पंडितजी आसन पर बैठे दुर्गा सप्तशती पाठ कर रहे थे - 'रूपं देहि जयं देहि, यशो देहि, द्विषो जहि
तब तक पहुँच गए खट्टर काका । बोले - पंडितजी क्या, देहि, देहि की रट लगाए हुए हैं ? विजय भी कहीं भीख माँगने से मिलती है ? स्वयमेव मृगेद्रता ! जो पराक्रमी होते हैं, उन्हे स्वयं विजय लक्ष्मी वरण करती है । आसन पर पलथा लगाकर सिर्फ देहि,देहि, जपने से क्या होगा ? इसी भिक्षुक मनोवृत ने तो देश को अकर्मण्य बना दिया ।
मैने पूछा - खट्टर काका, हम लोगों मे माँगने की यह प्रवृत्ति कैसे आ गयी ?
खट्टर काका बोले - देखो, यह रोग बहुत प्राचीन है । वैदिक युग से ही हम लोगों की जिह्वा पर 'द' अक्षर बैठा है । देहि, देही, देहि । सभी देवी-देवताओं से हम एक ही अक्षर का संबंध रखते आये हैं - दे । उपनिषद में भी आयी, तो द द द (दान, दया, दमन) का गुरुमंत्र लिए हुए !
श्रद्धया देयम् , अश्रद्धया देयम् ,
श्रिया देयम् , ह्रिया देयम् भिया देयम् ! (तैत्तरीय १ \११)
अजी, वेद और उपनिषद दोनो का अंत तो 'द' अक्षर से ही होता है । दर्शन भी तो 'द' अक्षर से ही आरम्भ होता है । हमारी संस्कृति ही दान पर आधारित है । जो हमें दान नहीं देते, उन्हे हम नादान समझते हैं ।
मैं - खट्टर काका, याचना तो निकृष्ट वस्तु है ।
ख० - हाँ, परंतु यहाँ आदि से ही भिक्षा की शिक्षा दी जाती है । उपनयन मे दीक्षित होते ही ब्रह्मचारी को मंत्र पढ़ाया जाता है- भिक्षां देहि । क्या वेदांती, क्या बौद्ध ! यहाँ जो भी आए, सो भिक्षु का बाना बनाए हुए । वे कर्म को तुच्छ समझकर भिक्षुक बनने में गौरव का अनुभव करने लगे । सम्पूर्ण देश मे भिक्षु-वृत्ति फैल गयी । वही संस्कार अभी तक हमें बना है । कभी इंन्द्र वरुण से माँगते थे । अब अमेरिका-रुस से माँगते हैं । अभी भी भिक्षा-पात्र लिए संसार के आगे खड़े हैं - अन्नं देहि !
उधर पंडितजी पोथी बाँचे जा रहे थे -
इत्थं यदा-यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
तदातदाऽवतिर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ॥
(इति श्लोक - जपे महामारी शान्तिः ) (सप्तसती माहात्म्य)
खट्टर काका ने मुझसे कहा - देखो, कैसे-कैसे उपाय अपने यहाँ के विशेषज्ञ बता गए हैं ! देश मे हैजा प्लेग हो, यह श्लोक पाठ कर दूर भगा दो । इसी पोथी में
स्वराज्य लेने का उपाय भी बताया गया है !
ततो वव्रे नृपः राज्यमिति मंत्रस्य जपे स्वराज्य-लाभः ।
(स० मा०)
अपने देश के नेताओं को यह बात मालूम रहती, तो इसी मंत्र के जप से भारत को स्वास्वाधीन कर लेते । बेकार इअतने लोग जेल गए !
अब पंडितजी से रहा नहीं गया । बोल उठे - आप तो व्यंग्य कर रहे हैं । परन्तु पाठ से क्या नहीं हो सकता ?
खट्टर काका बोले - पंडितजी, तब एक बात कीजिए । रोगान् ऽशेषान वाले श्लोक से पाठ कीजिए, ताकि मलेरिया-फलेरिया आदि समस्त रोग देश से भाग जाय । अपना देश आकंठ विदेश ऋण से डूबा हुआ है । तब क्यो न सभी भारतवासी मिलकर अनृणा अस्मि वाले श्लोक का सामूहिक पाठ कर देश को ऋणमुक्त कर दें ? और कांसोस्मि वाले श्लोक के जप से देश को एकबारगी समृद्धिशाली बना डालें ?
