मैं प्रातःश्लोक पढ रहा था - पुण्यश्लोको नलोराजा पुण्यश्लोको युधिष्ठिरः
तब तक पहुँच गये खट्टर काका। बोले-क्या सबेरे-सबेरे कापुरुषों के नाम ले रहे हो!
मैंने कहा - खट्टर काका, धर्मराज जैसे महापुरुष को आप ऎसा कहते है?
खट्टर काका बोले - धर्मराज नहीं, मूर्खराज। जो जुए के पीछे अपना राज-पाट गॅंवाकर स्त्रीपर्यन्त को हार जाय और जंगलों मे मारा-मारा फिरे, उसे और क्या कहेंगे? उनका एक ही जोड़ा है-राजा नल। वह भी जुए के पीछे अपना सर्वस्व गॅंवाकर जंगलों की खाक छानने गये और वहाँ अपनी सोयी हुई पत्नी को छोड़कर चुपके से भाग गये। नल और युधिष्ठिर दोनों एक ही जुए में जोतने योग्य हैं। जिसने यह श्लोक बनाया है, उसने खूब जोड़ा मिलाया है।
मैं - खट्टर काका, युद्धिष्ठिर महाभारत के आदर्श पात्र हैं, जिनसे शिक्षा मिलती है।
खट्टर कका - हाँ, सबसे बड़ी शिक्षा तो यह मिलती है कि खानदान में एक भी नालायक पैदा होने से संपूर्ण वंश का नाश हो जाता है। यदि युधिष्ठिर जुआरी नहीं निकलते, तो महाभारत का संहारकारी युद्ध क्यों छिड़ता?
मैं - खट्टर काका, लोग कहते हैं कि कौरवों के अन्याय से महाभारत का युद्ध हुआ और आप उलटे युधिष्ठिर के मत्थे दोष मढते हैं।
खट्टर काका-तुम स्वयं सोचकर देखो। यदि युधिष्ठिर महाराज जुआ खेलने नही जाते तो इतना होता क्यों? जोश पर पासा फेंकते गये। पत्नी तक को दाँव पर चढा दिया। अजी, बेवकूफ को तो लोग भड़काते ही हैं। इनकी अपनी अक्ल कहाँ चरने गयी थी! और जब हार ही गये तो इसमें दूसरों का क्या दोष? चुप लगा जाते। यह क्या कि हार भी जाएँगे और गद्दी भी चाहेंगे!
मैं - खट्टर काका, द्रोपदी पर उतना अत्याचार हुआ, सो आप नहीं देखते?
खट्टर काका बोले-तुम द्रोपदी का दोष क्यों नहीं देखते? दुर्योधन महल देखने आये थे। उन्हें नया संगमर्मर देखकर जल का भ्रम हो गया। उस पर द्रोपदी खिलखिलाकर बोल उठी-'अंधे का बेटा अंधा ही होता है।' अब तुम्हीं कहो, यह कितनी बड़ी बदतमीजी हुई! क्या कोई भी सलज्ज कुलवधू श्वसुर-भैंसुर के प्रति ऎसे शब्द का व्यवहार कर सकती है? लेकिन रुपगर्विता द्रौपदी को तो कभी जेठ-छोटे का लेहाज नहीं रहा। पाँचों पांडवों को एक ही लाठी से हाँकती थी। बल्कि, युधिष्ठिर पर और भी ज्यादा धौंस जमाती थी। मगर कौरव तो वैसे गावदी नहीं थे जो चुपचाप अपमान की घूँट पीकर रह जाते। वे अपने पिता के असली पुत्र थे। उन्होंने कसकर बदला लिया।
मैं - परन्तुधर्मराज युद्धिष्ठिर तो साक्षात धर्मपुत्र....
