गांधी वादी दृष्टिकोण की कहानी
- प्रो. अग्रवाल
गुलाम भारत, 1947 से पहले का हिन्दुस्तान ।
गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय कांग्रेस ने देश को ब्रिटिश सत्ता से मुक्त कराने के लिए सत्याग्रह-आंदोलन छेड़ा हुआ था ।
गांधी जी के आह्वान् पर स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग तथा विलायती वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन जोर पकड़ गया था ।
इसमें बीसियों व्यापारी पिस रहे थे, तबाह भी हो रहे थे, लेकिन स्वाधीनता सेनानियों के सामने कोई और चारा भी न था ।
आज़ादी चाहिए, तो कुर्बानी तो देनी ही थी ।
आज़ादी पाने की कीमत तो चुकानी ही थी ।
छकौड़ी लाल एक निहायत छोटा दुकानदार था ।
बजाजे का धंधा करता था ।
धंधा चल नहीं रहा था। एक तो दुकान में वैसे ही माल ज्यादा न था, क्योंकि माल खरीदकर भरने के लिए विक्रय निमित्त पर्याप्त पूंजी पास में न थी,
तिस पर गाहक भी विलायती की चकाचौंध के आगे मोटे, स्वदेशी खद्दर को खरीदने के लिए ज्यादा उत्साहित न थे ।
उधर कांग्रेस के स्वयंसेवकों का तुगलकी फ़रमान जारी हो चुका था कि दुकानदार लोग विलायती माल न बेचें, स्वदेशी
ही बेचें ।
बेचारे छकौड़ी लाल की हालत खराब थी ।
घर में बूढ़ी माँ, बीमार पत्नी, पाँच-पाँच बच्चे और आमदनी एक छदाम भी नहीं ।
दिन भर दुकान खोले बैठे रहता, स्वदेशी का एक भी गाहक नहीं ।
उसकी दुकान में थोड़ा-बहुत विलायती कपड़ा पड़ा था ।
एक खरीदार मिला ।
विलायती कपड़े की लागत पर 10 रुपये में विलायती खरीदने को तैयार हुआ ।
छकौड़ी लाल को पैसे की सख्त जरूरत थी।
बीमार बीबी की दवा तथा डॉक्टर की फीस के लिए रुपये चाहिए ही थे ।
साथ ही उधार पर माल बेचने के लिए देने वाले थोक-व्यापारी (कमीशन एजेंट) की उधारी भी चुकता करनी ही थी ।
उसने छुपते-छुपाते सौदा कर दिया ।
पर कांग्रेसी सत्याग्रहियों के कार्यालय तक चुगलखोरों ने इसकी शिकायत कर ही दी।
कांग्रेसी सत्याग्रही आ गए। उन्होंने पिकेटिंग शुरू कर दी ।
छकौड़ी लाल को समझाया भी, धमकाया भी ।
छकौड़ी लाल ने अपनी बदहाली का रोना रोया, लेकिन कांग्रेसी न पसीजे ।
बोले, यह तो औरों के भी साथ हो रहा है ।
आज़ादी चाहिए, कुर्बानी तो देनी ही पड़ेगी ।
गम खाना ही होगा ।
कांग्रेस ने एक अघोषित नियम बनाया था कि जो भी दुकानदार उनके 'स्वदेशी- आंदोलन' का विरोध करेगा,
उसकी दुकान तो चलने ही नहीं दी जाएगी, साथ ही उस पर तावान (जुर्माना / शुल्क-कर) भी लगाया जाएगा,
जो उसे कांग्रेस पार्टी के दफ्तर में जमा कराना पड़ेगा ।
छकौड़ी लाल पर 101 (एक सौ एक) रुपये का तावान (जुर्माना) लगा दिया गया ।
छकौड़ी 101 क्या, एक रुपये देने की स्थिति में भी नहीं था।
उधर उसकी मरणासन्न रुग्ण बीबी उस पर दबाव डाल रही थी कि वह देश के सुराजियों का साथ दे ।
कांग्रेस के आवाहन की अनदेखी न करे।
अगर वह मर भी जाती है, तो उसे मर जाने दे ।
लेकिन छकौड़ी लाल इस तरह की कुर्बानी देने के लिए तैयार न था ।
वह कांग्रेस-दफ्तर पहुँचा । कांग्रेस-प्रधान से मिला ।
अपनी परेशानी बताई ।
अपनी बदहाल आर्थिक दशा का वास्ता दिया ।
यहाँ तक कि पच्चीस रुपये महीने पर कांग्रेस के ही दफ्तर में कोई भी काम कर देने की पेशकश तक कर डाली ।
जबकि व्यापारी होने के कारण चाकरी को वह एक नीच कर्म ही मानता था।
लेकिन : कांग्रेस-प्रधान ने अपनी असमर्थता जाहिर कर दी ।
साफ़ कह दिया कि 101 रुपये का अर्थदंड तो अब उसे भुगतना ही पड़ेगा।
उधर, उसके घर पर कांग्रेस के सत्याग्रही जत्थे ने ‘स्यापा' शुरू कर दिया था ।
छकौड़ी लाल की भद्द पिट रही थी ।
दूसरे तमाम दुकानदार तथा पड़ौसी छकौड़ी लाल के अराष्ट्रीय-कर्म पर उसे लानतें भेज रहे थे ।
एक बार तैश में आकर उसकी बीबी कांग्रेस-दफ्तर के सामने पटरी पर ही दम तोड़ने के लिए प्रति-सत्याग्रहमूलक क़दम उठाने के लिए भड़की भी ।
लेकिन कांग्रेसी-सत्याग्रहियों की बात में राष्ट्रीय तर्क-बल को देख / समझकर शांत हो गई, चुप हो गई ।
यही फ़ैसला लिया गया कि छकौड़ी लाल अपना घर बेचकर कांग्रेस द्वारा थोपे गए तावान को चुकाकर स्वाधीनता-संघर्ष के प्रति अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर दे ।
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सच है, कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है ।
देश को आज़ादी यूँ ही नहीं मिल गई।
आम लोगों को भी बहुत कुछ खोना पड़ा है ।
खोना पड़ेगा ।
यही स्वतंत्रता-सम्मान की क़ीमत है ।