खट्टर काका आनंदपूर्वक भैरवी गुनगुना रहे थे।
मैंने कहा-खट्टर काका, निमंत्रण है।
खट्टर काका उल्लसित होकर बोले-अहा! निमंत्रणोत्सवाः विप्राः ! किस उपलक्ष्य में खिलाओगे ?
मैंने कहा-आज एकोद्दिष्ट के उपलक्ष्य में ब्राह्मण भोजन है।
खट्टर काका बोले-वाह! सुंदर! यही तो अपने देश की विशेषता है । पृथ्वी पर और किसी देश में ब्राह्मण भोजन नहीं होता। केवल इसी धर्मप्राण देश में होता है। इसी से भगवान् के सभी अवतार इसी पुण्यभूमि में हुए हैं!
मैंने पूछा - खड्टर काका, अपने यहाँ ब्राह्मण-भोजन का इतना महत्त्व क्यों है ?
खट्टर काका बोले - इसलिए कि हम लोग ब्रह्मा के मुँह हैं ब्राह्मणोहस्य मुखमासीत! जो लोग हाथ-पाँव हैं, वे सब काम करें। इसीलिए क्षत्रिय-भोजन या वैश्य-भोजन का विधान नहीं है।
भोजन और भजन पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। जब आदिपुरुष ब्रह्मा ही चार मुँह बाये प्रकट हुए, तो हम लोग उनके मुख्य आत्मज होकर अपने वंश की टेक कैसे छोड़ सकते हैं ?
मैंने कहा-परंतु यदि हम लोग सचमुच ब्रह्मा के मुँह से निकले हैं, तो वह ब्रह्म-तेज कहाँ है ?
खट्टर काका बोले-तेज है उदर कुंड में। देखो, उपनिषद् में कहा गया है -
बैश्वानरः प्रविशति अतिथिद्र्रणो ग्हम् (कठोपनिषद् 117)
अर्थात्, “ब्राह्मण देवता अग्निस्वरूप हैं। अतिथि रूप में आते ही उन्हें पर्याप्त समिधा मिलनी चाहिए। जो मूर्ख उन्हें यधेष्ट भोजन नहीं कराएगा उसके बाल-बच्चों और मवेशी की खैरियत नहीं!"
इष्टपूते पृत्रपशृश्च सर्वान् एतद् बृंक्ते पुरुषस्य
अल्पमेधस: यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणों ग्रहे (कटोपनिषद् 118)
बुभुक्षित ब्राह्मण की सद्य: इच्छापूर्त्ति नहीं होने पर जठराग्नि का तेज जिह्ना के मार्ग से शाप के रूप में प्रकट हो जाता है, जिसमें भस्म कर देने की शक्ति रहती है। मुझे मुँह ताकते देखकर खट्टर काका बोले-देखो, ब्रह्म और ब्राह्मण एक ही धातु से बने हैं। ब्रह्मांड और ब्रह्मोदर दोनों सहोदर हैं। दोनों विशाल, दोनों गोलाकार, दोनों अपरंपार! उसी ब्रह्मोदर को भरने के लिए इतने धर्मशास्त्र बनाये गये हैं। वैदिक युग से ही फलफूल मिठाई लेकर ब्राह्मण देवता की पूजा होती आयी है। देखो -
इममोदन निदधे ब्राह्मणेषु लोकमितं स्वर्यम्
ब्राह्मण देवता मधुर के अनन्य प्रेमी होते हैं।
अनशाकप्रिय: शूद्रः वैश्यो दुग्धदधिप्रिय:
मत्यमांसप्रिय: क्षत्री ब्राह्मणों मधुरप्रियः
पिष्टान्न (सत्तू) और भष्टान्न (चबेना) तो धृष्टान्न है। विशिष्टान्न है मिष्टान्न वही हम लोगों का इष्टान्न है। उपजावे कोई, लेकिन भोग लगाने के समय पहले हमीं आगे रहेंगे। अग्रे अग्रे विप्राणाम्!
मैं - ऐसा क्यों, खट्टर काका ?