खट्टर काका - बीच में ही काटते बोले- धर्मपुत्र नहीं, अधर्मपुत्र कहो। और बराबर "धर्म-राज' की रट क्या लगाये जा रहे हो! जो युद्धिष्ठिर अपने छोटे भाई अर्जुन की स्वयंवर-परिणीता पत्नी, अनुजवधू द्रौपदी को गर्भवती करने में नहीं हिचके, उन्हें तुम धर्मराज कहते हो? ऎसे को तो अधर्मराज कहना चाहिए।
मैं - परंतु यह तो माता कुंती की आज्ञा थी कि 'पाँचों भाई बराबर-बराबर बाँट लो। '
खट्टर काका उत्तेजित होकर बोले- अजी, पांचाली क्या पंचामृत प्रसाद थी, जो इस तरह वितरण किया गया? यह तो गनीमत समझो कि पांचाली के पाँच अंगों का बँटवारा नहीं किया गया। नहीं तो बेचारी की और गत बन जाती। फिर भी क्या कम दुर्दशा हुई? पाँच पुरुषों के बीच एक स्त्री! उस पर सब का हक! जैसे, वह नारी नहीं हो, साझे की गुड़गुड़ी हो! बारी-बारी से पी लो! क्या भले आदमियों का यही तरीका है? सच पूछो तो पांडव लोग पतित थे। उन्होंने कुल को डुबो दिया। इसी से तो एक बार कर्ण ने भरी सभा में कहा था कि पांचाली धर्मपत्नी नहीं पाँचों की रखेली है।
एको भर्त्ता स्त्रियाः देवै र्विहितः कुरुनंदन
इयं त्वनेकवशगा बंधकीति विनिश्चिता (महाभारत: सभापर्व)
मैं - खट्टर काका, कौरवों ने उतना अन्याय किया। दुःशासन भरी सभा में द्रौपदी की साड़ी तक खोलने लगा। अब इससे बढकर अपमान क्या होगा?
खट्टर काका बोले - विचारकर देखो तो द्रौपदी का अपमान स्वयं युद्धिष्ठिर ने किया, जिन्होने पत्नी की देह का खुला विज्ञापन करते हुए उसे दाँव पर चढा दिया।
नौव ह्रस्वा न महती न कुशा नातिरोहिणी
नीलकुंचितकेशी सा तया दीव्याम्यहं त्वया (महाभारत: सभापर्व)
'मेरी पत्नी न नाटी है, न बहुत लंबी है, न दुबली-पतली है, न बहुत मोटी है (अर्थात मध्यमांगी है), उसके काले-काले घुँघराले बाल हैं। मैं उसी को पासे पर चढा रहा हूँ। इस तरह तो वह बोले जो स्त्री का दलाल हो!
और जब वह हार गये, तो दुःशासन को बदला साधने का मौका मिल गया। उस सुकेशी को केश पकड़कर खींच लाया।
जग्राह केशेषु नरेन्द्र पत्नीम्
आनीय कृष्णामति दीर्घकेशाम् (महाभारत: सभापर्व)
जानते हो, द्रौपदी ने उस समय युधिष्ठिर की कैसी भर्त्सना की थी!
मूढो राजा द्यूतमदेन मत्तः को हि दीव्येत भार्यया राजपुत्रः! (महाभारतः सभापर्व)
'ऎसा मूर्ख राजा कौन होगा जो जुए के नशे में होश गॅंवाकर अपनी स्त्री को दाँव पर चढा दे?
जब दुःशासन द्रौपदी को पकड़कर सभा में ले जाने लगा, तब वह बोली-मैं अभी रजस्वला हूँ। एक ही कपड़े में हूँ। उतने लोगों के बीच कैसे ले जाओगे?
