शास्त्र के वचन

खट्टर कका के तरंग लेखक : हरिमोहन झा

उस दिन खट्टर काका के साथ शास्त्र-चर्चा में मजा आ गया।

खट्टर काका बादाम की ठंढाई पीकर आनंद में मग्न थे।

मैंने बात छेड़ दी--खड्टर काका, शास्त्रों के वचन कितने सारगर्भित हैं!

खट्टर काका बोले - सारगर्भित हैं या श्वशुरगर्भित, सो तो मैं नहीं जानता।

लेकिन शास्त्र का एक वचन कहता हूँ--

स्वगृहे प्राकृशिरा: स्वप्यात्‌ श्वाशुरे दक्षिणाशिरा: (स्पृति-समुच्चय)

अर्थात्‌, “अपने घर में पूरब ओर सर करके सोना चाहिए और ससुराल में दक्खिन ओर” अब तुम्ही बताओ, इसमें क्‍या तुक है ?

मुझे चुप देखकर खट्टर काका मुस्कुराते बोले - यदि गाँव के बेटी-दामाद इस वचन पर चलने लगें, तो भारी मुश्किल में पड़ जायँगे।

मैंने पूछा-सो कैसे?

खट्टर काका बोले-देखो, शयनागार में गाँव की बेटी का सिरहाना पूरब तरफ रहेगा और दामाद का दक्खिन तरफ ।

तब कया दामाद साहब लेटे-लेटे उत्तान-पादासन का अभ्यास करेंगे ?

मैं - तो क्‍या शास्त्रीय वचन निष्प्रयोजन हैं ?

खट्टर काका बोले.- अजी, संसार में कुछ निष्कारण थोड़े ही होता है ? कोई पंडित बरसात में ससुराल गये होंगे। रात में घर का छप्पर चूने लगा होगा। उन्होंने दक्खिन तरफ सूखा देखकर

उधर खटिया खिसका ली होगी । देखादेखी वही प्रथा चल पड़ी होगी इसी तरह अंधविश्वास फैलता है।

मैं-हो सकता है, इस वचन में कोई गूढ़ तालर्य भरा हो।

खट्टर काका बोले-इसी को कहते हैं मार्जारबंधनन्याय किसी श्राद्ध में एक बिल्ली आकर बार-बार दही के इर्दगिर्द मंड़राने लगी ।

सो देखकर बिल्ली को बाँध दिया गया। जब वह यजमान मर गया तो उसके श्राद्ध में बेटे ने पुरोहित से पूछा-'इस बार बिल्ली क्यों नहीं बाँधी गयी?

पंडितजी ने कहा-'पद्धति में तो यह नहीं लिखा है ।' सुपुत्र ने कहा-'क्या कहते हैं महाराज! जब दादाजी के श्राद्ध में बिल्ली बाँधी गयी, तो भल्रा बाबूजी के श्राद्ध में कैसे नहीं बाँधी जायगी ?

” तब कहीं से एक बिल्ली पकड़कर लायी गयी और उसके गले में रस्सी डालकर रस्म-अदाई की गयी।

तब से उस कुल में बिल्ली बाँधने की प्रथा चल पड़ी। सपूत लोग समझते हैं कि अवश्य ही 'मार्जारबंधन' में कोई गूढ़ तात्पर्य होगा।

इस तरह न जानें कितने बंधन इस देश में चल पड़े हैं। मैंने पूछा - तो फिर ऐसी बातें स्मृति में कैसे आ गयीं!

खट्टर काका बोले-अजी, श्रुति-स्मृति क्या कहीं आकाश से टपक पड़ी है ?

जो बात सुनी गयी, वह श्रुति।

जो याद रही, वह स्मृति कब कौन बात किस अभिप्राय से कही गयी, सो प्रसंग तो लोग भूल गये; केवल वचनों को आँख मूँदकर ढोते आ रहे हैं!

