नैराश्य लीला

पंडित हृदयनाथ ने अपनी तेरह वर्ष की कन्या कैलासकुमारी का विवाह कर दिया ।

अभी गौणा भी न हुआ था, वह अभी यह भी च जानने पाई थी कि विवाह का आशय क्या है कि उसका सुहाग उठ गया ।

अभिलाषाओं का दीपक बुझ गया ।

उसके पिता और माता जागेश्वरी उसके बाल-विधवा हो जाने से बहुत दुखी हैं ।

वे अपनी बेटी को मुरझाते नहीं देखना चाहते, इसीसे वह उसका दिल बहलाने के लिए आमोद-प्रमोद का सामान जुटाते हैं ।

लड़की ग्रामोफोन बजाने लगती है,

थियेटर- सिनेमा-तमाशों में जाने लगती है, सहेलियों के साथ ताश आदि खेल खेलने लगती है ।

स्वयं उसकी माता जागेश्वरी उसे प्रोत्साहित करती है ।

यह सब कौतुक देख पास-पड़ोस तथा समाज तथा समाज के

लोग व्यंग्य-बाण बरसाने लगे, ताने-मेहने देने लगे-हाय ! विधवा के ये लच्छन !

लोगों की टीका-टिप्पणी से माँ-बाप बहुत दुखी हुए।

पर उन्होंने भी सोचा कि वाकई विधवा का इस प्रकार आमोद-प्रमोद में पड़ना ठीक नहीं,

उसके बिगड़ने का भय है !

अब वे उसकी वृत्ति व्रत-उपवास, धर्म-अध्यात्म और वैराग्य की ओर मोड़ देते हैं ।

कैलासी अब राग-रंग, हंसी-खुशी त्यागकर वैराग्य और अध्यात्म की ओर उन्मुख होती है ।

पूजा-पाठ करना, स्नान-ध्यान, व्रत-उपासना में उसने मन लगा लिया।

मंदिर जाने लगी, साधु-संतों की संगति करने लगी ।

उनके उपदेश-प्रवचन सुनने में उसका मन रमने लगा ।

यहाँ तक कि उसने संन्यासिनी बनने और साधु-महात्माओं की संगति में रहने की ठान ली ।

अब फिर घर-बाहर वालों, पड़ोस-समाज के स्त्री-पुरुषों का विरोध शुरू हुआ !

माँ-बाप को भी वैराग्य धारण करना सरासर अनुचित प्रतीत हुआ ।

चारों ओर चर्चा हुई-ऐसी जवान जहान विधवा का साधु-संतों की संगत करना कितना अनुचित है !

ये संत-साधु भी कैसे ढोंगी हैं कि भोली-भाली बाल-विधवाओं को अपने जाल में फंसा लेते हैं !

माँ-बाप ने अब धर्म-वैराग्य से भी उसका मन हटाना चाहा ।

विचारशील पुरुष और पिता इस समस्या का उपाय सोचते हैं ।

तय हुआ कि ऐसी बाल-विधवाओं को घर सेवा और समाज सेवा के कामों में लगाना चाहिए ।

अध्यापिका का काम सबसे उत्तम है फलतः कैलासकुमारी को भी समझा-बुझा कर

आस-पास की कन्याओं को इकट्ठा कर पढ़ाने के लिए तैयार किया गया ।

एक पाठशाला सी खुल गई ।

छोटी कन्याओं को पढ़ाने में उसका मन लग गया ।

लड़कियों से उसका लगाव-सा हो गया ।

एक लड़की चेचक की बीमार हो गई ।

वह दिन-रात उसके घर जाकर उसकी सेवा

शुश्रूषा करने लगी ।

इस पर फिर घर-बाहर और समाज के लोगों की नुक्ताचीनी शुरू हो गई।

पराये घरों में दिन रात विधवा को जाने-आने से बदनामी का डर माँ-बाप को भी खाने लगा।

वह सोचते हैं-जो रास्ता निकाला जाता है, वही कुछ दिनों में दलदल में फंसा देता है।

अब पाठशाला भी बंद कर दी गई ! कैलासी क्षुब्ध और निराश होकर पूछती है-“ तो कुछ

मालूम भी तो हो कि संसार मुझसे चाहता क्या है ?

मुझ में जीव है, चेतना है, जड़ क्योंकर बन जाऊँ ?

मुझ से यह नहीं हो सकता कि अपने को अभागिनी दुखिया समझें और एक टुकड़ा रोटी खाकर पड़ी रहूं ।

मैं अपने आत्म-सम्मान की रक्षा आप कर सकती हूँ ।

मैं इसे अपना घोर अपमान समझती हूँ कि पग-पग पर मुझ पर शंका की जाय, नित्य कोई चरवाहों की तरह लाठी

लिए मेरे पीछे घूमता रहे कि किसी खेत में न जा पड़े ! ये दशा मेरे लिए असहाय है !”

और कैलासी का विद्रोह जाग उठा ! वह पुरुष-प्रधान समाज का विरोध करने लगी ।

“पुरुष क्यों स्त्री के भाग्य का विधाता बना हुआ है ?

स्त्री क्यों पुरुषों का आश्रय चाहे, उनका मुँह ताके ?

पुरुषों का प्रेम ढोंग है ।

विवाह नारी का शिकार है. भोली-भाली कन्याओं को बंदी बनाने का ढकोसला है ।"

इसी विरोधी भावना से भरी उसने एक दिन अपने बाल गूंथ-सवारे, जूड़े में गुलाब का फूल लगाया,

रेशमी साड़ी पहनी समाज की आलोचनाओं की उसे अब कोई परवाह नहीं ।

अपनी आत्मा के सिवा अब उसे किसी का भय नहीं ।

पिता हृदयनाथ बेटी के इस मनोभाव को नैराश्य की अंतिम अवस्था समझ कर इसका

एक ही उपाय समझते हैं-मृत्यु ! पर क्या यह वाकई एक विधवा की नैराश्य लीला है ?