खट्टर काका - क्योंकि हम लोग विप्र अर्थात् उपसर्ग मात्र हैं। उपसर्ग तो धातु के पहले ही लगता है। इसीलिए हम लोग सबसे आगे रहते हैं। विशेषतः भुज् धातु में।
मैं - खट्टर काका, आप तो हर बात में विनोद की सृष्टि कर देते हैं। मगर कुछ लोग हँसते हैं कि ब्राह्मण का पेट कभी नहीं भरता। 'हाथ सूखा, ब्राह्मण भूखा।' ऐसा क्यों ?
खट्टर काका मुस्कुरा उठे। बोले - देखो, एक बार एक ब्राह्मण (भृगु) ने क्रोधवश लक्ष्मी के स्वामी के पेट पर लात मार दी थी। इसी से लक्ष्मी भी ब्राह्मणों से रुष्ट होकर उनके पेट पर लात मारती आ रही हैं। यह तो धन्य उनकी सौत सरस्वती, जिनकी कृपा से हम लोग लक्ष्मीवाहनों से झींटते आ रहे हैं!
श्रमजीवी भवेत् शूद्र: धनजीवी कृषी वणिक्
बलजीवी भवेत् क्षत्री बुद्धिजीबी हि ब्राह्मण:
जहाँ और-और लोग हल-कुदाल लेकर खेती करते आये हैं, वहाँ ब्राह्मण केवल बुद्धि की खेती करते आ रहे हैं। इसी बुद्धि के प्रसाद से हमारे पूर्वजों ने भोजन की समस्या को जिस प्रकार हल किया, सो भी बिना हल के, वैसा आज तक कोई नहीं कर सका है । यजमानों का काम बैलों से चलता था। ब्राह्मणों का काम यजमानों से ही चल जाता था। तब वे बैल क्यों पोसते ?
मैंने पूछा-खट्टर काका, ब्राह्मण के बिना तो यजमानों का कोई भी धार्मिक कृत्य नहीं हो सकता। प्रत्येक मास में किसी-न-किसी तिथि में ब्राह्मण-भोजन होता ही है ।
खट्टर काका बोले-अजी, मास ही तो हमारे लिए मास मिलकीयत है । तिथि है अतिथि बनने के लिए! आशिवन में पितृपक्ष हो या देवी पक्ष, दोनों हाथ लड्डू! कार्त्तिक में अन्नकुट ही मचा रहता है। अग्रहण में नवान्न भोजन! चौठ को चंद्रमा के नाम पर! पष्टी को सूर्य के नाम पर! एकादशी को विष्णु के नाम पर! चतुर्दशी को महादेव के नाम पर! अमावस्या हो, या पूर्णिमा, दोनों में चकाचक! ऐसा परमुंडे फलाहार करने की बुद्धि और किसमें है ?
मैंने कहा-परंतु इतने ब्रत-उपवास के जो नियम हैं ?
खट्टर काका बोले - अजी, मैं तो व्रत का अर्थ समझता हूँ--वृणोति विशिष्ट भोजनम् इति व्रतम् । अर्थात्, हलुआ, पूड़ी, खीर, पुआ, राबड़ी, मिठाइयाँ जैसे भोज्य पदार्थों का वरण करना ही ब्रत है। उपलक्ष्य चाहे जो हो, लक्ष्य है मधुर भोजन और, विशेष भोज्य पदार्थों के लोभ में सामान्य भोज्य पदार्थ (रोजमर्स दाल-रोटी) का त्याग कर उदर-दरी को रिक्त रखना ही उपवास है। वराहोपनिषद् में कुछ शब्दों का हेर-फेर कर यों कहा जा सकता है कि-
उप समीपे यो वासः मधुक्षीरपुताशया
उपवास: स विज्ञेयः न तु कायस्य शोषणम्
मैंने कहा-खट्टर काका, व्रत-त्योहार तो धर्म के लिए किये जाते हैं। देखिए, अपने यहाँ की स्त्रियाँ कितनी निष्ठा से उपवास करती हैं!
