निंदा-रस पान करने / कराने में महिलाएँ बड़ी निपुण होती हैं ।
जो महिला जितनी ही उम्रदराज होती जाती है, वह कुट्टनी-कर्म में उतना ही माहिर होती जाती है ।
इसीलिए बुढ़ियों से अमूमन युवा बहुएँ / लड़कियाँ जरा ज्यादा ही भयभीत रहती हैं ।
उनकी कोशिश यही रहती है कि जहाँ तक हो, बड़ी-बुद़ियों के प्रकोप से बचा जाए ।
अव्वल तो उनसे आँखें मिलाकर नहीं ,
आँखें झुकाकर ही बात की जाए और अगर किसी बात को लेकर बड़ी-बुढ़ियाँ कुछ फैलने लगें,
नसीहतें देने लगें या डाँट-डपट करने लगें, तो भलाई इसी में है कि खामोश रहकर पतली-गली से निकल लिया जाए ।
महिलाओं की मज़बूरी यही है कि उन्हें बहुत कुछ छिपाना पड़ता है,
पर्दा करना पड़ता है, बात को दबा-ढका कर रखना पड़ता है ।
अगर ऐसा न करें तो रुसवा होना पड़ सकता है ।
महिलाओं को बदनामी का भूत हमेशा सताता रहता है ।
लेकिन पढ़ी-लिखी युवा महिलाएँ अगर चाहें, तो ऐसी बुढ़ियों को सहज ही व्यंग्य-विनोदपूर्वक सबक भी सिखा सकती हैं ।
एक महिला-आश्रम था ।
कुछ सम्भ्रान्त, समृद्ध खानदानी महिलाएँ उस आश्रम के संचालन बोर्ड की सदस्या थीं ।
उनमें मिसेज टंडन, डॉ. मिस लीलावती , मिसेज मेहरा, मिसेज बांगड़ा लहीम- शहीम खानदानी परिवारों से थीं ।
वे अनाथ महिलाओं को स्वावलम्बन की दिशा में मोड़ने के लिए आश्रम चलाती थीं ।
आश्रम में और भी अनेक महिलाएँ थीं, विभिन्न आयु वर्ग की युवा तथा दो-चार प्रौढ़ आयु की भी बीसियों महिलाएँ ।
सबको आश्रम के अनुशासन में रहना होता था ।
आश्रम के कायदे-कानूनों को मानना अनिवार्य था ।
उसी आश्रम में जुगनूबाई नाम की एक अधेड़ बुढ़िया नौकरानी थी ।
बुढ़िया बड़ी खुर्यट थी , वाचाल भी । लगाई-बुझाई में, ताका-झाँकी में माहिर ।
जुबान की तेज-तर्रार, पर निन्दा-रस की खान । वह किसी को नहीं बख़शती थी ।
हरेक का कच्चा-चित्ता, जब चाहे खोलकर रख देती थी ।
बुढ़िया की आँख में सूअर का बाल था ।
आश्रम की सारी देवियाँ (महिलाएँ) उससे डरती थीं ।
न जाने कब किसकी चुटिया पकड़कर घसीट ले ।
कब किसकी रही-सही इज्जत भी उतार दे ।
मिसेज टंडन उससे काफी डरी-डरी सी रहती थीं ।
इन्दुमती महिला पाठशाला शहर के इस आश्रम का ही एक प्रसिद्ध महिला शिक्षण केन्द्र था ।
हाईस्कूल तक की पढ़ाई का प्रबंध था ।
मिस खुरशेद नाम की कोई तीस वर्षीया लंदन-रिटर्न, एक तेज-तर्रार युवती हाल ही में उस स्कूल की प्रिंसिपल होकर आई थी ।
शहर में कोई महिला-क्लब तो था नहीं ।
एक दिन वह आश्रम आई ।
मिस खुरशेद् सुन्दर थीं, अविवाहित, पढ़ी-लिखी , गान कला में प्रवीण, अभिनय आदि में भी निपुण, निर्भीक तथा व्यर्थ की बातों को तूल न देने वाली ।
फैशनेबुल महिला थीं ।
आश्रम की प्रधान मिसेज टंडन से मिस खुरशेद को बुढ़िया जुगनूबाई की आदतों , उसकी प्रकृति एवं उसके कुट्टनीपन के बारे में जानने / सुनने को बहुत कुछ मिला ।उसने मिसेज टंडन को यकीन दिलाया कि इस बुढ़िया को तो सबक वह सिखाएगी ही , उसे आश्रम से निकाल बाहर भी करेगी ।