मैंने कहा - खट्टर काका, हो सकता है, शास्त्रीय वचनों के वैज्ञानिक आधार हों।

खट्टर काका बोले - वैज्ञानिक आधार हों या नहीं, मनोवैज्ञानिक आधार तो अवश्य हैं। कोई आचार्य नदी में स्नान करते समय तेज धारा में बह गये होंगे। उन्होंने निश्चय किया होगा कि नाभि से ऊपर जल में खड़े होकर स्नान नहीं करना चाहिए। बस एक वचन बना दिया -

नाभेरूर्ध्व हरेदायु: अधोनाभे स्तपःक्षयः

नाभे: सम॑ जल॑ कृत्वा स्नानकृत्यं समाचरेत्‌, (स्मृतिसंग्रह)

अर्थात्‌, “ठीक नाभि के बराबर जल में स्नान करना चाहिए।”

इसी तरह कोई आचार्य सबेरे उठकर स्नान करने गये होंगे, तब तक कोई आकर उनके फूल तोड़कर ले गया होगा।

बस, उन्होंने नियम बना लिया कि स्नान से पहले ही फूल तोड़कर रख लेना चाहिए।

स्नानं कृत्वा तु ये कंचित्‌ पुष्पं चिन्वन्ति वै द्विजाः

देवतास्तन यृहणन्ति पूजा भवति निष्फला

(कृत्यमंजरी)

अर्थात्‌, स्नान के बाद चुने हुए फूल देवता के लायक नहीं रहते; पूजा निष्फल हो जाती है।”

इसी प्रकार कभी कोई आचार्य एक हाथ में फूलों का दोना और दूसरे हाथ में जलपात्र

लेकर जा रहे होंगे। रास्ते में किसी ने प्रणाम किया होगा।

हाथ उठाकर आशीर्वाद देते समय कुछ फूल गिर गये होंगे।

बस, ऐलान कर दिया कि हाथ में जल-फूल रहे, उस समय प्रणाम-आशीर्वाद, वर्जित!

पुष्पहस्त: पयोहस्त: तैलाभ्यंग जले तथा

आशीः कर्त्ता नमस्कर्त्ता भवेतां पापभागिनी

(स्मृतिसंग्रह)

मैंने कहा-मगर कुछ लोग तो शास्त्रीय वचनों की वैज्ञानिक व्याख्या करते हैं।

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले-हाँ! जैसे कुछ लोग समझते हैं कि गोपदतुल्य शिखा रखने से मस्तिष्क में ज्यादा विद्युत्‌ प्रवाहित होती है। प्रायः उसी विद्युत्‌ के कारण उन्हें दूर की सूझती है!

मैंने कहा-परंतु इतना आचार-विचार और किसी देश में है ?

खट्टर काका बोले - अजी, और देशों को इतनी फुर्सत ही कहाँ है ?

यदि यूरप-अमेरिका हम लोगों की पद्धति लेकर आह्िक कृत्य करने लगता, आसन पर पलथा लगाकर आँखें मूँदकर रुद्राक्ष की माला जपने लगता, तो फिर रेल, तार, हवाई जहाज, रेडियो, और टेलिविजन का आविष्कार कौन करता ?

उन दिनों अपने यहाँ के शास्त्रकारों को और

कोई काम तो था ही नहीं। बैठे-बैठे वचन गढ़ा करते थे। दतवन कै अँगुलियाँ लंबी हो? के बार कुल्लियाँ की जाये ? किस दिन तेल लगाया जाय ? प्रसूतिका कब स्नान करे ? वत रखनेवाली स्त्री कोंहड़ा लेकर पारण करे या कददू लेकर ?

मेंने पूछा-खट्टर काका, विद्वान्‌ लोगों को ऐसी-ऐसी छोटी बातों में पड़ने की क्‍या जरूरत थी ?

खट्टर काका बोले--अजी, यही तो रोना है। यहाँ के विद्वान्‌ कोंहड़ा-कद्दू में लटके रह गये।

दतवन पर रिसर्च' करने लग गये! देखो, एक आचार्य ने अनुसंधान किया -

द्वादशांयुलविप्राणां क्षत्रियाणां नवांगुलम्‌ चतुरांगुलमानेन नारीणां विधिरुच्यते

(स्मृतिसंग्रह)

अर्थात्‌, “ब्राह्मणों की दतवन बारह अंगुल की, क्षत्रियों की नौ अंगुल की और स्त्रियों की चार अंगुल की होनी चाहिए।”

खट्टर काका के होंठों पर मुस्कान आ गयी। बोले - इस समान अधिकार के युग में ऐसा कहते तो स्त्रियाँ उन पर मानहानि का मुकदमा दायर किए बिना नहीं छोड़तीं! मगर उस समय तो स्याह-सफेद सब शास्त्रकारों के ही हाथ में था। जो-जो मन में आया, लिखते गये।

किसी आचार्य ने यह अध्यादेश जारी कर दिया कि -

प्रतिपद्वर्शषष्टीषु नवम्येकादशी रखी

दन्तानां काष्ठसंयोगो, दहेदासप्तमं कुलम्‌

अर्थात्‌, “पड़वा, अमावस्या, षष्ठी, नवमी, एकादशी और रविवार को किसी ने दाँत से दतवन का स्पर्श कराया, तो कुल की सात पीढ़ियाँ दग्ध हो जायँगी ।”

अजी, मैं पूछता हूँ, अगर इन दिनों में कोई दतवन कर ही लेता, तो शास्त्रकार के घर का कौन-सा आँटा गीला हो जाता, जो सातों पुरखों का उद्धार कर गये हैं ।

मैंने पूछा-खट्टर काका, शास्त्रकारों को इन छोटी-छोटी बातों में दखल देने की क्या जरूरत थी ?

