प्रेम का उदय

भोंदू और बंटी एक कंजड़ दम्पति अन्य कई कंजड़ परिवारों के साथ बाग में उतरे हुए थे ।

कंजड़ चोरी-चकारी के जुर्म से अपनी अच्छी गुजर बसर कर लेते थे,

गांव के चौकीदार और थाने के दारोगा-सिपाही

आदि को पटा कर वह जुर्म में पकड़े जाने से बचे रहते थे ।

पर भोंदू और सब कंजड़ों से न्यारा था ।

वह धर्म की मेहनत की रूखी-सूखी

से ही संतुष्ट था ।

जंगल से लकड़ियों का गट्ठा काटकर लाता और दो-तीन आने में बेचकर किसी तरह अपना और

अपनी पत्नी का पेट चने चबाने से भरता था ।

परन्तु उसकी पत्नी-बंटी बहुत असंतुष्ट थी।

उसे भोंदू का यह धर्मात्मापन जरा नहीं भाता था ।

उसका पति हाथ-कान-गले में कोई भी जेवर उसे पहना नहीं सका था, शराब पीने, पान चबाने को वह तरसती रहती थी ।

उसकी और बहनें नई-नई साड़ियां और नए-नए आभूषण पहनती तो बंटी पति की अकर्मण्यता पर कुढ़ती थी ।

दोनों में इस विषय में अकसर तकरार रहती थी ।

एक दिन बंटी ने दुखी होकर कह ही दिया -“मैं तुम्हारे साथ सती होने नहीं आई ।

जानवर को भी जब घास-भूसा नहीं मिलता, तो पगहा तुड़ाकर किसी के खेत में बैठ जाता है ।

मैं तो इन्सान हूँ।

" यह सुनकर भोंदू को आज अपनी गृहस्थी की दीवार हिलती मालूम हुई ।

इसके दूसरे ही दिन कस्बे के एक धनी ठाकुर के घर चोरी हो गई ।

उस रात भोंदू अपने डेरे पर न था ।

प्रातः लौटा तो उसकी कमर में रुपयों की एक थैली थी, कुछ सोने के गहने भी थे ।

बंटी की बाछें खिल गईं ।

उसने तुरंत गहनों को ले जाकर एक वृक्ष की आड़ में गाड़ दिया ।

भोंदू ने उसे सुझाया, कोई पूछे इतने रुपये कहाँ से आये तो कहना दो-दो एक-एक करके कई महीनों से जमा कर रही थी ।

पर पड़ोसिनों की टिप्पणियां तो शुरू होनी ही थीं- "कहीं गहरा हाथ मारा है !"

बड़ा धर्मात्मा बना फिरता था ! पर बंटी तो अब हवा में उड़ रही थी !

बाजार से नयी साड़ी, खाने-पीने का सामान, सिंगार के साधन, खुशबूदार तेल,

फुलेल आदि बहुत-सारी चीजें खरीद लाई !

उधर भोंदू “अभी आया" कहकर बस्ती की ओर देवी को प्रसन्न करने के लिए भेंट का एक बकरा लेने चला ।

बंटी बढ़िया खाना बनाने के बाद साज-सिंगार कर उसकी राह देख रही थी कि

पता चला कि पुलिस ने भोंदू को गिरफ्तार कर हवालात में डाल दिया है

और उसकी बुरी तरह धुनाई हो रही है।

दारोगा ने जुर्म का इकबाल कराने और चोरी का माल बरामद कराने के

लिए लाल मिर्चों की धूनी उसकी नाक में दी ।

बंटी ने देखा, भोंदू का हाल-बेहाल हो रहा है, जान सांसत में है ।

जुर्म का इकबाल करना कंजड़ों में बड़ी बेइज्जती और शर्म की बात समझी जाती थी ।

भारी मार पड़ने पर भी भोंदू कबूल नहीं कर रहा था ।

पर बंटी से उसका मिर्ची की धूनी से बुरा हाल होते नहीं देखा गया ।

वह दारोगा के आगे फूट पड़ी और उसे ले जाकर गहने-पैसे सब बरामद करा दिए।

भोंदू को पता चला तो उसकी दोनों आँखों से अंगारे बरस रहे थे ।

छूटने पर बंटी ने भोंदू को देखा तो उसकी धधकती आँखें उसको अर्न्तमन में चुभ गईं ।

वह सहम गई ! घर लौट आई ।

एक कॉस्टेबल ने आकर बताया-भोंदू ने पत्थर पर सिर पटक-पटक कर अपने को

लहूलुहान कर लिया है, हम न पकड़ते तो जान ही दे देता !

अब बंटी खुद जंगल से लकड़ियां काट-काट कर लाती है भोंदू

की सेवा-सुश्रूषा में जी जान से जुट गई।

उसके लिए जी तोड़ मेहनत करके घी-दूध लाती है ।

भोंदू ने कहा- अपने लिए तो एक साड़ी भी नहीं लाती ! मुझे घी-दूध खिलाती है ?

“इसीलिए तो खिलाती हूँ कि तुम जल्दी से काम धंधा करने लगो और मेरे लिए साड़ी लाओ।"

बंटी मुस्कुरा कर बोली ।

भोंदू ने कहा तो फिर कहीं सेंघ मारूं ?

बंटी ने उसके गाल पर एक ठोकर देकर कहा-" पहले मेरा गला काट देना, तब जाना ।"

कितना भव्य था यह नये प्रेम का उदय !