मैने पूछा - खट्टर काका, क्या ये सब बातें भी दुर्गा माहात्म्य मे हैं ?
खट्टर काका बोले - क्या नहीं है ? भिन्न-भिन्न श्लोकों के संपुट पाठ से भिन्न-भीन्न प्रकार के फल बताए गए हैं । स्त्री-प्राप्ति से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक !
उधर पंडितजी पाठ किए जा रहे थे -
पत्नी मनोरमा देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणीं दुर्गसंसार सागरस्य कुलोदभवाम् ॥ (अर्गला स्तोत्र)
खट्टर काका के होठों पर मुस्कान आ गयी । बोले मैं तो मानता हूँ कि पंडितानीजी ठीक दुर्गादेवी की तरह बन जायँ !
यो मे जयति संग्रामे यो मे दर्प व्यमोहति ।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्त्ता भविष्यति ॥
(दु० स०)
तब पंडितजी को असली दुर्गा से भेंट हो जाएगी !
फिर पंडितजी से रहा नही गया । बोले-क्या आप अर्गला और कील-कवच पाठ को निरर्थक समझते हैं ? देखिए -
अर्गलं दुरितं हन्ति कीलकं फलदं भवेत् ।
कवचं रक्षते नित्यं चंडिका त्रितयं तथा ॥
अर्गला से पाप दूर होता है, और कील कवच से रक्षा होती है ।
खट्टर काका बोले - पंडितजी, ये सब अनर्गल बातें है । यदि सचमुच ही शत्रु से रक्षा करनी है, तो लोहे का कील-कवच तैयार करना चाहिए । यदि श्लोक से ही शत्रु भाग जाते, तो यहाँ विदेशी राज क्यों होता ? यदि यज्ञ-जाप से दुःख दारिद्र्य दूर हो जाता तो, इअतना ओम् और होम होने पर भी देश की ऎसी दूरवस्था क्यों रहती ?
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
सो उद्यम तो आप लोग करेंगे नहीं । एक भानुमति की पिटारी आपको चाहिए, जिसमे बैठे-बैठे धन-धान्य, सुख, संतति, आरोग्य, मोक्ष सबकुछ एक साथ मिल जाय ! अगर एक मकड़ा भी घाव कर दे, तो चाहेंगे कि इसी दुर्गापाठ से छुट जाय !
मैने पूछा - क्या यह भी दुर्गा-माहात्म्य में लिखा हुआ है ?
ख० - हाँ, देख लो ।
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः । (कवच स्त्रोत्र)
मैं - खट्टर काका ऎसी बातें क्यों लिखी है ?
खट्टर काका बोले - अजी, हम लोगों को मनमोदक खाने का अभ्यास है । अन्यान्य देशों में जिन वस्तुओं को लोग बाहुबल से अर्जित करते हैं, उन्हें हम बैठे-बैठे मंत्रबल से प्राप्त करना चाहते हैं । वे लोग पाताल गंगा से पानी खींचकर पटाते हैं । हम लोग आकाश-गंगा पर टकटकी लगाए जप करते रहते हैं । इसलिए जहाँ वे लोग वरुण को अपने अधीन कर कुबेर बन गए हैं वहाँ हम लोग इंद्र पर निर्भर रहकर अनावृष्टि का रोना रोते हैं । दुर्भिक्ष होने पर दुर्गाजी को गोहराने लगते हैं -
दारिद्र्यदुःख भयहारिणि का त्वदन्या !
पंडितजी फिर बोल उठे - तब आप गुर्गा पाठ को व्यर्थ समझते हैं ?
खट्टर काका ने कहा - पंडितजी, यही तो मेरी समझ मे नहीं आता कि आखिर इस तरह पाथ करने से फल क्या है ? मान लीजिए दुर्गाजी की कथा इतिहास ही है । परन्तु इतिहास भी ति जपने की वस्तु नहीं है । एक बार पढकर समझ लीजिए कि, इस प्रकार चंड-मुंड, शुंभ-निशुभ,रक्तबीज और महिषसुर का बध हुआ । उससे कुछ शिक्षा मिले तो ग्रहण कीजिए ; जीवन मे चरितार्थ कीजिए । लेकिन इन सात सौ श्लोकों को हजार बार या लाख बार जपने से क्या लाभ ? सो भी तुफान मेल की तरह । जैसे वच्चे पहाड़ा रटते हो ।
पंडितजी बोले - तब जप का माहत्म्य देखिए -
जकारो जन्मविक्षेदः पकारः पापनाशकः ।
जन्मपापहरो यस्मात् जप इत्यभिधीयते ॥
जप करने से जन्मजन्मान्तर का पाप कट जाता है ।
खट्टर काका बोले - यदि श्लोक ही प्रमाण, तो मैं भी खट्टर पुराण का वचन कहता हूँ -
जकारो जल्पना नाम पकारः पाठ उच्यते ।
वृथा जल्पमयः पाठः जप इत्यभिधीयते ॥
'ग' से गद्य और 'प' से पद्य का आनन्द ! तब शुष्क जप को छोड़कर सरस गप ही क्यों न हो ?