खट्टर काका बोले-सो तो वे ही जानें! एक साहब आये, तो स्त्रियों के स्नान पर रोक लगा गये।

स्नाने कुर्वन्ति या नार्य: चद्रे शतभिषां गते

सप्त जन्म भवेयुस्ता: विधवा दुर्भगा ध्रुवम्‌

(स्कंदपुराण)

अर्थात्‌, “शतभिषा नक्षत्र में अगर स्त्रियाँ स्नान कर लें तो सात जन्म विधवा हों ।” दूसरे साहब फरमा गये -

नवमी पुत्रनाशाय, विनाशाय त्रयोदशी

तृतीया भर्त्तुनाशाय स्नाने ता वर्जयेदत: (कालविवेक)

अर्थात्‌, “यदि स्त्री नवमी में स्नान करे तो पुत्रनाश हो, तृतीया में पति नाश हो, त्रयोदशी में अपना नाश हो।”

अजी, मैं पूछता हूँ, कोई स्त्री कभी नहाए, इसमें शास्त्रकारों का क्या लगता है? लेकिन वे लोग तो स्नान की कौन कहे, गर्भाधान में भी अपनी टॉँग अड़ा देते हैं। उस में भी मंत्र पढ़ाये बिना नहीं छोड़ते। देखो, गर्भाधान का मंत्र है -

गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि सरस्वति

गर्भते अश्विनौदेवी वा धर्त्ता पुष्करस्रजा

मैंने कहा-बाप रे बाप! उस समय भी मंत्र-पाठ! हद हो गयी। खट्टर काका बोले - अजी, शास्त्र है कि ठट्टा। कोई अपने मन से एक तिनका तक नहीं खोंट सकता है।

मनु का आदेश है-न छिंद्यात्‌ करजैस्तृणम्‌ ! यहाँ छींकने-थूकने पर भी प्रायश्चित्त लग जाता है। देखो, वृद्ध शातातप की आज्ञा है -

क्षुत्वा निष्ठीव्य वासस्तु परिधायाचमेत्‌ बुधः

कुर्यादाचमन स्पर्श गोपृष्टस्यार्कदर्शनम्‌ । (शातातपस्मृति)

अर्थात्‌, “छींक-खखार करने पर कपड़ा बदलना होगा, आचमन करना होगा, गाय की पीठ का स्पर्श करना होगा, सूर्य का दर्शन करना होगा तब जाकर प्रायश्चित्त पूरा होगा।” मैंने पूछा-खट्टर काका, ऐसे नियम क्‍यों बने?

खट्टर काका बोले - अजी, आजकल एक कानून बनता है, तो कितनी बहस होती है, कितने लोगों के मत लिये जाते हैं, तब जाकर वह पास होता है ।

उन दिनों शास्त्रकारों के अपने हाथ में कलम थी । एक अनुष्टुप्‌ छंद बना दिया, कानून हो गया! एक तो देववाणी, दूसरे विधिलिड लकार! कुर्यात्‌! अब कौन पूछने की हिम्मत करे कि कथ॑ कुर्यात्‌ ?

जो शंका करे, वह नास्तिक कहलाए ऐसी स्थिति में कौन मुँह खोले ? विधि-निषेधों के ऐसे ताने-बाने बुने गये कि समाज उसी मकड़जाले में फँसकर रह गया।

खट्टर काका के होंठों पर मुस्कान आ गयी। बोले - आज यदि लोग मनु याज्ञवल्क्य के अनुसार चलने लगें, तो पग-पग पर समस्या उठ खड़ी होगी।

मैंने पूछ--सो कैसे, खट्टर काका ?

