सत्यनारायण

खट्टर कका के तरंग लेखक : हरिमोहन झा

खट्टर काका लस्सी का आनंद ले रहे थे।

मैंने कहा-खट्टर काका, आज मेरे यहा सत्यनारायण भगवान की पूजा है।

खट्टर काका बोले-सचमुच? लेकिन कहीं ऎसा न हो कि सत्य के नाम पर असत्य की .........

मैंने कान पर हाथ रखते हुए कहा- खट्टर काका, भगवान के साथ हँसी नहीं करनी चाहिए।

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले-भगवान के साथ हँसी-खेल तो तुम लोग करते हो।

मै-सो कैसे?

खट्टर काका ने कहा-तब पुजा की पद्धत देखो। भगवान की षोडशोपचार पुजा कैसे होती है?


आसनं स्वागतम पाद्यमर्ह्यमाचमनीयकम
मधुपर्काचमनी स्नानं वसनं भरणानि च
गंधपुष्पधूपदीपनैवेद्यानि विसर्जनम् ।

पहले भगवान् का आवाहन कर उन्हें आसन दिया जाता है। स्वागत किया जाता है। इहाऽगच्छ, इह तिष्ठ, इदमासनं गृहाण। (यहाँ आया जाय, बैठा जाय, आसन ग्रहण किया जाय।) तब पाद्यार्घः (यानी पाँव धोने का जल)। मुख प्रक्षालन के निमित्त आचमनीयम्। मधुपर्क (यानी हलका जलपान)। स्नान के लिए स्नानीयं जलम्। नव वस्त्राच्छादन। फूल, माला, चंदन, धूप, कपूर आदि सुगंधित द्रव्यों का अर्पण। तदनंतर भाँति-भाँति के नैवेद्य।


घृतपक्वं हविष्यान्नं पायसं च सशर्करम्
नानाविधं च नैवेद्यं विष्णो मे प्रतिगृह्यताम् ।

भगवान् को निवेदन किया जात है कि "घी में बने हुए ये पकवान और पायस वगैरह मधुर पदार्थ आप भोग लगावें।"

सचमुच भोग लगानेवाले तो दूसरे ही भाग्यवान होते हैं। लेकिन फिर भी मखौल की तरह भगवान् के सामने पान-सुपारी भी पेश कर दी जाती है!

लवंगकर्पूरयुतं तांबूलं सुरपूजितम्
प्रीत्या गृहाण देवेश मम सौख्यं विवर्धय ।

"लौंग कपूर से सुवासित खुशबूदार पान हाजिर है । शौक फरमाइए ।"

और अंत मे खड़े होकर आरती दिखाकर जाने की घंटी बजा देते है । पूजितोऽसि प्रसीद । स्वस्थानं गच्छ । अपराधं क्षमस्व ।

"आपकी पूजा हो चुकी । अब खुश होइए । अपने घर जाइए । जो कुछ भुल-चुक हो गई हो उसे माफ कीजिए ।"

अजी, यह सब दिल्लगी नही, तो और क्या है ? और इतनी सारी आवभगत किसकी होती है ? कुछ छोटे से चिकने पत्थरों की, जो घिस-पिटकर जो गुलाब-जामुन या काला जामुन के आकार के बन गए हैं !

मैने कहा- खट्टर काका, नर्मदेश्वर और शालग्राम तो साक्षात शिव और विष्णु के प्रतीक हैं ?