पंडितजी बोले - आप तो हँसी करते हैं । लेकिन दुर्गा नाम का रहस्य देखिए -
दैत्यनाशार्थवचनो दकारः परिकीर्तितः ।
उकारो विघ्ननाशश्च वाचको वेदसम्मतः॥
रेफो रोगघ्नवचनो गश्च पापघ्नवाचकः ।
भयशत्रुघ्नवचनश्चाकारः परिकीर्त्तितः ॥
(मुण्डमालातंत्र)
'द' से दैत्यनाश, 'उ' से विघ्ननाश, 'र' से रोगनाश, 'ग' से पापनाश, 'आ' से शत्रुनाश होता है ।
खट्टर काका बोले - पंडितजी, यह सब वच्चों का खेल है । किसी भी नाम का अक्षरार्ध जैसा मन मे आवे बैठा दीजिए । यदि उस श्लोक मे दकारः की जगह मकारः कर दिया जाय, तब क्या आप मुर्गा-मूर्गा जपने लग जायँगे ?
पंडितजी बोले - जप अपने मन से यों थोड़े ही किया जाता है ? उसका विधान है -
दिवा लक्षं शुचिर्भुत्वा हविष्याशी जपेन्नरः ।
तदन्ते हवनं कुर्यात् प्रतिश्लोकेन पायसैः ॥
(शतचंडीविधि)
हविष्य भोजन करने पर जप होता है । श्लोक-पाठ के साथ पायस से हवन किया जाता है ।
खट्टर काका बोले - ये सब श्लोक खीर खाने के लिए बनाए गए हैं । तर माल की आशा पर ही माला पर अँगुलियाँ फिरती है ।
तब तक बलिप्रदान के लिए एक बकरा आ गया । पंडितजी ने कहा - अब इसको स्नान कराकर, पुष्पमाला पहनाकर, जय जगदम्बा कर दीजिए ।
खट्टर काका बोले - पंडितजी ! बेचारे बकरे ने क्या कसूर किया है, जो इसका बध करबा रहे हैं ? जो संपूर्ण जगत की माता हैं, वह क्या इस छागड़ की विमाता हैं ? जिनको मांस खाना हो, यों ही काटकर खा लें । झूठ-मूठ काली माता को क्यो कलंकित करते हैं ? जिन्हे आप सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता कहकर स्तुति करते हैं, उनके नाम पर ऎसी नृशंसता क्यों करते हैं ? क्या बलिदान की बकरा सर्व की सीमा से बाहर है ?
पंडितजी बोले - आप नास्तिक की तरह तर्क करते हैं । देखिए स्वयं देवी की आज्ञा है -
बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे ।
सर्व ममैतच्चरित मुच्चार्य श्राव्यमेव च ॥ (मार्कंडेय पुराण)
इसलिए उनकी पूजा के साथ बलिप्रदान होता है ।
खट्टर काका ने कहा - पंडितजी, बलिदान तो पशुत्व का होना चाहिए । उसके बदले पशु का ही बलिदान कर देते हैं ! और पशु भी कैसा, तो निरीह ! यह कहाँ का न्याय है ?
पंडितजी बोले- शाक्त संप्रदाय में ऎसा ही होता है। शक्तिपूजा का रहस्य जानना हो, तो मंत्र देखिए। भगवती के अनंत रुप हैं। कहीं काली, कहीं गौरी, कहीं तारा, कहीं श्यामा, कहीं चंडी, कहीं चामुण्डा! विविध प्रकार से उनकी आराधना की जाती है। ये सब गुह्य विषय हैं।
खट्टर काका ने कहा- पंडितजी, आप लोगों की ये ही गुह्य बातें मेरी समझ में नहीं आती। जो कहना हो साफ-साफ क्यों नहीं कहते?