खट्टर काका बोले-देखो, मनु की आज्ञा है -

मूत्रोच्चार समुत्सर्ग दिवा कुर्यात्‌ उदड़मुखः

दक्षिणाभिमुखो रात्रौ संध्ययोश्च यथा दिवा

अर्थात्‌, “मल-मूत्र का त्याग दिन में उत्तर मुँह और रात में दक्षिण मुँह होकर करना चाहिए ।” अतएव लाखों शौचालयों को तोड़कर फिर से बनाना होगा।

हजामों की भी हजामत बन जायगी। क्योंकि -

नापितस्य युहे क्षौरं शिलाप्ष्ठे तु चंदनम्‌

जलमध्ये मुख दृष्ट्वा हन्ति पुण्य॑ पुराकृतम्

(नीतिदर्पण)

“हजाम के घर पर जाकर बाल बनवाने से सारा पुण्य नष्ट हो जाता है।” तब कौन 'सैलून' में जायगा और, लौंड्री' (धुलाई) की दूकानें भी हफ्ते में तीन दिन बंद ही रहेंगी।

क्योंकि शास्त्र का वचन है -

आदित्यसौरि धरणी सुतवासरेषु

प्रक्षालनाय रजकस्य न वस्त्रदानम्‌

शंसन्ति कीरभ्गुगर्ण पराशराद्या:

पुंसां भवन्ति विपदः सह पृत्रदारैः (रुद्रधरीयवर्षकृत्य)

“यदि कोई आदमी शनि, रवि या मंगलवार को कपड़े धोने के लिए दे, तो स्त्री-पुत्र समेत विपदाओं के जाल में फँस जायगा।

भृगु, गर्ग, पराशर आदि आचार्य इस बात की ताईद कर गये हैं।” तब ऐसी हालत में कौन वहाँ जाकर आफत मोल लेगा ? और, गृहिणियों की तो और भी मुसीबत हो जायगी!

मैंने पूछा-सो कैसे, खट्टर काका ? खट्टर काका बोले-उन्हें भक्ष्याभक्ष्य का लंबा चार्ट बनाकर कलेंडर के साथ टाँगना पड़ेगा।

सब्जियाँ बनाने के लिए पंचांग देखना पड़ेगा।

प्रतिपत्मु च कृष्मांडभक्षणम्‌ अर्थनाशनम्‌

द्वितीयायां पटोलं च शत्रुवृद्धिकरं परम्‌

तृतीयायां चतुर्थ्यां च मूलकं॑ धननाशकम्‌

कलंककारएणं चैव पंचम्यां बिल्वभक्षणम्‌

तिर्यगयोनिं प्रापयेतु षष्ठ्‌यां च निम्बभक्षणम्‌

रोगवृद्धिकरं चैव सप्तम्यां तालभक्षणम्‌

नारिकेलफलं भक्ष्य मष्टम्यां बुद्धिनाशकम्‌

तुंबी नवम्यां गोमांसं दश्षम्यां च कलंबिका

एकादश्यां तथा शिग्बी द्वादश्यां पृतिका तथा

त्रयोदश्यां तु वात्तकी भक्षणं पुत्रानाशनम्‌

चतुर्दश्यां माषभक्षं महापापकरं स्मृतम्‌

पंचदश्यां तथा मांसमभक्ष्यं ग्रहिणां मतम्‌

अर्थात्‌, “पड़वा को कोंहड़ा, द्वितीया को परवल, तृतीया-चौथ को मूली, पंचमी को बेल, षष्ठी को नीम, सप्तमी को ताल, अष्टमी को नारियल, नवमी को कह्दू, दशमी को कलमी साग, एकादशी को सेम, द्वादशी को पोई, त्रयोदशी को बैंगन, चतुर्दशी को उड़द और पूर्णिमा को मांस खाना मना है ।

अगर कोई खा ले तो गहरी कीमत चुकानी होगी। जैसे, त्रयोदशी को भाँटा खाने से बेटा मर जायगा; अष्टमी में नारियल खाने से बुद्धि का नाश हो जायगा ऐसी हालत में कौन अतिथि बिना तिथि देखे हुए बैंगन की पकीड़ी या गरी की बर्फी मुँह में डालेगा ?

गृहिणी को नित्य पंचांग देखकर दैनिक मेनू” (भोज्य-सूची) बनानी पड़ेगी।

और, कहीं धोखे से प्याज-लहसुन का एक छिलका भी रसोई में आ गया तब तो हड़कंप ही मच जायगा! क्योंकि-

पलांडु लशुन स्पर्श स्नात्वा नक्त समाचरेत्‌ (याज्ञवल्क्यस्मृति)

शास्त्रों की बदौलत कितनों का दीवाला पिट जायगा, इसका ठिकाना नहीं!