खट्टर काका को हँसी आ गयी । बोले-अजी, ब्राह्मण देवता कम चालाक नहीं थे। पर्व करनेवाली स्त्रियाँ कहीं पहले स्वयं भोग नहीं लगा लें, इसलिए कठोर से कठोर नियम बनाकर उनके मुँह पर ताला लगा गये हैं।
अनाहारात् शूकरी स्यात् फलभक्षे तु मर्कटी
जलपाने जलौका: स्यात् पय-पाने भुजंगिनी (हरतालिकाब्रत कथा)
अर्थात, “स्त्री व्रतकाल में अन्न खा ले, तो सूअरनी होकर जन्म लेगी, फल खा ले, तो बंदरनी होकर। जलपान करने से जोंक और दूध पी लेने से सॉपिन ।” ऐसा डरा दिया कि बेचारी के प्राण सूंख गये। क्या मजाल कि तीज करनेवाली एक घूँट पानी भी पी ले! पकवान बनानेवाली तो तीन शाम भूखी रहकर गोबर-गोमूत्र लेकर पारण करे
और पकवानों पर हाथ फेरने के लिए ब्राह्मण देवता पहले से ही हाथ-पौंव धोकर तैयार! कहीं उपवास करने के डर से व्रत रखना ही न बंद हो जाय, इसका रास्ता भी वे बना गये हैं -
उपवासाञसमर्थश्चेत एक॑ विप्रंच. भोजयेत
तावदन्नानि वा ददयात यदभुक्त वा दिगुणं भवेत (ब्रह्मवैवर्त)
यदि यजमान किसी कारण से उपवास करने में असमर्थ हो, तो ब्राह्मण को भोजन करा दे अथवा उसके घर पर भोज्य-सामग्री भेज दे। उपवास करने का द्विगुण फल मिल जाएगा।
खट्टर काका सुपारी काटते हुए बोले - अजी, जब सोमवारी व्रत में रित के झुंड को पीपल के चारों ओर परिक्रमा करते देखता हूँ, तो उन्हें कोल्हू के बैलों की तरह घूमते देखकर दया आ जाती है। अजी, इतना द्वाविड़ प्राणायाम कर नाक छूने की क्या जरूरत ?
सीधे कहते-'दो'। मगर सीधी अँगुली से तो घी निकलता नहीं, इसलिए घुमाकर नाक पकड़ते हैं। माघ के जाड़े में यजमानिनी प्रातःस्नान करे, और जेठ की गर्मी में निर्जला एकादशी! पंडित लोग स्त्रियों को ऐसा साधे हुए हैं कि क्या सरकसवाले अपने जानवरों को साधेंगे ? और यह सब इसलिए कि इनकी अपनी पाँचों अँगुलियाँ घी में रहें! चार्वाक ने ऋण कृत्वा घृतं पिबेत् कहा, तो नास्तिक कहलाया! और, जिन लोगों ने छल॑ कृत्वा घृतं पिबेत् किया, सो धर्म के ठेकेदार बने रहे!
मैंने कहा-खट्टर काका, ब्राह्मण-भोजन का फल भी तो बहुत है ?
खट्टर काका बोले-क्यों नहीं रहेगा? समाज में चतुर थे भूदेव! और लोग थे वोपदेव! मूर्खों की बस्ती में धूत्तों की बन आती है। वे धर्म का डंडा लेकर लोगों को हॉकने लगे। “आज देवता के निमित्त खिलाओ । कल पितर क॑ निमित्त खिलाओ । पुण्य करो, तो खिलाओ, पाप करो, तो खिलाओ।
शुभ हो, तो खिलाओ। अशुभ हो, तो खिलाओ। जन्म हो, तो खिलाओ । मृत्यु हो, तो खिलाओ ।” बेचारे यजमान को आजीवन कभी उसास नहीं । मुंडन. उपनयन, विवाह, द्विरागमन आदि के नाम पर ऐसा मूँड़ा जाने लगा कि बेचारे को दशकर्म करते-करते सभी कर्म हो गये ।
गर्भाधान से ही उसके गले में जो ऋणपत्र लटकता है, सो, चिता पर जाकर भी नहीं उतरता । मरने पर भी मृत्युकर चुकाना पड़ता है।
श्राद्ध-भोज के बिना गति नहीं। यजमान के घर में भले ही कुहराम मचा हो, भोजनभट्टों के आगे पत्तल बिछनी ही चाहिए!