पंडितजी बोले- सभी रहस्य सबको नहीं बताये जाते। देखिए-
विद्याः समस्ताः तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकलाः जगत्सु।
संसार में जितनी स्त्रियाँँ हैं, सब में देवी का अंश है। लिखा है-
चांडाली च कुलाली च रजकी नापितांगना
गोपिनी योगिनी शूद्रा ब्राह्मणी राजकन्यका
शक्तयः परमेशानि विदग्धाः सर्वयोषितः (रेवती तंत्र)
ब्राह्मणी से लेकर चांडाली तक, राजकन्या से लेकर धोबिन तक, सभी स्त्रियाँँ शक्तिस्वरुपा हैं।
कामदा कामिनी कामा कांता कामांगदायिनी। (कामाख्या तंत्र)
विशेषतः कुमारी कन्या तो साक्षात भगवती है। इसीलिए 'कुमारी-पूजन' का इतना महत्त्व है। देखिए, कुमारीतंत्र और बालतंत्र में....
खट्टर काका बोले- पंडितजी, 'कुमारी' और 'बाला' का नाम तो आप बार-बार लेते हैं, लेकिन वृद्धातंत्र का नाम एक बार भी नहीं लेते ! क्या देवी का अंश केवल नवयौवनाओं में ही रहता है ? देवी का ध्यान तो ऎसे ही किया जाता है । देखिए कहा गया है -
नव तरुणशरीरा मुक्तकेशी सुहारा
शवहृदि पृथुतुंगस्तन्ययुग्मा मनोज्ञा ।
अरुणकमलसंस्था रक्तपेद्यासनस्था
शिशुरविसमवस्त्रा सिद्ध कामेश्वरी सा ॥
(कालिका पुराण)
कामेश्वरी भगवती सदा नवतरुणी के रूप में रहती है । वह लाल फूल, लाल वस्त्र से प्रसन्न होती हैं । इसलिए कहा गया है -
नारीं च रक्तवसनां द्रष्ट्वा वदेत भक्तितः । (कुलार्णव तंत्र)
रक्तवसना नारी को साक्षात भगवती का रूप समझकर भक्तिपूर्वक वंदना करनी चाहिए ।
खट्टर काका मुस्कुरा उठे । बोले- पंडितजी, यह आपने अच्छा बता दिया । तब तो कोई लाल साड़ी-चोलीवाली कहीं मिल जाय तो उसकी नवधा भक्ति करनी चाहिए ?
श्रवणं कीर्तनं चैव स्मरणं पाद सेवनम् ।
अर्चनं पूजनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
मगर उसी बीच में कहीं उसका बाप-भाई आ गया तो ?
पंडितजी बोले - आप तो हर बात को हँसी में उड़ा देते हैं । किंतु धार्मिक विषयों में परिहास नहीं करना चाहिए ।
पंडितजी की भक्तिपूर्वक श्लोक पढ़ने लगे -
दुर्गा दुर्गेति दुर्गेति दुर्गानाम हि केवलम्
यो जपेत् सततं भक्त्या जीवन्मुक्तः स मानवः ।
(मार्कंडेय पुराण)
खट्टर काका बोले - पंडितजी, यदि आपका लड़का सब काम-धाम छोड़कर घर में बैठ जाय, और केवल माई, माई, माई' जपने लग जाय, तो पंडितानीजी को कैसा लगेगा ? क्या उन्हे प्रसंन्नता होगी या अपने किस्मत को रोयेंगी कि कैसा निकम्मा कपूत पैदा हुआ ? क्या जगज्जननी में उतनी भी बुद्धि नहीं है, जितनी साधारण माता को होती है ?
पंडितजी बोले - वह साधारण स्त्री थोड़े ही हैं ! वही माता सभी संकटों से हमारी रक्षा करनेवाली है । इसलिए हम उनकी प्रार्थना करते हैं ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते । (दु० सप्तशती)
खट्टर काका बोले - पंडितजी! एक लड़का था, मतादीन। वह बड़ा हो जाने पर भी माँ पर ही निर्भर रहता था। जहाव किसी से झगड़ा हो कि "मैया से कह देंगे!" कहीं मारपीट हो तो माँ के आँचल में छिपकर कहता था, "अब आओ तो जानें!" मुझे तो आप लोग जैसे दुर्गामाता के भक्त भी मातादीन के समान ही प्रतीत होते हैं!