सा कृष्यमाणा नमितांगयष्टिः
शनैरुवाचाथ रजस्वलास्मि
एकं च वासो मम मंदबुद्धे
सभां नेतुं नार्हसि मामनार्य। (महाभारत: सभापर्व)
इस पर दुःशासन ने जवाब दिया-
रजस्वला वा भव याज्ञासेनि
एकांवरा वाऽप्यथवा विवस्त्रा
द्यूते जिता चासि कृतासि दासी
दासीषु वासश्च यथोपजोषम्
(महाभारत: सभापर्व)
तुम रजस्वला रहो, एकवस्त्रा रहो या विवस्त्रा रहो, हमने तुम्हें जुए में जीत लिया है। अब तुम हमारी दासी हो। जो मन में आवेगा, करेंगे।' तदनंतर खींचातानी होने लगी-
प्रकीर्णकेशी पतितार्धवस्त्रा
दुःशासनेन व्यवधूयमाना
(महाभारत:सभापर्व)
द्रौपदी के केश छितरा गये, आधी साड़ी नीचे गिर गयी।
मा मा विवस्त्रां कुरु मां विकार्षीः
(मुझे बिल्कुल नग्न मत करो)
तथा ब्रुबंती करुणं सुमध्यमा
भर्तृन् कटाक्षैः कुपिता ह्यपश्यत्
इस तरह करुण प्रार्थना करती हुई उसने कुपित दृष्टि से अपने पतियों की ओर देखा। लेकिन तथापि
ततो दुःशासनो राजन् द्रौपद्याः बसनं बलात्
सभामध्ये समाक्षिप्य व्यपाक्रष्टुं प्रचक्रमे (महाभारत: सभापर्व)
दुःशासन जबर्दस्ती उसकी साड़ी खींचने लगा।
उधर द्रौपदी की लाज लूटी जा रही थी, इधर पांडव लोग चुपचाप सभा में बैठे रहे! पत्नी पर अत्याचार होते हुए देखकर भी वे स्थितप्रज्ञ की तरह निर्विकार देखते रहे। उनकी आँखों का पानी गिर चुका था।
मैने कहा - खट्टर काका, उस समय मौका नही था।
खट्टर काका डाँटते हुए बोले-अब उससे बढकर कैसा मौका होता जी? जरा भी आन रहती तो वहीं जान दे देते। दुःशासन पर टूट पड़ते। मर मिटते। अर्जुन भीम की गांडीव-गदा किस दिन के लिए थी?
खट्टर काका थोड़ी देर क्षुब्ध रहे। फिर कहने लगे-तभी तो द्रौपदी ने एक बार खीझ कर कहा था- नैव मे पतयः संति
'मेरे ये पति नहीं हैं।'
यह कहकर वह हाथ से मुँह ढककर रोने लगी थी। - इत्युक्त्वा प्रारुदत् कृष्णा मुखं प्राच्छाद्य पाणिना (महाभारतः सभापर्व)
उस करुण क्रंदन में अश्रुओं की इतनी वर्षा हुई कि-
स्तनावपतितौ पीनौ सुजातौ शुभलक्षणौ
अभ्यवर्षत पांचाली दुःखजैरश्रु विंदुभिः (महाभारतः सभापर्व)
पांचाली की छातियां भींगकर सराबोर हो गयीं। लेकिन तो भी पतियों की छाती में जोश का उफान नहीं आया! वे नामर्द की तरह उन्हें ताकते रह गये। तभी तो एक बार उर्वशी ने अर्जुन को धिक्कारते हुए कहाथा कि 'तुम पुरुष नहीं, नपुंसक हो; स्त्रियों के बीच जाकर नाचों। '
तस्मात् त्वं नर्तनः पार्थ स्त्रीमध्ये मानवर्जितः
अपुमानिति विख्यातः षंडवद् विचरिष्यसि (महाभारतः सभापर्व)
मैने कहा - खट्टर काका, पांडव तो वीरता के लिए प्रख्यात थे। विशेषतः अर्जुन।
खट्टर काका सुपारी कतरते हुए कहने लगे- अजी, अपनी आँखों के सामने अपनी पत्नी को विराट राज के महल में दासी का काम करते देखकर भी जिनके गले में कौर नहीं अटकता था, उन पांडवों को मैं वीर कैसे मान लूँँ?अर्जुन में पुरुषार्थ रहता तो जनखे की तरह दाढी-मूँँछ मुड़ाकर, लहँँगा-चोली पहनकर, बृहन्नला के वेष में राजकन्या को नाच सिखलाने पर रहते! और, भीम तो भोजन भट्ट ही ठहरे। भोनू भव न जाने, पेट भरे से काम! जब बड़ों का ही यह हाल, तो नकुल-सहदेव की क्या गिनती!