दलालों को खिलाए बिना स्वर्ग का 'पासपोर्ट' नहीं मिल सकता! उनके पेट परलोक के पार्सलमैन हैं! हव्य, कव्य, गव्य, सब भर दीजिए, देवता-पितरों को पहुँच जाएँगे! इसी से तो मनुजी लिख गये हैं -
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः
कव्यानि चैव पितरः कि भ्रूतमधिक ततः (मनुस्मृति )
मैंने कहा - खट्टर काका, स्मृतियों में जो इतने शास्त्रीय कृत्य वणित हैं ? खट्टर काका बोले - अजी, सभी कृत्यों का सार एक ही है ।
“ब्राह्मणाय दद्यात् (ब्राह्मण को दान कर)।” अनदान, वस्त्रदान, गोदान, द्रव्यदान, शय्यादान, भूमिदान, वृक्षदान, फलदान, कन्यादान! ब्राह्मणों को कब क्या दान देना चाहिए, इसका मुसविदा भी तो ब्राह्मण ही बना गये हैं। जाड़े में कंबल और रजाई दान, गर्मी में पड़ा और पंखा दान ।
बरसात में छाता दान गौ ब्याये, तो पहला दूध ब्राह्मण को। आम फले, तो प्रथम फल ब्राह्मण को कहीं सोना मिल जाय, तो ब्राह्मण को दान कीजिए, और कहीं सोना खो जाय, तो भी ब्राह्मण को दान कीजिए। यह दुहरी मार! ब्राह्मणों के अपने ही हाथ में कानून था। जो-जो चाहा, बनाते गये ।
उनके सौ खून माफ ।। उन्हें चारों वर्णों की कन्याओं में विवाह का अधिकार वे सबसे लें, लेकिन उनका कोई नहीं ले! उनको दे, तो स्वर्गलोक जायगा, और उनका ले ले, तो हजारों वर्ष नरक में विष्ठा का कीड़ा बनकर रहेगा।' सभी धर्मशास्त्र तो ब्राह्मणों के ही बनाये हुए हैं। इसलिए सब जगह बसूले की ढार है।
जितने कर भूपति शस्त्र के द्वारा नहीं वसूल सके, उतने भूदेव शास्त्र के द्वारा वसूल गये हैं। इसीलिए कहा गया है-धिगू बल क्षत्रियबलं, ब्राह्मणस्थ बल बलम्!
मैंने कहा-खड्टर काका, आप एक ही पक्ष देखते हैं। ब्राह्मणों ने समाज का कितना कल्याण किया है! ब्रह्म जानाति ब्राह्मण:। समस्त विद्या तो उन्हीं की देन है। खट्टर काका बोले-अजी, ब्राह्मण यथार्थतः विद्या के पथ पर रह जाते, तो फिर कया रोना था ? मगर वे तो दंभ और लोभ के दलदल में फँस गये।
अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणों मामकी तनुः (मनुस्मृति)
“ब्राह्मण मूर्ख हो या विद्वान, वह भगवान् का अंश है।” जो ब्राह्मण के चरणोदक को भगवान् का चरणोदक नहीं समझेगा, उसे ब्रह्महत्या का पाप लगेगा।”
विप्रपादोदके चैव शालग्रामोदके तथा
यः करोति भेवबुद्धिं ब्रह्महत्यां लभेत सः। (दिवी भागवत)
यही जाति का दंभ और द्रव्य का लोभ ब्राह्मण को खा गया। यदि मस्तिष्क ही अपना संतुलन खो दे, तो शरीर की क्या अवस्था होगी? वही हालत समाज की हो गयी। जो पंडित थे, वे विद्या के नाम पर अविद्या-ठक विद्यां-चलाने लग गये। जनता को भेड़-बकरी की तरह दूहने लग गये । अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए यजमानों को कैसे-कैसे प्रलोभन दिये गये हैं, कैसे सब्ज-बाग दिखलाए गये हैं, सो देखो।
अनदानं च विप्रेभ्यः यः करोति च भारते
अनप्रमाणवर्ष च॑ शिवलोके महीयते
यो ददाति च॒ विप्राय दिव्यां धेनुं पयस्विनीम्
तललोममानवर्ष च विष्णुलोके महीयते
सालंकारां च भोग्यां च सकस्त्रां युन्दर्री प्रियाम्
यो ददाति च विप्राय चंद्रलोके महीयते ' (देवी भागवत )
अर्थात्, “जो ब्राह्मण को अन्नदान करेगा, वह जितने अन्न के दाने हैं उतने वर्ष शिवलोक में रहेगा। जो खूब दूध देनेवाली गाय ब्राह्मण को दान करेगा, वह गौ की देह में जितने रोएँ हैं उतने वर्ष विष्णुलोक में रहेगा। जो भोग करने योग्य सुंदरी कन्या को वस्त्र-भूषण समेत ब्राह्मण को दान करेगा, वह चंद्रलोक पहुँच जायगा ।” अजी, चंद्रमा पर पहुँचने का ऐसा नायाब नुसखा अमेरिका या रूस, किसी देश को मालूम है? मुझे चुप देखकर खट्टर काका बोले-लेने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाये गये हैं, सो देखो। बीमारियों पर भी टैक्स लगा दिये गये हैं!