पंडितजी बोले-हम लोग जगज्जननी के बच्चे तो हैं ही ।
खट्टर काका बोले-पंडितजी, बचपन में जननी के दूध से शक्ति मिलती है। इसका यह अर्थ नहीं कि हम आजीवन स्तनपायी शिशु की तरह छठी का दूध ही पीते रहें। पंडितजी पुनः स्तुति करने लगे-
शूलिनी वज्रिणी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा
शंखिनी चापिनी वाणा भुशुंडी परिघायुधा
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चांबिके
घंटास्वनेन नः पाहि चापज्यानिखनेन च (दुर्गा स्तोत्र)
खट्टर काका से नहीं रहा गया। मुस्कुराकर बोले-पंडितजी! शूल, वज्र, गदा, चक्र, धनुष, वाण, तलवार, सभी अस्त्र-शस्त्र तो आपने देवी को ही धरा दिये। स्वयं अपने हाथ में क्या रखेंगे? चूड़ियाँ?
उधर पंडितजी का पाठ जारी था-
स्तनौ रक्षेत् महादेवी मनःशोक विनाशिनी
नाभौ च कामिनी रक्षेत् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा
रोमकूपेषू कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा
शुक्रं भगवती रक्षेत् जानुनी विंध्यवासिनी (दुर्गाकवच स्तोत्र)
खट्टर काका भभाकर हँस पड़े। बोले-पंडितजी, आपने अच्छा कवच बना रखा है! अंग-प्रत्यंग की रक्षा का भार देवियों को सौंप दिया है । सबको अलग-अलग अंग बाँट दिए हैं । स्तन महादेवी को और नाभि कामिनी को ! गुह्येश्वरी गुह्यांग की रक्षा करेंगी और कुमारी रोमावली की ! घुटने विंध्यवासिनी देवी के संरक्षण मे रहेंगे और धातु भगवती के ! धन्य हैं महराज ! आप लोगों सा स्त्रैण पृथ्वी पर नहीं मिलेगा ।
मैने पूछा - खट्टर काका, तो शक्तिपूजा में आपकी आस्था नहीं है ?
खट्टर काका बोले - अजी, शक्तिपूजा हमलोग करते ही कहाँ हैं ? असली शक्तिपूजा करते हैं करते हैं वे देश, तो आकाश-पाताल को वश में किए हुए हैं । हम लोग तो केवल स्वाँग करते हैं । मिट्टी की महिषासुर-मर्दनी बनाकर ! दैत्यों के पुतले जलाकर । लेकिन वास्तविक वीर मिट्टी के शेर से नहीं खेलते । नकली राक्षस को नहीं मारते ।
मै - खट्टर काका, कुछ भी हो । दुर्गा देवी हैं तो हमारी ही । हम अनादि काल से उनकी आराधना करते आये हैं ।
खट्टर काका बोले - यहीं तो भूल है । दुर्गा, लक्ष्मी या सरस्वती किसी का पोस नहीं मानती । मंदिर मे पट बन्दकर, धूप,आरती और नैवेद्य का लोभ देकर कोई उन्हे वश में नहीं रख सकता । दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती, तीनो पश्चिम गयीं । जो उनकी अनवरत साधना में लीन हैं, उन्हे छोड़कर वे हमारी कैसे होंगी ? इसलिए लाख सिन्दूर,अँचरा और महाप्रसाद का प्रलोभन देने पर भी वे हमारी ओर नहीं ताकतीं । क्यों ताकेंगी ? निरीह अजापुत्र पर पराक्रम दिखाने मे हीं जिनकी वीरता निःशेष हो जाय, उन्हे सिंहवाहिनी क्यों पूछेंगी ? नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः !
मैने कहा - खट्टर काका, कल विजयादश्मी है ।
खट्टर काका बोले - विजय ति हम लोग जो कर रहे हैं, सो हमी जानते हैं । हाँ, विजया (भँग) का सेवन अलबत्ता कर सकते हैं ! दसो इन्द्रियाँ शिथिल हो जाय, तभी तो दशहरा नाम सार्थक !
पंडितजी बोले - तब आपका अभिप्राय है कि दुर्गापाठ बन्द कर दिया जाय ?
खट्टर काका बोले - नहीं, पंडितजी, दुर्गा कवच का एक श्लोक ऎसा है जो हम लोगों को निरंतर स्मरण रखना चाहिए ।
पंडितजी ने पूछा - वह कौन सा श्लोक है ?
पंडितजी ने पूछा - वह कौन सा श्लोक है ?
खट्टर काका ने कहा -
या देवी सर्व भूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