मैने कहा - खट्टर काका, उस समय पांडव लोग अज्ञातवास में थे।
खट्टर काका बोले- सच पूछो तो वे लोग मुँँह दिखाने लायक थे भी नहीं। जिस कृष्ण ने अर्जुन की खातिर उतना किया, कृष्णा की लाज बचायी, उन्हीं कृष्ण की बहन सुभद्रा को भगाकर ले गये। इतना भी विचार नहीं किया कि मामा की बेटी, ममेरी बहन है! अर्जुन अपनी ममेरी बहन को भगा लाये। भीम अपनी मौसेरी (शिशुपाल की बहन) को। इन लोगों ने सब धर्म-कर्म भ्रष्ट कर दिया।
मुझे क्षुब्ध देखकर खट्टर काकाकहने लगे - सोचकर देखो तो पांडवों का मूल ही भ्रष्ट है। पांडवाः जारजाताः।
पाडंवों के पिता पांडु स्वयं अपनी पत्नियों (कुंती,माद्री) से पुत्र उत्पन्न करने में असमर्थ थे। अतएव पाँँच देवताओं को आवाहन कर पंचपांडवों की उत्पत्ति करायी गयी। अजी, इससे तो पांडु निःसंतान ही मर जाते, सो अच्छा था। जिसे सौ भतीजे हों, उसे वंश बढाने की इतनी लालसा क्यों? और सो भी दुसरो के भरोसे! यदि पांडु भी भीष्म की तरह संतोष कर लेते, तो राजगद्दी के लिए झगड़ा ही नहीं उठता। धृतराष्ट्र के पुत्र राष्ट्र को धारण किये रह जाते। लेकिन पांडु की आँँखों पर तो पीलिया छाया हुआ था। उनके जारज पुत्रों ने कुल को भसा दिया।
मैंने देखा कि खट्टर काका पांडवों पर लगे हुए हैं। मैं उनके साथ क्या बहस करता? पुनः स्तोत्र पढने लगा-
अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा
पंचकन्याः स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम
खट्टर काका फिर टोक बैठे - अहल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती, मंदोदरी- ये पाँँचों तो शादीशुदा थीं। तब पंचकन्या क्यों कहते हो? और उन्हें प्रातःस्मरणीया क्यों समझते हो?
मैंने कहा-वे प्रतिव्रता थीं।
खट्टर काका बोले - इनमें कौन पतिव्रता थी? अहल्या ने ऎसा कर्म किया कि पाषाणी हो गयी। तारा और मंदोदरी अपने देवरों की अंकशायिनी बनीं। और कुंती- द्रौपदी की तो बात ही निराली है।
पंचभिः कामिता कुंती पंचभिः द्रौपदी तथा
सतीति कथ्यते लोके यशो भाग्येन लभ्यते ।
(सुभाषित)
सास ने पाँँच का तोष रखा तो फिर बहू क्यों पीछे रहती ? यह भी पाँँच की दुलारी बनकर रही ।
अजी, द्रौपदी निरंतर पतियो को ताश की पत्ती की तरह बदलती रही । स्वयं लालपान की बीबी बनकर पतियों को गुलाम बनाए रही । वह पति के कंधे पर चढकर चलनेवाली पत्नी थी । एक बार वन मे चलते-चलते गिर गयी तो युधिष्ठिर रोने लग गये -
किमिदं द्यूतकामेन मया कृतमबुद्धिना
आदाय कृष्णां चरता वने मृगगणायुते
शेते निपतिता भूमौ पापस्य मम कर्मभिः ।
(म० व०)
"छिः ! मैं कैसा मुर्ख निकला कि जुए के फेर मे पड़कर आज ऎसी सुकुमारी राजकन्या को लेकर जंगली जानवरों के बीच वन मे भटक रहा हूँँ । मेरे ही पाप के फल से बेचारी भूमि पर पड़ी हुई है ।"
भीम,नकुल उसे गोद मे उठाकर ले चलने को तैयार हो गये । एक पत्नी होकर रहती तो ऎसी खाति होती ? पंच-पत्नी ने प्रत्येक पति से एक-एक पुत्र प्राप्त किया ।
मैने पूछा - क्या महाभारत काल मे स्त्रियों को इतनी अधिक स्वच्छन्दता थी ?
