आखिरी हीला (अर्थात् आखिरी बहाना

दाम्पत्य जीवन, यानि कि घर-गृहस्थी से भरा जीवन जीना भी अपने आप में एक समस्या ही है ।

घर न बसाओ तो आफ़त, घर बसा लो तो आफुत ।

शादी का लड्डू, जिसने नहीं चखा वह भी बेज़ार, जिसने चख लिया वह उससे भी ज्यादा बेज़ार ।

जिन्दगी का एक वह

भी फलसफ़ा होता है, जब हर युवक शादी के सपने देखता है ।

नई-नवेली दुल्हनिया को लेकर दिवा-स्वप्न देखता है ।

शृंगार के रस-सागर में गोते लगाता फिरता है ।

घरवाली की बगल में ही अपने समस्त सुखों का संसार उसे नज़र आता है ।

दिल यही चाहता है कि उसकी हृदयेश्वरी हमेशा उसकी बगल में रहे।

और, उसी की जिन्दगी में वह दौर भी आता है, जब उसे घरवाली तथा तमाम बाल-बच्चे बोझा लगने लगते हैं।

कभी आटे-दाल का भाव मालूम कर रहा है और चक्की पर से आटा पिसा कर ला रहा है ।

तनख्वाह हाथ में आती नहीं कि खर्चा पहले निकल आता है ।

तिस पर बच्चों की चिल्ल-पौं ।

श्रीमती जी का रोना-झींकना, गुस्साते रहना ।

पास में मूंगफली खाने के लिए भी दो पैसे नहीं ।

घर काट खाने को दौड़ता है ।

सारे सपने छूमंतर हो जाते हैं। सारी रंगीनियाँ हवा हो जाती हैं ।

सारी अकड़-फेंच पिछले दरवाजे से रफूचक्कर हो जाती है ।

किसी की तरफ आँख उठाकर, जी भरके देख भी नहीं सकते।

श्रीमती जी का खौफ़ दिलो-दिमाग पर छा जाता है ।

लेखक खुदबखुद इस अनुभव से गुजरा है ।

ग़नीमत है कि वह शहर में है, श्रीमती जी ।

दूरदराज गाँव में ।

लेकिन श्रीमती जी के तकाजों पर तकाजे आ रहे हैं-आओ !

मुझे आकर ले जाओ, नहीं तो मैं खुदबखुद ही आ धमकूंगी ।

कहानी का नायक नहीं चाहता कि श्रीमती जी शहर आएँ, अपने घर में उसके साथ मय बाल बच्चों के रहें ।

वह घर-गृहस्थी के पचड़ों से बचना चाहता है ।

कारण, वह लेखक है, संपादक है, सोचता बहुत है ।

उसे एकांत चाहिए, इत्मीनान चाहिए ।

आमदनी कुछ खास है नहीं ।

घर छोटा है, मकान बेतरतीब ।

खुद अपना काम करेगा या श्रीमती जी के तथा बच्चों के नखरे उठाएगा ।

कथानायक बहाने बनाता है ।

हर बार पत्र के जबाब में कोई न कोई बहाना लिख कर भेजता है, जिससे श्रीमती जी के दिमाग पर घर आकर रहने का भूत सवार न हो ।

पहले तो कभी-कभार कथानायक छुट्टियों में घर, श्रीमती जी के पास चला भी जाता था,

लेकिन अब उसने गृहस्थी के बोझे से तंग आकर छुट्टियों में भी घर जाना लगभग बंद-सा कर दिया है ।

इस पर श्रीमती जी का आग्रह और भी बढ़ गया है ।

पहला बहाना बनाया कि पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों से ही फुर्सत नहीं मिलती ।

पुलिस, सरकार तथा नौकरशाहों से भी बचकर रहना पड़ता है ।

न जाने क्या छप जाए, किस रिसाले को अंट-शंट मानकर हाथ-पैरों में जेवर पहना दें ।

हवालात दिखा दें ।

उन्हें वश में रखने के लिए न जाने किस-किस की चिरौरी करनी पड़ती है ।

कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं।

पत्र का संपादक होना भी जी का जंजाल ही है ।

न जाने कब, कहाँ, कितने दुश्मन खड़े हो जाते हैं ।

ऐसे में श्रीमती जी का अभी आकर रहना मुनासिब नहीं होगा ।

लेकिन श्रीमती जी पर इस बहाने का कोई असर न हुआ ।

वही तकाजा, तुरन्त चले आओ, मुझे ले जाओ ।

कथानायक ने दूसरा बहाना गढ़ा ।

शहराती ज़िन्दगी का फलसफा रोया ।

शहर की ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है ।

हर तरफ चिल्ल-पौं ।

महंगाई सो अलग ।

शहर में प्रदूषण ही प्रदूषण है। चारों तरफ गन्दगी

के ढेर हैं ।

न शुद्ध जल है, न ताजी हवा ।

हर चीज में मिलावट है ।

चोर-उचक्कों का डर अलग है ।

ट्रैफ़िक का कानफोडू शोर तो घड़ी भर चैन से सोने भी नहीं देता ।

पड़ौसी संवेदनाशून्य ।

शहर में कोई किसी का नहीं, सबके सब मतलबी, स्वार्थी, भीड़ में भी निपट अकेलापन ।

शहर तो रोगों का घर है ।

शहराती जीवन भी कोई जीवन है ।

यह बहाना भी बेकार गया, श्रीमती जी की वही रट, आओ ! मुझे ले जाओ ।

तीसरा बहाना किया ।

दोस्तों, मित्रों, हमजोलियों ने ही घर को चंडूखाने का अड्डा बना रखा है ।

जब देखो, तब समय-कुसमय मेरे घर में पड़े रहते हैं ।

कुछ लोक-लाजवश, कुछ प्रोफेशनल व्यावहारिकता के कारण सख्ती से उनकी आवाजाही बरज भी नहीं सकता ।

