खुचड़

बाबू कुंदन लाल कचहरी से लौटे तो देखा कि उनकी पत्नी रामेश्वरी

एक कुंजडिन से पालक का साग खरीदने में धेले-पैसे की तौल-भाव में बचत के लिए आध घंटे तक तकरार और बहस करती रही |

बाबू जी को पत्नी की यह बात बहुत बुरी लगी और उपदेश देने लगे-इतनी देर में तो हजार-पाँच सौ का सौदा हो जाता ।

जरा-जरा से साग के लिए इतनी हाँय-हाँय करते तूम्हारा सिर नहीं दुखता 2... कल महरी . से घंटों सिर मारा ।

परसों दूध वाले से...जिन्दगी क्या इन्हीं बातों में खर्च करने को दी गई है?''

कुदनलाल प्राय: पत्नी को उपदेश देते रहते ।

यह उनकी दूसरी ब्याहताँ थी ।

दो-तीन महीने तो बड़ी ननद ने नयी बहू के घर को संभाले रखा , पर रामेश्वरी से उसकी पटी नहीं ।

रामेश्वरी को लगा कि यह तो मेरा घर लुटाए जा रही है ।

आखिर उसे जाना पड़ा ।

तब से वह खुद सब संभाले हुए है ।

अपनी ओर से प्रयत्न करती है कि सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहे, पतिदेव प्रसन्न रहें ।

पर रोज ही कोई-न-कोई बात हो जाती है ।

एक दिन बिल्ली दूध पी गई , रामेश्वरी ने इतने जोर से बिल्ली के डण्डा मारा कि वह दो तीन लुढ़कियां खा गई !

पति का उपदेश शुरू-जो बिल्ली मर जाती ?

पशु के साथ क्या आदमी भी पशु बन जाए ?

देर तक इतना उपदेश जारी रहा कि रामेश्वरी रो पड़ी !

एक दिन भिखारी को उसने दुत्कार दिया !

बस दोनों में बहस छिड़ गई ! एक बार कुंदनलाल ने कई मित्रों की दावत घर पर की ।

रामेश्वरी सारा दिन रसोई में खपती रही ।

पर कुंदनलाल की त्यौरियाँ चढ़ी हुई थीं-यह खाना था कि बैलों की सानी !

पूडियाँ सब सेंवडी , हलुआ कच्चा, शोरबा इतना पतला जैसे चाय,

कचौड़ी में जहान का नमक-किसी ने छूआ तक नहीं !

स्त्री का पहला धर्म यह है कि रसोई _ के काम में चतुर हो !

रामेश्वरी को बहुत बुरा लगा , एक तो मरो-खपो , तिस पर यह तिरस्कार ! वह ऊब कर चली गई !

एक बार कुंदन लाल के एक दूर के सम्बंधी मिलने के लिए घर आ गए ।

रामेश्वरी ने उनकी बड़ी खातिर की ।

वह बड़े खुश ! हफ्ते से भी ज्यादा पसरे रहे ।

कुंदनलाल ने पत्नी से कहा-यह तुमने कया रोग पाल लिया ?

ऐसे मुफ्तखोरों का कैसा सत्कार ?

पात्र-कुपात्र का तो विचार करना चाहिए ! तर्क का तांता लग गया !

बहस की बरसात हो गई ! रामेश्वरी खिसिया कर परे चली गई !

यह अच्छी रही ! उसने तो

पति की ही खुशी के लिए यह सब हि , दी झाड़ पड़ गई !

एक दिन काम करते हुए महरी से रसोई में घी की हांडी फर्श पर गिर कर टूट गई !

रामेश्वरी उस पर खूब बिगड़ी , उसकी पगार से नुकसान वसूल करने की धमकी दी ।

महरी फूट-फूट कर रो पड़ी। रामेश्वरी को दया आई, उसे माफ कर दिया ।

महरी हांडी के टुकड़े उठा ही रही थी कि उसी वक्‍त बाबू कुदंनलाल आ गए-यह हांडी कैसे टूट गई 2 रामेश्वरी ने बताया, महरी के हाथ से छूट गई !

बस कुंदनलाल बिगड़ उठे ! इतना घी का नुकसान !

जिसने किया है उसे ही भरना होगा !

रामेश्वरी ने लाख कहा-मैंने तो महरी को माफ कर दिया, मेरे हाथ से भी तो छूट सकती थी !

पर बाबू जी अड्‌ गए-मैं क्षमा नहीं कर सकता !

तुम क्यों उसकी वकालत कर रही हो ?

जो नुकसान करता है उसे उसका दण्ड भोगना पड़ता है ।

मैं नुकसान क्यों उठाऊं ?

महरी के ही सामने इस अपमान से रामेश्वरी आहत हो उठी ! जब देखो डाँट रहे हैं ।

जिसके मिजाज का कुछ पता ही न हो, उसे कौन खुश रख सकता है ?

बस अब वह ठान लेती है कि वह अपनी मर्जी से कोई काम न करेगी ।

वही करूंगी जो यह कहेंगे, न जौ भर कम, न जौ भर ज्यादा !

अगले सवेरे महरी नहीं आई, रामेश्वरी भी . लेटी रही, जरा हाथ नहीं हिलाए ।

घर में न सफाई हुई न चौंका- बरतन, न नाश्ता-पानी , न खाना ।

कुंदनलाल ने कहा, पड़ोसवाली महरी को क्यों नहीं बुला लिया ?

“ आपके हुक्म के बिना कैसे बुला लेती ?” रामेश्वरी का रूखा-सा उत्तर था ।

हर काम के लिए वह इसी तरह टका-सा जवाब देती ।

पत्नी की इस बदली हुई असयोग की प्रवृत्ति से बाबू कुदंनलाल तंग आ गए !

आखिर बोले-तुम चाहती क्या हो ? “कुछ नहीं, केवल अपमान नहीं चाहती ।”

" आज से कान पकडता हूँ, तुम्हारे बीच न बोलूंगा ।” कुंदनलाल ने नरम होकर कहा |

“ और जो मैं घर लुटा दूँ, तो ”

“लुटा दो, चाहे मिटा दो, मगर रूठो मत ! मेरी भूल क्षमा करो ।”

“सच्चे दिल से कहते हो न ?”

“सच्चे दिल से !”