खट्टर कका बोले - इसमे क्या संदेह ? देखो -
सुषवे पितृगेहस्ता पश्चात पांडुपरिग्रहः
जनितश्च सुतः पूर्वं पांडुना सा विवाहिता ।
(देवी भागवत)
कुंती जब क्वाँँरी थी, तभी पुत्र-प्रसविनी हो चुकी थी । उनकी बहू पांचाली स्वयंवर में एक का वरण करने पर भी पंचपत्नी बनकर रही । कुंती की पौत्रवधू उत्तरा ने विवाह से सातवें महीने में ही पुत्र (परिक्षित) को जन्म दिया। अजी, बड़े घर की बड़ी बातें होती हैं। उन दिनों एक से एक प्रौढा राजकन्याऍं होती थीं, जो जानबूझकर अपना अपहरण करवाती थीं। अंबा, अंबिका, अंबालिका, तीनों परिपक्व कुमारियाँँ थीं। पूर्णयौवना सुभद्रा रैवतक पर्वत पर मेले से भगा ली गयी। शकुंतला और दमयंती का हाल जानते ही हो। शर्मिष्ठा और देवयानी छेड़खानियाँँ करने में आधुनिक युग का भी कान काट गयी हैं। वाणासुर की कन्या उषा ऎसी प्रबला निकली कि सोये हुए अनिरुद्ध को जबर्दस्ती अपने शयनागार में मँँगवाकर ......
अजी, कहाँँ तक गिनाऊँँ? इन्हीं लोगों के उपाख्यानों से तो महाभारत भरा हुआ है। काव्य-पुराण में सामान्य गृहणियों का वर्णन थोड़े ही रहता है?
मैंने पूछा - खट्टर काका, महाभारत से क्या शिक्षा मिलती है?
खट्टर काका बोले-एक शिक्षा तो यही मिलती है कि-
स्त्रीषु दुस्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः
कुलक्षये प्रणश्यंति कुलधर्माः सनातनाः (गीता 1/40-41)
जब कुल की स्त्रियाँँ दूषित हो जाती हैं, तो वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं, और वे कुल का नाश कर देते हैं। जैसे पांडु के पुत्रों ने किया।
खट्टर काका बोले-उन्हें स्वयं पति ने भ्रष्ट किया। आजकल तो नियोजन का फैशन है। लेकिन उन दिनों नियोग की प्रथा थी। अर्थात, पुत्र-प्राप्ति के लिए पर-पुरुष से समागम करने का विधान था। क्योंकि उस समय सतीत्व-रक्षा से अधिक वंश-रक्षा का महत्त्व था। अपुत्रस्य गतिर्नास्ति। इसीलिए पांडु ने स्वयं अपनी पत्नियों को आज्ञा दी, बल्कि खुशामद की, कि किसी से पुत्र उत्पन्न करवाओ। देखो, वह कुंती को कैसे समझाते हैं!