बहुभोजनदानेन.. शूलरीगाबिमुच्यते
अनदानेन चार्शैभ्य: श्वासकासात् प्रमुच्यते
नेत्ररोगे घृतं दद्यात् गोदानं बहुमूत्रकेमेहे युवर्णानं च तथा मिष्टाननभोजनम्
गोभूमिं स्वर्णानं च कुष्ठरोगोपशान्तये (हारीत स्मृति)
अर्थात्, “शूलरोग से छुटकारा पाना हो, तो भोजन कराओ । बवासीर और सर्दी-खाँसी हो, तो अन्नदान करो। आँख की बीमारी में घी दान करो और बहुमूत्र में गोदान। प्रमेह की बीमारी हो, तो खूब मिठाई खिलाओ और अगर कहीं कुष्ठ-व्याधि हो तब तो फिर बात ही क्या? गौदान करो, भूमिदान करो, सोना दान करो।” मैंने कहा - खट्टर काका, क्या उस समय के लोग इतने सीधे थे कि ऐसी चालाकियों को नहीं समझ पाते थे ? खट्टर काका बोले-सीधे थे, तभी तो उनसे पितरों के नाम पर सत्तू तक वसूल किया जाता था। “संक्रांति में सत्तू दे दो, तो सभी पाप कट जायँगे!”
ददाति यो हि मेषादी सक्तूनम्बुघटान्वितान्
पिलृनुद्देश्य विप्रेभ्यः सर्वपापैर्विमुच्यते (दानदीपिका)
कुछ तो केवल पान-सुपारी पर भी इहलोक-परलोक दोनों की गारंटी दे देते थे!
यो दबद्यात् फलतांबूलं विप्राणां पादसेवने
इहलोके सुख तस्य परलोक ततोप्रधिकम् (ब्रह्मवैवर्त)
अजी, लेने के लिए एक-से-एक चालाकी की गयी है । बर्तन और पंखा तक झींटने के लिए मंत्र बना दिये गये हैं।
देखो, पंखा दान करने का मंत्र है -
व्यजन वायुदैवत्यं ग्रीष्मकाले सुखप्रदम
अत्य प्रदानात् सफला मम सन्तु मनोरथा: (दानदीपिका)
इसी तरह, काँसे का बर्तन दान करने का मंत्र है -
यानि पापानि काम्यानि कामोक्तानि कृतानि च
कांस्यपात्रप्रदानेन तानि नश्यन्तु मे सदा (संस्कार भास्कर)
मैंने कहा - खट्टर काका, ऐसे-ऐसे शलोक क्यों रचे गये हैं? खट्टर काका बोले-यजमानों को फुसलाने के लिए । अजी, वैसे अपनी दुधार गाय कोई क्यों उनको देता? इसलिए एक श्लोक बना दिया -
धैनुं च यो द्विजे दद्यात् अलंकृत्य पयस्विनीम्
कांस्यकस्त्रादिभियुक्तां स्वर्गनोके महीयते (मनुस्मृति)
बस, स्वर्ग के लोभ से यजमान लोग अपनी गायें लेकर ब्राह्मण के दरवाजे पर पहुँचाने लगे। ऐसा पक्का मुसविदा बना दिया गया है कि यजमान लोग गौ का ओढ़ना और दूहने के लिए बर्तन लाना भी नहीं भूलें । किसी महाब्राह्मण को उतने पर भी संतोष नहीं हुआ, तो उन्होंने गोदान में कुछ और चीजें भी जोड़ दीं। देखो, एक छोटा-सा अनुष्टुप् श्लोक बनाकर गागर में सागर भर दिया गया है!
