मांगे की घड़ी ली

मेरी शादी को कुछ महीने ही हुए थे ।

अभावों के कारण अभी तक बीवी को उसके मायके में ही छोड़ा हुआ था ।

पगार कुल तीस रुपये

थी , अपना ही गुजारा मुश्किल से होता था, बीवी को कैसे रखता ।

पर मिलने को तो ससुराल जाना ही था ! फटे-हाल ससुराल कैसे जाता ?

आखिर मैंने एक दोस्त की मदद से रेशमी अचकन, फ्लेक्स का बूट उधार में हासिल किए,

इन्हें पहनने का मेरा सपना न जाने कब से था, पर नकद देकर तो यह सपना कभी पूरा ही न होता ।

एक दोस्त से चमड़े का सूट केस मांगा और बड़े ठाठ-बाट के साथ ससुराल जाने की तैयारी की ।

कमी थी तो एक रिस्टवॉच की ।

उसे मांगने _ अपने एक और दोस्त दीनू के पास गया ।

पहले तो दीनू ने कह दिया कि मैं मंगनी में कोई चीज नहीं देता, पर मेरे आग्रह और ससुराल जाने की बात जानकर उसने रिस्टवॉच घड़ी मुझे दे दी ।

ठाठ-बाट के साथ ससुराल पहुँचा तो अच्छी आवभगत हुई !

पर पत्नी से मिला तो सारा उत्साह जाता रहा ।

पत्नी ने मेरा ठाठ देखकर ताने-उलाहने देना शुरू कर दिया-सब रुपये उड़ा दिए होंगे कुछ मेरी भी सुध है कि नहीं ?

यह नहीं हो सकता कि तुम मौज़-चैन करो और मैं यहाँ में पड़ी भाग्य को रोया करूँ !

मेरे छुपाने पर भी कलाई की घड़ी पर देवी जी की नज़र पड़ ही गई ! वाह !

इतनी अच्छी घड़ी ! पत्नी ने मांग ही ली ।

मैं शर्म के मारे यह न कह सका कि दोस्त से मांग कर लाया हूँ ।

पत्नी की जिद पर मुझे देनी पड़ी ।

अपनी कलाई पर घड़ी बांधकर शायद वह गिले-शिकवे भूल गई ।

मैं यही सोचता रह गया कि दीनू को क्या कहूँगा! . ,

आखिर दो दिन ससुराल रहकर वापस लौटा ।

दीनू को कहा कि घड़ी तो खो गई !

दीनू ने नाराज़ होकर कहा इसीलिए मैं देता नहीं था,

आखिर वही हुआ जिसका मुझे डर था ।

पर तुम भाभी को भी नहीं लाये अपने साथ ? “उसे कैसे लाता अपना ही गुजारा नहीं होता !”

“ अच्छा तो सारे तीस रुपये खुद उड़ा जाते हो !

पर घड़ी के मेरे दाम तो भरने ही पड़ेंगे ।

500 रु. की थी ।

5 रु. हर महीने वेतन में से देना होगा ।” बेबस हो मैंने 5 रु. महीना दीनू को देना शुरू किया |

शेष पंद्रह रु. में किसी तरह अपना गुजारा करना सीखा ।

कुछ महीने बाद दीनू ने कहा-खुश हो जाओ, तुम्हारी तरक्की हो गई है !

मुझे विश्वास न हुआ, यह मेरी कैसी तरक्की जिसका मुझे पता तक नहीं !

वाकई अब मुझे पन्द्रह रुपये ज्यादा मिलने लगे !

मैं बड़े बाबू के पास गया ।

उन्होंने कई महीने बाद खुलासा किया, मुझे बताया कि हर महीने दीनू बाबू पंद्रह रुपये तुम्हें देने को दे जाते थे !

दीनू से मिला तो उसने शर्त रखी-पहले भाभी को मायके से यहाँ लाओ और तीस रुपये में ही गुजारा करना सीखो ।

मैंने तो तुम्हें सबक सिखाने के लिए पंन्द्रह रु. महीना लेना शुरू किया था,

वरना मैं क्या घड़ी का नुकसान तुमसे भरवाता !

मैं श्रद्धा से भरकर दीनू से लिपट गया, तुम दोस्त ही नहीं, फृरिश्ता हो !

पत्नी को ले आया और ईश्वर की कृपा हुई कि तभी-वाकई मेरी तरक्की हो गई !

मैंने दीनू को सच्ची बात बतला दी कि घड़ी खो नहीं गई थी बल्कि देवीजी ने ले ली थी !

दीनू बोला-तब तो भाभी को वह मेरा उपहार ही मिला !