पत्या नियुक्ता या चैव पत्नी पुत्रार्थमेव च
न करिष्यति तस्याश्च भविता पातकं भुवि (महाभारत आदि पर्व)
अर्थात् ,'पति के कहने पर जो भी स्त्री पुत्र-प्राप्ति के निमित्त पर-पुरुष से सिंचन नहीं करवाती, वह पाप की भागिनी होती है।' इतना ही नहीं, वह कई नजीरें भी पेश करते हैं-
उद्दालकस्य पुत्रेण धर्म्या वै श्वेतकेतुना
सौदासेन च रंभोरुः नियुक्ता पुत्रजन्मनि
एवं कृतवती साऽपि भर्त्तुंः प्रियचिकीर्षया
अस्माकमपि ते जन्म विदितं कमलेक्षणे । (महाभारत आदि पर्व)
और तो और, वह अपनी ही माता (अंबालिका) का हवाला देते हुए कहते हैं, कि 'मेरा (पाण्डु का) जन्म भी तो नियोग से ही हुआ है, सो तुम जानती ही हो!
अब ऎसी हालत में बेचारी कुंती या माद्री क्या करतीं? वे अपने पति की आज्ञा शिरोधार्य कर अपनी सास के चरण-चिन्हों पर चलीं।
मैंने पूछा-खट्टर काका, पांडु की माता ने ऎसा क्यों किया था?
खट्टर काका बोले-उन्होंने अपनी सास सत्यवती की आज्ञा से ऎसा किया था। देखो, सत्यवती अपनी पुत्रवधू को कैसी शिक्षा दे रही हैं!
नष्टं च भारतं वर्षं पुनरेव समुद्धर
पुत्रं जनय सुश्रोणि, देवराजसमप्रभम् (महाभारत आदिपर्व)
अर्थात, 'हे सुंदरी! भारतवर्ष नष्ट हो रहा है। उसका उद्धार तुम्हारे ही हाथों में है। किसी से इंद्र के समान तेजस्वी पुत्र जनमाओ।'
इतना ही नहीं, इस पुण्य कार्य के लिए एक सुयोग्य व्यक्ति (व्यास) की सिफारिश भी करती हैं। सो भी भीष्म से, जो अंबालिका के भसुर थे!
जब भीष्म कुंठित होने लगे, तब सत्यवती ने कुछ लजाते हुए विहँसकर कहा- तुम्हें एक रहस्य बता रही हूँ। जब मैं यौवन काल में मत्स्यगंधा नाम से विख्यात थी, तब एक बार पराशर मुनि मेरी नाव में आये थे। यमुना पार करने के लिए। मै भी उसी नाव पर थी। वह मुझे देखकर मोहित हो गये। लेकिन दिन के प्रकाश में लोगों के सामने अपनी इच्छा कैसे पूरी करते? तब उन्होंने योगबल से घना कुहासा उत्पन्न कर भोग किया, जिससे मुझे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह पुत्र व्यास के नाम से प्रसिद्ध है। तुम उन्हीं व्यास को बुलाकर ले आओ।
तव ह्यनुमते भीष्म नियतं स महातपाः
विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु पुत्रानुत्पादयिष्यति (महाभारत आदि पर्व)
"वही व्यास विचित्रवीर्य की विधवा पत्नियों (अंबिका, अंबालिका) के गर्भ से पुत्र उत्पन्न कर देंगे।"
मुझे मुँह ताकते देखकर खट्टर काका बोले- तब व्यास बुलाये गये। उन्हीं के वीर्य से पांडु और धृतराष्ट्र का जन्म हुआ। नियोग के समय अंबिका ने आँखें मूँद ली थीं, इसलिए उन्हें जन्मांध पुत्र हुआ। अंबालिका ने चंदन लेप कर लिया था, पांडु पुत्र हुआ। व्यास अंबालिका से अधिक संतुष्ट हुए। इसीलिए उन्होंने उसके वंशधरों (पांडवों) का इतना पक्ष लिया है।
मैंने पूछा - खट्टर काका, उतने बड़े ज्ञानी होकर भी व्यास व्यभिचार कर्म में कैसे प्रवृत्त हुए?