हेमश्रंंगी रैप्यशफा सुशीला वस्त्रसंयुता
सकांस्य पात्रा दातव्या क्षीरिणी गौ: सदक्षिणा (गरुड़पुराण)
अर्थात्, “जो दुधार हो, सीधी हो, वस्त्रों से सुसज्जित हो, जिसकी सींगों में सोना और खुरों में चाँदी मढ़ी हो, ऐसी गौ बर्तन और दक्षिणा के साथ दान करो” एक तीर से सात शिकार! वाह रे हम लोगों के पूर्वज! मैंने कहा-खट्टर काका, मैं नहीं जानता कि धर्मशास्त्र में ऐसी-ऐसी बातें भी हैं। खट्टर काका बोले-तुम इतने ही में घबरा गये? देखी, यजमानों से सोना झींटने के लिए कैसे-कैसे उपाय रचे गये हैं!
पल्लीसरठयो: रूप॑ सुवर्णेन विनिर्मितम्
वस्त्रयुग्मेन संवेद्य ब्राह्मणाय निवेदयेत् (कृत्यमंजरी)
अर्थात्, 'छिपकिली या गिरगिट बदन पर गिर जाय, तो उसी आकार की सोने की मूर्त्ति बनवाकर ब्राह्मण को दान करो | सो भी जोड़ा वस्त्र में लपेटकर | तब जाकर दोष की शांति होगी। यों सोना लेने में चालाकी प्रकट हो जाती, इसलिए मूर्त्ति बनवाने का
ढोंग रच दिया। इसी तरह, अगर कहीं कौए को मैथुन करते हुए किसी ने देख लिया तो ब्राह्मण देवता को फीस अदा करे!
ब्राह्मणान् भोजयेत् पश्चात् शांतिवाचन पूर्वकम्
स्वर्णश्व॑गरैष्यखुरां कृष्णां धेनुं पयस्विनीम्
वस्त्रालंकारसंयुक्ता निष्कद्गघादशसंयुताम्
आचाययि श्रोत्रियाय तां गां दद्यात् कुट्रग्बिने (कृत्यमंजरी)
अर्थात्, “पहले ब्राह्मणों को भोजन कराकर खूब दूध देनेवाली श्यामा गौ दान करे, जिसकी सींगों में सोना और खुरों में चाँदी लगी रहनी चाहिए । साथ ही वस्त्र, अलंकार और बारह अशर्फियाँ भी दान करे।
तब जाकर काका मैथुन-दर्शन का दोष कटेगा।" मैंने कहा-खट्टर काका, यह तो हद हो गयी। खट्टर काका बोले - अजी, अभी बहुत बाकी है। सोना झींटने के लिए यहाँ मिट्टी के घड़े और पीपल के पेड़ के विवाह तक रचाये जाते हैं! कुंभ की पूजा में प्रार्थना करायी जाती है -
वरुणांगस्वरूप! त्वं जीवनानां समाश्रय
पतिं जीवय कन्याया: चिरं पुत्रान् सुखं वर। (व्यवहारमंजूषा)
और अंत में
कन्यालंकारबस्त्रादं ब्राह्मणाय निवेदयेत्
यजमान के दामाद और नाती चिरंजीवी रहेंगे या नहीं, सो तो बाद की बात है, लेकिन ब्राह्मण देवता को तत्काल स्वणभूषण हाथ लग जाते हैं। इसी तरह अश्वत्थ-पूजा में प्रार्थना करायी जाती है -
पूर्वजन्मकृतं पापं बालवैधव्यकारकम्
नाशयाशु युख॑ देहि कन्याया मम भूरूह!