मिसेज टंडन ने जुगनूबाई को बुलाकर चेता भी दिया कि वह अपनी आदतें सुधार ले, नहीं तो , मिस खुरशेद उसकी छुट्टी कर देंगी ।
बुद्धिया जिद्दी भी थी , तेज-तर्रार और खुर्राट भी ।
उसे अपने अनुभवों पर बड़ा नाज़ था ।
अपनी करनी पर बड़ा गरूर ।
वह मिस खुरशेद की जिंदगानी का कच्चा चिट्ठा पढ़ने / खोजने के लिए मिस खुरशेद के बंगले पर जा पहुँची ।
वहाँ मिस खुरशेद के खानसामा से मिलकर खोद-खोद कर बहुत कुछ जानने की कोशिश भी की ।
उसने नमक-मिर्च लगाकर मिस खुरशेद से सम्बद्ध किस्सागोई का आदतन बखान भी किया ।
आश्रम की लडकियों ने चटखारे ले-लेकर बहुत कुछ सुना भी ।
मिस खुरशेद सब कुछ समझ रही थीं ।
उन्होंने अपनी सखी डॉ. लीलावती को पुरुष-वेश धारण कर एक युवक विलियम-किंग बनकर उसके साथ बगूलगीर होने, उसे चूमने-चाटने का नाटक किया ।
यह सारा प्रपंच बुढ़िया की आँखों के सामने हुआ ।
अंधा क्या मांगे , दो आँखें , बुढ़िया जुगनूबाई को तो निंदा करने के लिए ढेर सार मसाला मिल गया ।
बुढ़िया को अपच होने लगी , जब तक सारा माजरा, बयाँ न कर ले, उसे रोटी हज़म न हो ।
बुढ़िया जुगनूबाई ने आश्रम की तमाम लड़कियों को इकट्ठा करके मिस खुरशेद-पुराण बखानना शुरू कर दिया ।
बुढ़िया को सपने में भी भान न था कि विलियम-किंग नाम का तो कोई युवक है ही नहीं ,
डॉ. मिस लीलावती ने ही विलियम- किंग का स्वांग भरा था, ताकि वे बुढ़िया जुगनूबाई को छका सकें ।
बुढ़िया को उसकी औकात दिखा सकें ।
सबकी ऐसी की तैसी करने वाली बुढ़िया मात खा गई । उसकी बड़ी किरकिरी हुई ।
वह खुद ही आश्रम की नौकरी छोड़ वहाँ से भाग निकली ।
किसी ने ठीक कहा है, जो दूसरों पर ढेले फेंकता रहता है,
एक दिन खुद अपने ही फेंके गए ढेले से घायल होकर अपनी ही निगाहों में गुनाहगार हो जाता है ।
पकड़ लाने में उसे देर हुई ।
बाबूजी ( मेरे पिता ) ने उसे नौकरी से हटा दिया ।
मुझे बड़ा दुख हुआ, मैं रोता घर गया।
उसके लिए अम्मा से छुपाता, थोड़ा आटा लाया, मुझे लगा कि वह भूखा मर रहा होगा!
पर नहीं , वह भूखा क्यों मरेगा , उसके दो हाथ हैं ।
नौकरी छूटने का उसे दुख जरूर हुआ, पर उसका स्वाभिमान कायम था ।
वह मुफ्त की खेरात नहीं लेता ।
कजा की कई दिन नहीं आया ।
मैं हिरन के बच्चे मुन्नू के साथ खेलता था,
पर कजाकी की सवारी लेने में जो मजा आता था,
उसके न मिलने का बड़ा दुख हुआ ।
कजाकी बीमार पड़ गया ।
बीमार होने पर भी,
कमजोरी की हालत में भी कजाकी मेरे लिए कमल गट्टे तालाब से तोड़कर लाया और अपनी पत्नी के हाथ मेरे पास भेजे !
मैं बहुत खुश हुआ ।
कजाकी की नौकरी बहाल कर दी गई-यह जानकर मैं बहुत खुश हुआ ।
अब कजाकी फिर उसी तरह कंधे पर बल्ला रखे, उसकी झुझुनी बजाता, चपरास बांधे,
डाक का थैला लटकाए दूर से दौड़ता हुआ आने लगा और मैं उसके कँधों पर चढ़कर सवारी का मजा लेने लगा !
कजाकी आया तो मुन्नू छूट गया-उसे बाहर मैदान में एक झबरे कुत्ते ने दबोच कर मार डाला था !