खट्टर काका बोले - देखो, आत्मा वैजायते पुत्रः। व्यास के पिता पराशर मुनि ने भी तो वही किया था!
मत्स्यगंधां प्रजग्राह मुनिः कामातुरः तदा (देवी भागवत)
कामातुर होकर मत्स्यगंधा को पकड़ लिया था। और, जब बेचारी मछुआइन कन्या डरते-डरते बोली-
पितरं किं व्रवीम्यद्य सगर्भा चेद् भवाम्यहम्
त्वं गमिष्यसि भुक्त्वा मां किं करोमि वदस्व तत्
'आप तो भोग करकेर चले जाइएगा और मुझे गर्भ रह गया तो अपने पिता से क्या कहूँगी? तब पराशर ने आशीर्वाद दिया था-
पुराणकर्ता पुत्रस्ते भविष्यति वरानने
वेदविद् भागकर्त्ता च ख्यातश्च भुवनत्रये (देवी भागवत)
अर्थात, 'तुम्हारे गर्भ से जो पुत्र होगा वह वेदों में पारंगत और पुराणॊं का कर्त्ता होगा।' वही पुत्र व्यास हुए। उनका जन्म द्वीप में हुआ था इसलिए द्वैपायन कहलाए।
द्वैपायन व्यास अपना पैतृक संस्कार कैसे छोड़ते? जब रनिवास की काम-कला प्रवीणा दासी ने उन्हें पूर्णतया संतुष्ट किया तो इन्होंने भी आशीर्वाद दिया कि "तुम्हारे गर्भ से
धर्मात्मा पुत्र (विदुर) उत्पन्न होगा। "
संतोषितस्तया व्यासो दास्या कामकलाविदा
विदुरस्तु समुत्पन्नो धर्मांशः सत्यवान शुचिः (देवी भागवत)
इसलिए, देखते नहीं हो, महाभारत में व्यस ने विदुर की कितनी बड़ाई की है! खट्टर काका ने एक चुटकी सुपारी का कतरा मुँह में रखा। बोले- देखो जी, व्यभिचार का परिणाम अच्छा नहीं होता। व्यास को भी तो पीछे जाकर पश्चात्ताप हुआ है।
व्यभिचारोदभवाः कि मे सुखदाः स्युः सुताः किल (देवी भागवत)
क्या मेरे ये व्यभिचारजात पुत्र कल्याणकारी होंगे?" अर्जुन के मन में भी तो आत्मग्लानि उत्पन्न हुई थी!
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः
उत्सद्यंते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः (गीता 1/43)
अजी एक बार कुल में दाग लग जाने पर जल्द नहीं मिटता। उसे धोने के लिए बहुत दिनों तक प्रायश्चित्त करना पड़ता है।
खट्टर काका फिर बोले- देखो जी, गतानुगतिको लोकः!
सत्यवती से अंबालिका ने सीखा, अंबालिका से कुंती ने सीखा, कुंती से दौपदी ने सीखा। इसी प्रकार विचित्रवीर्य के कुल में विचित्र परंपरा चल पड़ी और कुलवधुएँ दूषित होती गयीं। उनके वर्णसंकर पुत्रों ने जो कुलध्वंस किया, वह तो विदित ही है। महाभारत मनन करने की वस्तु है। उसमें क्या नहीं है? यन्न भारते तन्न भारते!