और अंत में फिर वही असली मंत्र पढ़ाया जाता है -
सौवर्णी निर्मितां मूर्ति तुभ्य॑ संप्रददे द्विज!
“हे ब्राह्मण देवता! यह सोने की मूर्त्ति आपको समर्पित है!” अजी, जितने पूजा-पाठ, यज्ञ-जाप, तीर्थ व्रत हैं, सभी के अंत में यही पाठ पढ़ाया जाता है -
अमुकनामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणामहं ददे!
धर्मशास्त्रों के सभी राग इसी सम पर आकर गिरते हैं!
खट्टर काका ने मुस्कुराते हुए पूछा-हाँ, कितने-कितने ब्राह्मण जीमेंगे ? मैं - करीब पाँच सौ।
खट्टर काका - परंतु इतने ब्राह्मण आयेंगे कहाँ से ? मैं - अपने ही गाँव में हैं।
खट्टर काका - अजी, हम लोग तो नकली ब्राह्मण हैं।
मैं - तो फिर असली ब्राह्मण कहाँ हैं ?
खट्टर काका - असली ब्राह्मण हैं यूरप-अमेरिका में।
मैं - खट्टर काका, आपको तो हर बात में मजाक ही रहता है।
खट्टर काका - सच कहता हूँ। जो सत्यान्वेषी विद्वान् निरंतर विद्यार्चना में लगे रहकर एकांत साधना और अनवरत तपकश्चर्या के फलस्वरूप वैज्ञानिक तथ्यों का आविष्कार कर सभ्यता के एक-से-एक नवीन उपकरणों के द्वारा समाज का उपकार कर रहे हैं, मानव के कष्ट दूर कर रहे हैं, विश्व के कल्याण-चिंतन में लगे हुए हैं और आज हमें भूलोक से ऊपर उठाकर चंद्रलोक तक पहुँचा रहे हैं, वे ही यथार्थ ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी हैं। हम लोग तो केवल उदरंभरि: ब्राह्मण: पद को सार्थक करते हैं।
मैंने कहा - खट्टर काका, ऐसी-ऐसी बातें लोग सुनेंगे तो ब्राह्मण-भोजन भी उठा देंगे।
खट्टर काका एक चुटकी कतरा मुँह में देते हुए बोले--अजी, मैं क्या पागल हूँ, कि औरों के सामने ऐसी बातें बोलूँगा? और, एक के बोलने से ही क्या? ऐसी पक्की नींव डाली गयी है कि अपने देश में ब्राह्मण-भोजन कभी नहीं उठ सकता है। चार्वाक चिल्लाकर रह गये। हँसिया-हथौड़ावाले भी चिल्लाते रहे जायँगे।...हाँ, खिलाओगे क्या?
मैं - दही, चूड़ा (चिउड़ा), चीनी
खट्टर काका - बस, बस, बस मजा आ गया। गोरस में सबसे मांगलिक पदार्थ दही! अन्न में सबका चूड़ामणि चूड़ा! मधुर में सबका मूल चीनी! इन तीनों का संयोग समझो तो त्रिवेणी संगम है । मुझे तो त्रिलोक का आनंद इसमें मिलता है चूड़ा भूलोक! दही भुवर्लोक! चीनी स्वर्लोक!
मैंने देखा कि खट्टर काका अभी तरंग में हैं। सब अद्भुत ही बोलेंगे। इसलिए काम रहते हुए भी गप सुनने के लोभ से बैठ गया।
खट्टर काका बोले-अजी, मैं तो समझता हूँ कि दही चूड़ा चीनी से सांख्य दर्शन की उत्पत्ति हुई है।
मैंने चकित होते हुए पूछा-एँ! दही-चूड़ा चीनी से सांख्य ? सो कैसे ?