उन्हीं की तीमारदारी / खातिरदारी में सारा वक्त निकल जाता है।

वेतन का एक हिस्सा भी इन्ही मंगते, भूखे दोस्तों की नज़र हो जाता है ।

इन्हें समझाता भी हूँ कि भई हाथ तंग है, लगान देना है।

बूढ़े माँ-बाप के पास भी कुछ भेजना है, पर इनके आगे कुछ नहीं चलती ।

हर वक्त मेरे वेतन पर, मेरी कमाई पर दाँत गड़ाए रहते हैं ।

मेरी हर चीज बिना पूछे इस्तेमाल करते रहते हैं। जगह भी थोड़ी ही है ।

तुम्हीं सोचो, भला ऐसे में मैं तुम्हें कैसे यहाँ लाकर रख सकता

। लेकिन यह तीसरा बहाना भी बेकार गया ।

श्रीमती जी की वही. पुरानी रट, मैं कुछ नहीं जानती, मुझे ले जाओ।

चौथा बहाना किया- कि मकान बहुत छोटा है।

कमरे चिड़िया के पिंजड़ों की तरह हैं ।

है धूप- पानी, रोशनी की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है ।

सब तरफ दुर्गन्ध है ।

बीमारियाँ ही बीमारियाँ ।

मच्छर, भुनगों की बरसात ।

दीवालों / छतों से बरसात का पानी चूता रहता है ।

कमरों में सीलन ही सीलन है ।

किराए का मकान है ।

कोई भरोसा नहीं, मकानदार कब मकान खाली करने को कह दे ।

जिस पर हरदम चोरी-चकारी का खतरा, हर वक्त कुछ न कुछ गायब होता ही रहता है । हाल ही

में एक साहब बर्तनों पर ही हाथ साफ़ करने चले थे ।

फाउन्टेन पैन तो गायब करा ही चुका हूँ।

खुद ही सोचो, ऐसे माहौल में तुम्हें लाकर कैसे रखूँ ।

पर श्रीमती जी पर यह बहाना भी नहीं चला ।

वही रट,. आओ, और मुझे लेकर जाओ ।

पाँचवा बहाना खोमचे वालों / फेरी लगाने वालों / सौदा-सुलफ़ बेचने की गरज से रात-दिन शोर मचाने वाले बिसातियों को लेकर किया ।

बाज़ारवादी लोगों की धींगामुश्ती का डर दिखाया ।

सौदागरों ने जीना मुहाल कर रखा है।

जब देखो, तब बच्चों को ललचाते रहते हैं।

घरेलू स्त्रियों को माल भिड़ाने की जुगत में फुसलाते रहते हैं।

चिकनी-चुपड़ी बातें करके सौदा बेचने की जुगत भिड़ाते रहते हैं।

ऐसे में श्रीमती जी को यहाँ आकर रहने में कष्ट ही होगा।

लेकिन श्रीमती जी ने इस बहाने को भी सिरे से नकार दिया ।

आखिरकार, कथानायक ने आखिरी जुगत भिड़ाई ।

तुरुप का इक्का चला ।

गोकि इसमें इस बात का खतरा था कि यह स्वघातक चरित्र हनन हो सकता है।

पर मज़बूरन, उसने यह पत्ता भी चल ही दिया ।

बहाना बनाया कि शहर में काम करने वाली महरियाँ, घरेलू नौकरानियाँ बड़ी बेशरम / बेहया होती हैं ।

वे साहब लोगों पर डोरे डालती रहती हैं।

उनके नजदीक बने रहने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहतीं ।

गृहस्वामी से खूब रल-मिलकर बातें करती हैं ।

अपने यौवन की, रूप की नुमाइश लगाने से भी परहेज नहीं करती हैं।

खूब बनी-ठनी रहती हैं।

रिझाने के हर तौर-तरीके इस्तेमाल करती हैं ।

सती-साध्वी गृह-भार्याएँ तो उनकी हरकतों को देखकर पानी-पानी हो जाती हैं ।

ये महरियाँ / घरेलू नौकरानियाँ बड़ी दिलदार होती हैं ।

जबरन ही गृहस्वामी के दिलों पर राज करने की कोशिश करती रहती हैं ।

कथानायक को पूरी उम्मीद थी कि यह तुरुप का पत्ता चल जाएगा।

घरवाली इन दिलफेंक नौकरानियों के भय से घर आने की

जिद्द नहीं करेगी ।

लेकिन चाल उल्टी पड़ी ।

पति-देवता (कथानायक) का पत्र मिलते ही अगले ही दिन श्रीमती जी तीनों

बच्चों को लिये आन धमकीं और सख़्त लहजे में बोलीं- 'कहाँ है चुड़ैल, कोई घर में घुसी तो नहीं बैठी है ।

आने दो ससुरी महरी को, मुँह झुलस दूंगी उसका ।'

कथानायक की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई ।

उसे क्या पता था कि अपना ही बहाना, अपना ही फेंका गया तुरुप का पत्ता उल्टा पड़ेगा ।

उसने चुपचाप हाथ खड़े कर यथास्थिति को स्वीकारने में ही भलाई समझी ।