मैंने कहा - खट्टर काका, शास्त्रकारों ने दैनिक भोजन की मामूली चीजों पर, साग-भाँटा पर भी, ऐसे प्रतिबंध क्‍यों लगा दिये हैं ?

खट्टर काका बोले - अजी, जनता को अपने अधीन रखने के लिए सैकड़ों तरह के बंधन बनाये गए हैं। जैसे, मवेशी के पाँव छाने जाते हैं बात-बात पर ऐसे कंट्रोल' लगा दिये गये हैं कि क्या सरकार लगायेगी ? सरकार तो एतवार की छुट्टी भी देती है ।

पर शास्त्रकारों ने उस रोज और ज्यादा लगाम कस दी। देखो, एक आचार्य का हुक्म हुआ -

मत्य॑ मांस मयूरं च कांस्यपात्रे च भोजनम्‌

आर्द्रक॑ रक्तशाक च रवौ हि परिवर्जयेत्‌ (ब्रह्मवैवर्त)

अर्थात्‌, “रविवार को मछली, मांस, मसूर की दाल, अदरख और लाल साग नहीं खाय। काँसे की थाली में भोजन नहीं करे ”

दूसरे आचार्य का फरमान हुआ-

क्षेर॑ तैल॑ जल॑ चोष्णमामिषं निशि भोजनम्‌

रतिं स्‍्नानं च मध्याह्नं रवौ सप्त विवजयित

(स्मृतिसंग्रह)

अर्थात्‌, “रविवार को न कोई बाल कटाए, न दोपहर में स्नान करे, न मांसाहार करे, न रात्रि में भोजन करे, न स्त्री-सहवास करे ।”

एक तीसरे आचार्य ने फतवा दिया -

अन॑ पान॑ च तांबूलं, मैथुनं केशमार्जनम्‌

च्यूतक्रीडाउन॒तं हास्य मेकादश्यां विवर्जयेत्‌

(स्मृति तत्त्व)

अर्थात्‌, “एकादशी को न अन्न खाय, न पानी पीये, न पान खाय, न बाल सँवारे, न जुआ खेले, न झूठ बोले, न संभोग करे, न हँसी-मजाक करे ।”

हँसने पर भी कट्रोंल लगा दिया! अजी, कहाँ तक कहूँ? 'केशव कहि न जाय का कहिए!'

मैंने कहा-खट्टर काका, ये सब आचार के बंधन हैं।

खट्टर काका बोले-परंतु आचार में भी अति लग जाने से अत्याचार बन जाता है! यही अपने देश में हुआ है। शास्त्रकारों ने ऐसे-ऐसे अतिचार लगाये हैं कि वर्षों तक कन्या-वर का सहचार नहीं होने देते।

स्त्रियों को तो ऐसा नाथा है कि क्‍या कोई भैंस को नाथेगा? तभी तो रानियों को राजमहिषी कहा जाता था! वे असूर्यपश्या होती थीं! ऐसी पर्दानशीन स्त्रियाँ ही शुद्ध पतिव्रता मानी जाती थीं।

असूर्यपश्या या नार्य: शुद्धास्ताश्च पतिव्रताः

स्वच्छंदगामिनी या सा स्वतंत्रा शूकरी समा (ब्रह्मवैवर्त)

स्वतंत्र विचरण करनेवाली नारी को शूकरी के समान कहा गया है!

मैंने पूछा-खट्टर काका, शास्त्रकार लोग स्त्रियों पर इतनी कड़ी निगरानी क्यों रखते थे ?

खट्टर काका - उनका खयाल था कि औरतें जिंदगी-भर नाबालिग रहती हैं, इसलिए कह गये हैं -

पिता रक्षति कौमारे भर्त्ता रक्षति यौवने

पुत्रो रक्षति वार्धक्ये न स्त्री स्वातंत्रयमर्हति

अर्थात्‌, “स्त्री को आजीवन पिता, पति या पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए ।” उन्हें डर था कि आजादी की हवा लगते ही कहीं स्त्री का सतीत्व काफूर न हो जाय । इसलिए स्त्री को कपूर की तरह डब्बे में बंद करके रखते थे। शास्त्र की काली मिर्चें डालकर। ताकि वह उड़ न जाय!

