बी-चौड़ी नौकरशाही थी ,
अदालतें उसकी थीं , कानून उसका था ।
वह पूरे मुल्क की मालिक थी ।
जो चाहे कर दे । जिसे चाहे उजाड़ दे ।
जेल के सीखचों के पीछे बंद कर उसके परिवार को , खानदान को नेस्तनाबूद कर दे ।
कहानी की नायिका को भी ऐसा ही अनुभव हुआ ।
उसे ब्रिटिश राज की राजनैतिक दरिंदगी का कोप-भाजन बनना पड़ा ।
उसका कुसूर इतना ही था कि उसके पति ने कड़ी दुपहरी में ग्रीष्म ऋतु में कुछेक कांग्रेसी सत्याग्रहियों को ठंडा शर्बत पिलाया था ।
बस इतनी-सी बात पर वह सरकार की आँखों की किरकिरी बन गया ।
उसे सरकार-विरोधी मान लिया गया ।
नौकरशाहों के कहने पर उस पर सरकार विरोधी सत्याग्रहियों का साथ देने के कारण आपराधिक मुकदमा चलाकर-न्याय की
नौटंकी करते हुए पति देवता को एक वर्ष की बामुशक्कत जेल की हवा खिला दी गई ।
उसकी नई-नवेली दुल्हन-कहानी की नायिका एकदम अनाथ, निराश्रिता छोड़ दी गई ।
लेकिन सरकार के इस अन्यायपूर्ण व्यवहार ने कथानायिका को और भी सुलगा दिया, जबर बना दिया ।
उसने खुले आम कांग्रेस की सभा में भाग लिया ।
देश की आजादी के लिए लड़ रहे आन्दोलनकारियों की तारीफ की ।
सरकार और भी ज्यादा बिफूर गई ।
कथा-नायिका के घर के पास खुफिया पुलिस का पहरा बिठा दिया गया ।
कुछ भी हो सकता था |
सरकार कोई भी दुरभि-संधि रचकर उसे मटियामेट कर सकती थी ।
कशथानायिका के पिता सरकारी मुलाजिम थे,
श्वसुर पेंशन पाते थे ।
दोनों अंग्रेजी नौकरशाही के तहत एक तरह से ज़र-खरीदे सरकारी कर्मचारी रहे थे ।
नौकरी न चली जाए, पेंशन न बंद हो जाए,
तथा लेने के देने न पड़ जाएँ-इस भय से बुरी तरह भयभीत होकर नायिका के अपने ही पिता तथा
श्वसुर ने नायिका को पनाह देने से साफ़ इंकार कर दिया ।
नौकरशाही बड़ी कमीनी वृत्ति होती है ।
वे निहायत डरपोक , चालबाज, चाटुकार तथा हर वक्त अपनी दुम हिलाते रहने वाले, अन्याय के आगे नत-मस्तक हो,
हुक्म बजाते रहने वाले दुमुँही साँप होते हैं । नौकरशाही (ब्यूरोक्रेसी ) का कुतपना सर्व विदित है ।
यहाँ कथा-नायिका इसी का अनुभव कर रही थी ।
ऐसे में एक अजनबी पर भद्र-पुरुष बाबू ज्ञानचन्द एक स्कूल मास्टर सपत्नीक नायिका के मुकाम पर पहुँचे ।
हालात का जायजा लिया ।
ज्ञानचन्द की पत्नी एक निहायत रौबीली, समझदार, निर्भीक , पर-हितैषिणी किस्म को गरीयसी महिला थी ।
वह इससे पूर्व, कि कथा-नायिका के साथ कुछ अनहोनी घट जाए-उसे अपने संरक्षण में लेकर अपने घर ले आई ।
उसे हर तरह की सुरक्षा दी, मान-सम्मान दिया ।
उसके खान-पान, रहन-सहन, गुजर-बसर का माकूल इंतजाम किया ।
सरकारी कुत्ते / खुफिया पुलिस के आदमी वहाँ भी मंडराने लगे ।
लेकिन मास्टर ज्ञानचन्द की बीबी सरकार की धींगामुश्ती से डरी नहीं ।
पर स्कूल के प्रिंसीपल की मार्फत दबाव डाला गया कि
वह सज़ञायाफृता कैदी की निराश्रिता बीबी को अपने घर से बाहर निकाल दे, नहीं तो उसे बहुत बुरा परिणाम भुगतना होगा ।अपनी पत्नी से दिशा-दृष्टि पाकर बाबू ज्ञानचन्द भी अड् गए ।
उन्होंने त्यागपत्र देना बेहतर समझा कथा-नायिका यह सब देखकर बहुत संकुचित थी , शर्मसार हो रही थी,
उसे लगा, कि उसके कारण ही भद्र लोगों को इस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ रहा है ।
पर ज्ञानचन्द की पत्नी ने उसे समझा दिया कि स्वराज्य-संघर्ष के आंदोलन में ये सब तो चलेगा ही ।
ये मामूली बातें हैं ।
सत्ता तो हर तरह के हथकंडे अपनाएगी ही ।
लिहाज़ा, वह ज्यादा सोच-विचार न करे ।
वह नारी है, पति जेल में है ।
पिता और श्वसुर ने डरकर, उसे सुरक्षा देने के सवाल पर हाथ खींच लिया है ।
उसके नारीत्व के साथ सरकारी तंत्र कहीं भी , कभी भी कुछ गड़बड़ी कर सकता है ।
उसे बदनाम कर सकता है और भी बहुत कुछ कर सकता है ।
ऐसे में निहायत जरूरी है कि उसे वांछित सुरक्षा-संरक्षण प्राप्त हो ।
(कथा नायिका जिस अनुभव से गुजरती है ।
कमोवेश, आज़ादी मिल जाने के 84 वर्ष बाद थी आज भी सरकारी स्तर पर / नौकरशाही की कमीनी हरकतों की वजह से इस प्रकार के भय की संभावनाएँ देश भर में हर जगह मौजूद हैं ।
महिलाएँ आज भी सुरक्षित नहीं हैं ।
कानून वगैरहा सब दिखावा है,
सरकार के खिलाफ मुँह खोलने का परिणाम क्या हुआ है, इसका चिट्ठा आज भी धड़ल्ले से लिखा जा रहा है