खट्टर काका बोले-मेरा अनुमान है कि कपिल मुनि दही-चूड़ा चीनी के अनुभव पर ही त्रिगुण की कल्पना कर गये हैं। दही सत्त्वगुण, चूड़ा तमोगुण, चीनी रजोगुण। देखो, असल सत्त्व दही में ही रहता है, इसलिए इसका नाम पड़ा सत्त्व' चीनी रजकण के समान होती है, इसलिए इसका नाम ?ज'। चूड़ा प्रथुल या स्थूल होता है, इसलिए (तम' चूड़ा रूक्ष और कोष्ठावरोधक होता है, इसलिए 'तम' को अवरोधक कहा गया है। तम का अर्थ होता है अंधकार पत्तल पर सिर्फ चूड़ा पड़े, तो आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है।
जब ताजा, मीठा, श्वेत दही उस पर पड़ जाता है, तब प्रकाश का उदय होता है। इसीलिए कहा गया है - “सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्टम्” अर्थात् दही लघुपाकी, प्रकाश देनेवाला और इष्ट यानी प्रिय होता है। और, बिना रजोगुण के तो क्रिया का प्रवर्तन होता ही नहीं।
इसलिए जब चीनी उस पर पड़ जाती है तब कर-मुख-व्यापार का प्रवर्त्तन होता है, अर्थात् भोजन प्रारंभ होता है। अब समझे ?
मैंने कहा-धन्य हैं खट्ट काका! आप जो न सिद्ध कर दें! खट्टर काका बोले-देखो, सांख्य मत से प्रकृति का प्रथम विकार है महत् या बुद्धि। दही, चूड़ा, चीनी से पेट फूल जाता है। यही 'महत्' अवस्था है। इसमें बुद्धि की बातें सूझती हैं। मगर सत्त्वगुण का आधिक्य होना चाहिए अर्थात्, दही ज्यादा होना चाहिए।
त्रिगुणात्रिका प्रकृति द्रष्टा पुरुष को रिझाती है । त्रिगुणाल्तक भोजन भोक्ता पुरुष को रिझाता है। इसीलिए कहा गया है -
ननृत्यन्ति भोजने विप्राः।
मैंने कहा-खट्टर काका, सांख्य दर्शन का ऐसा तत्त्व आपके सिवा और कौन कह सकता है ?
खट्टर काका बोले-यदि इसी प्रकार निमंत्रण देते रहो तो क्रमशः सभी दर्शनों के तत्त्व समझा दूँगा।
मुझे मुँह ताकते देख खट्टर काका बोले-देखो, आहार का विचार पर प्रभाव पड़ता है । कणाद ने कण खाकर अणुवाद की कल्पना की हम लोग भक्त (भात) खाकर आपस में विभक्त रहते हैं।
द्विदल (दाल) खाते हैं इसलिए सब जगह दो दल बनाकर रहते हैं। अजी, जो गुण कारण में रहेगा, वही न कार्य में प्रकट होगा ?
इसीलिए मैं कहता हूँ कि सामाजिक जीवन में मिठास लाना हो, तो खूब मिठाइयों का भोज करो। मैंने कहा-खट्टर काका, भोज में मिठाइयाँ भी रहेंगी।
खट्टर काका बोले-वाह, वाह, वाह! तब आज तीर्थ का फल मिल जायगा! देखो, मेरे एक भजनानंदी और भोजनानंदी मित्र गाते हैं-
कलाकंद काशी और पेड़ा है प्रयाग तुल्य
बुँदिया है वृंदावन, मथुरा मगदल है
अम्रती अमरनाथ, बालूशाही वैद्यनाथ,
बर्फी है बदरीनाथ, गजा गंगाजल है,
पूड़ी है पुरी और जलेबी जगननाथ-रूप
हलुआ हरद्वार, दही द्वारका विमल है
रसगुल्ला रामेश्वर, कुमारी है क्रीमचाप,
मिष्टान्न-भोज में समस्त तीर्थफल है!
हाँ, खिलाओगे कब? मैं - खट्टर काका, आप स्नान-पूजा कर तैयार रहिएगा।
खट्टर काका बोले - अजी, असली पूजा तो पत्तल पर ही होगी। मगर खिलाना कुछ देर से ही। मैं उपसर्ग-प्रत्यय लगाकर भोज में तीन बार का हिसाब चुकता कर लेता हूँ। क्योंकि हम लोग परानन को प्राण से भी अधिक दुर्लभ मानते हैं।
परानन॑ दुर्लभ लोके शरीराणि पुनः पुनः ।