खट्टर काका सुपारी काटते हुए कहने लगे-देखो, स्त्रियों को दरवाजे पर बैठने, खिड़की

से झौँकने और हँसने-बोलने तक की मुमानियत थी।

दारोपबेशन नित्यं गवाक्षेण निरीक्षणम्‌

असतुप़्लापो हास्य॑ च दूषित कुलयोषिताम्‌ (व्याससंहिता)

उन्हें एड़ी तक भी खुली रखने की इजाजत नहीं थी। आगुल्फाद धारयेद्‌ वास: स्‍्तनों का उभार भी कोई देखने नहीं पाए । नेक्षेत प्रकटस्तनीम्‌! किसी को नग्न अंग दिखायी पड़ गया तो दिन भर उपवास रखना पड़ता था।

नग्नां परस्त्रिय॑ दृष्ट्वा ब्रतमेक॑ समाचरेत्‌ (शंखस्मृति)

यदि वैसे धममशास्त्री इस युग में रहते, तो प्रायः उन्हें रोज व्रत ही रखना पड़ता! मैं-वे लोग तो स्त्री-शिक्षा के भी पक्षपाती नहीं थे?

ख.-कैसे रहेंगे? कन्या जहाँ अंकुरित-यौवना हुई, कि उसकी पढ़ाई बंद!

बालां तु पाठयेत्‌ तावत्‌ यावनहि कुचोद्गम:

ऐसे ऐसे शास्त्र-दिग्गज आज की जंघिया कसे हुई प्रौढ़ा युवतियों को बॉलीवाल' उछालते हुए देखते तो गश खाकर गिर पड़ते।

में - वे लोग बालविवाह के समर्थक क्‍यों थे ?

ख.- अजी, जहाँ कन्या बारह वर्ष की हुई कि उनकी छाती धड़कने लग जाती थी कि कहीं वह रजस्वला हो गयी, तो पितरों को हर महीना रज पीना पड़ेगा!

प्राप्ते तु द्वादशे वर्षे यः कन्यां न प्रयच्छति ।

मासि मासि रजस्तस्याः पिब्रन्ति पितरोडनिशम्‌ (यमसंहिता)

अब तो कानून के मुताबिक चौदह से कम में शादी हो ही नहीं सकती। यदि शास्त्र प्रमाण, तो सभी पितर पतित हो गये होंगे।

शास्त्र का वचन है -

रोमकाले तु संप्राप्ते सोमो भुंजीय कन्यकाम्‌

रजः काले तु गंधर्वों वह्निस्तु कुचदर्शने (पराशरस्मृति)

शास्त्रकारों को इस बात की बड़ी फिक्र थी कि कहीं कुमारी को रोमांकुर हो गया तो, गजब हो जायगा। सोमदेवता बिना भोग लगाये नहीं छोड़ेंगे कुच देखकर अग्नि देवता और पुष्प देखकर गंधर्व देवता पहुँच जायेंगे। इसलिए कन्या को पहले ही पति के हाथ सौंप देते थे।

अब तो उन देवताओं को रोकनेवाला कोई नहीं रहा! मैं--र्टर काका, शास्त्राचार्य लोग स्त्रियों को ऐसे कठोर शासन में इतने दिन कैसे रखे रहे ?

ख.-स्वर्ग का लोभ और नरक का भय दिखलाकर । इन्हीं दोनों पहियों पर धर्मशास्त्र की गाड़ी चलती है। स्वर्ग और नरक, दोनों तो अपनी ही मुट्ठी में थे।

इन्हीं के बल पर शास्त्रकार अपनी हुकूमत चलाते रहे। देखो!

सुपुण्ये भारतेवर्षे पतिसेवां करोति या

बैकुंठ स्वामिना सार्ध सा याति ब्रह्मण: शतम्‌ (ब्रह्मवैवर्त)

अर्थात्‌, “भारतवर्ष में (पता नहीं केवल भारतवर्ष में ही क्‍यों?) जो स्त्री पति सेवा करेगी, उसे स्वामी के साथ स्वर्ग-लोक का पासपोर्ट मिल जायगा ।” और, स्त्री कहीं पति को धोखा देकर किसी और की सेवा में चली जाय, तब कया होगा ?

सो भी सुन लो -

स्वकान्तं बंचनं कृत्वा पर गच्छति याउधमा

कुंभीपाक समायाति यावच्चंद्र दिवाकरौ

सर्पप्रमाणा: कीटाश्च तीक्ष्णदंता: सुदारुणा:

दशन्ति पुंशचर्ली तत्र संततं तां दिवानिशम्‌ (ब्रह्मवैवर्त)

“परपुरुष-गामिनी स्त्री को कुभीपाक नरक में अनंत काल तक रात-दिन नुकीले दाँतवाले भयंकर सॉँप सरीखे जंतु डँसते रहेंगे।” पता नहीं, परस्त्री-गामी पुरुष के लिए भी ऐसा वचन क्‍यों नहीं है! क्या कुंभीपाक के साँप 'फौर लेडीज ओनली' (केवल महिलाओं के लिए) होते हैं ?