मैंने कहा - परंतु महाभारत के असली सूत्रधार तो श्रीकृष्ण थे।
खट्टर काका बोले- हाँ, उन्हीं के बल पर तो अर्जुन कूदते थे। जैसे, खूँटे के जोर पर बछड़ा कूदता है। धर्मयुद्ध होता तो पांडव लोग कभी नहीं जीतते। लेकिन छलिया कृष्ण ने वैसा नहीं होने दिया। महाभारत में आदि से अंत तक अधर्मयुद्ध हुआ है। कर्ण, द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, सबका वध तो अन्याय से ही किया गया है। फिर भी गीताकार कहते हैं-धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे! मुझे तो यह सरासर व्यंग जैसा मालूम होता है। व्यास ने कहा है-यतो धर्मस्ततो जयः। लेकिन महाभारत में यतो अधर्मस्ततो जयः हुआ। इसीलिए तो वह जय भी क्षय के रूप में परिणत हो गयी!
मैंने कहा - खट्टर काका, महाभारत का मूल कारण हुआ दुःशासन द्वारा चीरहरण।
खट्टर काका बोले-हाँ, दुःशासन ने एक चीरहरण किया, उस पर तो महाभारत मच गया, और कृष्ण ने उतना चीरहरण किया सो शुद्ध भागवत बनकर एह गया! परंतु कर्म का फल एक न एक दिन भोगना ही पड़ता है। जिन्होंने गोपियों के साथ उतना रास रचाया, उनकी स्त्रियों को भी अंत में अहीर लोग लूट कर ले गये। देखो-
कृष्णपत्न्यः तदा मार्गे चौराभीरैश्च लुंटिताः
धनं सर्वं गृहीतं च निस्तेजाश्चार्जुनोऽभवत् (देवी भागवत 2/7)
जब कृष्ण की पत्नियाँ द्वारका छोड़कर हस्तिनापुर जा रही थीं तो रास्ते में लूट ली गयीं और उनके संरक्षक अर्जुन मुँह ताकते ही रह गये! उस समय धनुर्धर का तेज कहाँ गया? अजी, काल गर्वप्रहारी होता है। किसी का घमंड रहने नहीं पाता।
खट्टर काका ने गहरी साँस ली। फिर बोले-नियति की अद्भुत लीला है। जिन्होंने जीवन भर उतने असुरों का वध किया, वह श्रीकृष्ण अंत में एक बहेलिये के तीर के शिकार हुए! हरि र्क पेड़ के नीचे हरिण के धोखे में मारे गये और उनकी राज-महिषियाँ मवेशी की तरह लूट ली गयीं! इसे विधि-विडंबना कहा जाय या कर्मविपाक?
श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में भाई-भाई को, सगे-संबंधियों को, आपस में लड़ाकर कुरुवंश का संहार करा दिया।
कुरुपांडवयुद्धं च कारयामास भेदतः
भुवोभारावतरणं चकार यदुनंदनः! (ब्रम्हवैवर्त)
लेकिन यदुनंदन को उसका फल क्या मिला? उनका अपना यदुवंश भी उसी तरह नष्ट हो गया। कुरुक्षेत्र का बदला प्रभासक्षेत्र में मिल गया।
पुत्राः अयुध्यन् पितृभिः म्रातृभिश्च
मित्राणि मित्रैः सुहृदः सुहृद्भिः (भागवत पुराण)
भाई-भाई, बाप-बेटा, सब इस तरह आपस में लड़कर मर मिटे कि वृष्णिवंश का विनाश हो गया। रहा न कोउ कुल रोवनहारा! अजी, विष-वृक्ष का फल विष ही होता है, अमृत नहीं।
खट्टर काका नस लेते हुए बोले-जो अन्याय करता है, सो अंत में गल ही जाता है। तभी तो पांडव लोग हिमालय में गल गये। युधिष्ठिर के साथ राजपाट तो गया नहीं, गया एक कुत्ता! भ्रातृ-विरोध से, नर-संहार से, क्या फल मिला? लेकिन तो भी तो हम लोगों की आँखें नहीं खुलती है।
भगवान् न करें कि भारत को फिर कभी उस तरह का महाभारत देखना पड़े!