खट्टर काका एक चुटकी सुपारी का कतरा मुँह में डालते हुए कहने लगे--अजी, ये शास्त्रकार लोग इतने शंकालु थे कि शिष्यों को गुरुआइन का पाँव तक छूने की भी अनुमति नहीं देते थे, (यदि वह युवती हों)!

गुरुपली हि युवतिनाभिवंद्येह पादयो: (मनुस्मृति)

वृद्ध शास्त्रकार चाहते थे कि उनकी युवती पली तन-मन-वचन से सदा उनकी वशंवदा होकर रहे उसका अपना व्यक्तित्व नहीं उभड़ने पावे इसीलिए तरह-तरह के वचन गढ़े गये हैं कुछ बानगी देखो। किसी आचार्य का स्त्री से झगड़ा हुआ होगा।

वह रात में उनकी सेवा में नहीं गयी होगी। बस, एक वचन ठोक दिया।

ऋतुस्नाता तु या नारी, भत्तरिं नोपसर्पति

सा मृता नरक याति विधवा च पुनः पुनः (ब्रह्मवैवर्त)

अर्थात्‌, “ऋतुस्नान के बाद जो स्त्री पति की सेवा में उपस्थित नहीं होती, वह मरने पर नरक-गामिनी होती है, बारंबार विधवा होती है।”

कभी पंडितानीजी ने पति से पहले भोजन कर लिया होगा। बस, श्लोक बन गया -

सिद्धान या स्वयं भुंक्ते त्यक्त्‌वा देवान्‌ पतिं पितृन्‌

गत्वा सा नरक घोर॑ दुःखं प्रानोति निश्चितम्‌ (कूर्मपुराण)

अर्थात्‌, “जो स्त्री पति से पहले ही भोजन कर ले वह नरक में जाकर घोर दुःख भोगती है।”

कभी स्त्री ने स्वयं कोई मिठाई खा ली होगी, पति को देना भूल गयी होगी। बस, उस पर गालियों की बौछार हो गयी।

भत्तरिं या अनुलनृत्य मिष्टमश्नाति केवलम्‌

सा ग्रामे शूकरी स्याद्वा गर्दभी वा तु विड्भुजा (स्कंदपुराण)

“या तो वह शूकरी होकर जन्म लेगी या गधी होकर या विष्ठा की कीड़ी होकर!” पंडित लोग स्त्रियों को खाती हुई नहीं देख सकते थे। अपने साथ बैठाकर खिलाना तो दूर रहा! देखो, साफ कह गये हैं -

नाश्नीयात्‌ भार्यया सार्ध, नैनामीक्षेतर चाश्नतीम्‌ (स्मृतिरलाकर)

कभी स्त्री ने कहा होगा -

“अभी घर में घृत नहीं है, जाकर ले आइए ।” बस, एक वचन बनाकर उसका मुँह बंद कर दिया।

सर्पिलवणतैलादिक्षये. चापि पतिव्रता

पतिं नास्तीति न ब्रूयात्‌ आयासार्थ न योजयेत्‌ (मनुस्मृति)

अर्थात्‌, “घर में घी, तेल, नमक नहीं रहने पर भी पतिव्रता को पति से ऐसा नहीं कहना चाहिए कि आप जाकर ले आइए ।”

स्त्री ने उत्तर दिया होगा कि “धर में नहीं है, तो मैं कहाँ से लाऊँ ?” बस, एक और श्लोक बन गया!

उक्ता प्रत्युत्तरं दद्यात्‌ नारी या क्रोधतत्परा

सरमा जायते ग्रामे शगाली च महावने ' (स्कंदपुराण)

अर्थात्‌, “जो पति को प्रत्युत्तर दे, वह गाँव में कुत्ती या जंगल में गीदड़नी होकर जन्म लेगी।”

बेचारी स्त्री डर के मारे चुप हो गयी। वह मुँह फुलाकर घर में बैठ गयी होगी। पंडितजी को यह भी नागवार गुजरा।

चट एक और श्लोक जड़ दिया -

परुषाण्यपि या प्रोक्ता दृष्टा याउक्रोधतत्परा

सुप्रसन्‍नमुखी भर्चु: सा नारी धर्मभागिनी (स्मृतिसंग्रह)

अर्थात्‌, “स्वामी के कठोर वचन सुनकर भी जो क्रोध नहीं करे, मुस्कुराती ही रहे, वही धर्म की भागिनी होती है।”

मैंने कहा-खड्टर काका, स्त्रियों को रूठने तक का भी अधिकार नहीं? खट्टर काका बोले-अजी, शास्त्र ने उन्हें कोंहड़ा काटने तक का अधिकार नहीं दिया है।

देखो -

कृष्मांडच्छेदिका नारी, दीपनिर्वापक: पुमान्‌

वंशच्छेदमवाप्नोति खद्योत: सप्तजन्मयु (स्मृतिसंग्रह)

“स्त्री कोंहड़ा काटेगी तो निर्वश हो जायगी; पुरुष दीप बुझायगा तो सात जन्म जुगनू होकर जन्म लेगा!”

मैंने पूछा-सो क्‍यों, खट्टर काका ? खट्टर काका बोले-अजी, शास्त्र में क्‍यों थोड़े ही लगता है ? देखो, मनु का एक

वचन है -

न दिवीद्धायुघ॑ दृष्ट्वा कस्यचित्‌ दर्शयेत्‌ वुध:

अर्थात्‌, “आकाश में इंद्रधनुष देखकर किसी को नहीं दिखाना चाहिए। अब तुम्ही बताओ, इसका क्या अभिप्राय हो सकता है? मैंने कहा-खट्टर काका, अपने देश में वैज्ञानिक नहीं थे, जो इन बातों का अनुसंधान करते ?

खट्टर काका बोले--अजी, इस देश की जलवायु विज्ञान के अनुकूल नहीं है। जहाँ किसी विज्ञान ने जन्म लेना चाहा कि काव्य, ज्योतिष और धर्मशास्त्र उस पर एक साथ चढ़ाई कर देते हैं।

देखो, शास्त्र का एक वचन है -

शुचि सित दिनकरवारे करमूले बद्धपुलिकमूलस्य

नागारेरिव नागा: प्रयांति किल दूरतस्तस्य (व्यवहारदीपिका)

अर्थात्‌, “आषाढ़ शुक्ल पक्ष में रविवार को हाथ में इसरगत की जड़ बाँध लो, तो साँप भाग जायगा |” काव्य ने गरुड़ की उपमा जोड़ दी। ज्योतिष ने मास, पक्ष और दिन का हिसाब बैठा दिया। धर्मशास्त्र ने प्रायश्चित्त का बंधन लगा दिया।

अकृत्वा पुलिकैर्बन्ध॑ प्रायश्चित्तीयते नरः

चातुमस्ये व्यतीते तु मुक्तिस्तस्य करादू भवेत्‌ (कृत्यसारसमुच्चय)

बस, लोग उसे चार महीनों तक कलाई घड़ी की तरह बॉधकर चलने लगे। उसे देखकर साँप सचमुच भागता है या नहीं, यह आज तक किसी ने जाँच नहीं की, और न करने की जरूरत समझी ऐसे गड्डलिका-प्रवाह में सत्यासत्य की परीक्षा कैसे हो सकती है ?

खट्टर काका एक चुटकी कतरा मुँह में रखते हुए बोले - अजी, शास्त्रकार लोग अनगिनत बंधन रचकर जनता को जकड़ गये हैं। धर्मशास्त्र में जो कसर रह गयी, उसे ज्योतिष ने पूरा कर दिया।

मनु, याज्ञवल्क्य ने लोगों को धर्म की हथकड़ी लगा दी। भूगु, पराशर ने काल की बेड़ी भी डाल दी। इस देश में बंधनों के मुख्य कारण हैं, श्रुति, स्मृति, ज्योतिष और पुराण।

एकैक मप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम!

काल का बंधन, दिशा का बंधन, ग्रह-नक्षत्र का बंधन, कर्मकांड का बंधन! बात-बात का बंधन! जन्म से मरण तक बंधन! इतने कहीं बंधन हुए हैं! तभी तो इस देश के लोग मोक्ष के पीछे बेहाल रहते आये हैं ।

मैंने कहा-खट्टर काका, आप शास्त्र में भी विनोद करने से नहीं चूकते ?

खट्टर काका बोले-अजी, काव्य - शास्त्र तो विनोद के लिए हैं ही। अगर शास्त्र-चर्चा नहीं होती, तो इतना समय ऐसे आनंद से कैसे कटता ? तभी तो कहा गया है -

काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्‌ !