खट्टर काका हॅंसते हुए बोले - अजी, नर्मदेश्वर का अर्थ ही होता है नर्म परिहासं ददाति इति नर्मदः तत्प्रकारकः ईश्वरः ! यानी हास-परिहासवाले भगवान । शालग्राम की बदौलत इस विशाल ग्राम में इतने लोगो के मनोविनोद का प्रोग्राम बन जाता है और कई कीलोग्राम लड्डू भी बट जाते हैं । यह सिनेमा से सस्ता पड़ता है, क्योकि इसमें टिकट नही लगता और अन्त मे प्रसाद भी मिल जाता है । इसमे वच्चों के खेल से अधीक गंभीरता रहती है । क्योकि इसमे बड़े-बूढे भी शामिल रहते हैं और एहसास नहीं होता कि यह सब स्वांग हो रहा है । लड़कियाँ गुड़िया को दुलहिन की तरह सजाकर खेलती है; तुम लोग भगवान को मेहमान बनाकए खेलते हो । जैसे शालग्राम तुम्हारे समधी हों !

मैं- सो कैसे, खट्टर काका ?

खट्टर काका बोले - देखो बारात मे समधी के आने पर जो सब खातिरदारी की जाती है, वही सब तो भगवान की पूजा मे भी होती है । आसन, पानी, स्नान, जलपान, फूल-माला, खुशबू, मिष्टान्न-भोजन, पान-सुपारी, धोती और अन्त मे क्षमाप्रार्थना कि भुलचुक माफ करेंगे । तब फर्क यही है कि शालग्राम को चुल्लू भर पानी में स्नान-आचमन करा दिया जाता है और भोग जो लगाया जाता है सो सब ज्यों म्का त्यों रखा रह जाता है । वस्त्र के नाम पर सूत से भी काम चल जाता है । घंटे भर मे घंटी बजाकर विदा कर देते हैं - स्वस्थानं गच्छ । असली समधी देवता को ऎसा कहा जाय तो अनर्थ ही हो जाय ! परन्तु भगवान तो किसी के समधी हैं नहीं । समधी का अर्थ होता है "समान बुद्धिवाला ।" यदि भगवान मे भी उतनी ही बुद्धि हो, जितनी यजमान में, तब तो ईश्वर ही बचायें !

मै- लेकिन पूजा के साथ कथा भी तो होती है ?

खट्टर काका बोले - हाँ, पूजा है नाटक; कथा है उपन्यास । इस तरह दृश्य और श्रव्य दोनो का मजा दर्शकों को मिल जाता है ।

मै- खट्टर काका, कथाओं मे तो बहुत गूढ तत्व भरे होंगे ?

खट्टर काका ने आलमारी से सत्यनारायण व्रत-कथा निकालते हुए कहा - तब यह भी सुन लो । पंडितजी रात मे शंख बजा-बजाकर जो कथा बाँचेंगे, उसका निचोड़ मैं अभी बता देता हूँ । एक बार नैमिषारण्य मे लोक हित की दृष्टि से एक विचार गोष्ठी आयोजित की गई । उद्देश्य यह था कि मानवों के दुख दूर करने के लिए कोई ऎसा सुगम मार्ग ढूंँढा जाय कि कम समय में, कम खर्च में कम परिश्रम में, अधिक-से-अधिक फल प्राप्त हो सके ।


स्वल्पश्रमैः स्वल्पवित्तैः स्वल्पकालैश्च सत्तम
यथा भवेत् महापुण्यं तथा कथय सूत नः ।

'कनफरेंस' के अध्यक्ष सूतजी ने कहा- 'एक बार बैकुंठ लोक मे नारदजी यही प्रश्न भगवान से पूछते भये थे -'


मर्त्यलोके जनाः सर्वे नानाक्लेशसमन्विताः
तत्कथं शमयेन्नाथ लघुपायेन तद्वद ।

(मर्त्यलोक मे नाना प्रकार के क्लेशों से पीड़ित हैं । कोई ऎसी आसान तरकीब बताइए कि उनका उद्धार हो जाय ।)

तब परम कृपालु भगवान यह उपाय बतावतो भये थे"-


सत्यनारायणस्यैतद व्रतं सम्यग विधानतः
कृत्वा हि सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ।

(सत्यनारण की पूजा विधिपूर्वक करने से मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है। )

इतना ही नहीं, भगवान ने पूजा की विधि यानी प्रसाद का नुसखा भी बता दिया!


रंभाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णकम
अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा च गुडं तथा ।

"पके हुए केले, दूध, घृत, गुड़-शक्कर और गेहूँ का आँटा- सब एक साथ मिला कर प्रसाद बना लो। "भगवान इतने दयालु हैं कि वे विकल्प बताना भी नहीं भूले! "यदि गेहूँँ का आँटा नहीं मिला तो चौरेठा लेकर भी काम चला सकते हो ।"

बुद्धदेव ने दुःख की समस्या को हल करने में अपना पूरा जीवन लगा दिया और ऎसा अष्टांग मार्ग बताया, जिसे कष्टांग मार्ग ही समझना चाहिए । लेकिन भगवान ने इस समस्या का चुटकियों मे समाधान कर दिया और ऎसा मिष्टांग मार्ग बता दिया, जो सबके लिए सुलभ है ।


प्रसादं भक्षयेद् भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत्
ततश्च बंधुभिः सार्धं विप्रांश्च प्रति भोजयेत् ।

"लोग प्रेमपूर्वक प्रसाद पावें, पवाऎं । कुछ नाच-गान का भी शगल रहे । भाई-बन्धुओं के साथ-साथ ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय ।"


तत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ।
'ऎसा करने पर मनुष्य़ सभी दुखों से मुक्त हो जाता है ।' अब इससे बढकर आसान तरीका और क्या हो सकता है ?

मैने कहा - लेकिन .....

खट्टर काका बोले - इसी 'लेकिन' के लिए चार प्रमाण पेश किए गये हैं, जिनसे भक्तों के मन मे आस्था जमे और पूजा करने कि प्रेरणा मिले ।

खट्टर काका ने सत्यनारायण कथा के पृष्ट उलटते हुए कहा - देखो । पहली कथा काशी के एक दरिद्र ब्राह्मण की है । भगवान तो दयार्द्रचित्त हैं । उन्होने ब्राह्मण को भीख माँगते हुए देखकर उपदेश दिया -


सत्यनारायणो विष्णुः वांछितार्थफलप्रदः
तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम् ।

"सत्यनारायण भगवान की पूजा करो, जो सभी मनोरथो को पूरा करनेवाले हैं ।" उसी दिन ब्राह्मण को बहुत पैसे मिल गए । उसने पूजा की । नफा देखकर हर महिना पूजा करने लगा ।


सर्वदुःखविनिर्मुक्तः सर्वसंपत समन्वितः
सर्वपापविनिर्मुक्तः दुर्लभं मोक्षमाप्तवान् ।

"वह सब दुःखों से, सब पापों से, मुक्त होकर, सभी सुख-साधनो से सम्पन्न हो गया और अन्त मे मोक्ष भी पा गया, जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है !"

मुझे मुँह ताकते देखकर खट्टर काका बोले - काशी रोज ढेर के ढेर भिक्षुक ब्राह्मण घूमते हैं । पता नहीं, भगवान एक उसी पर क्यों ढुल पड़े । और उसे सलाह भी दी तो उद्यम करने कि नहीं, पूजा करने की ! खैर, जब रास्ता मालूम हो ही गया है, तब अभी तक वहाँ रोज भिखमंगों का मेला क्यों लगा रहता है ? अभागों को इतनी अक्ल क्यों नहीं होती कि किसी से कर्ज लेकर एक बार घी-शक्कर वगैरह सामान जुटा लें । फिर तो उनके मूँह में हमेशा घी-शक्कर रहेगा ।

मैने कहा- खट्टर काका, क्या सभी कथाएंँ ऎसी ही है ?

खट्टर काका बोले- हाँ जी । मैं इन्हे इतिहास नहीं, इश्तिहार समझता हूँ । एक लकड़हारे ने पूजा की । उसे लकड़ी का दूना दाम मिल गया ।

तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ । और, उसी पूजा की बदौलत उसे दौलत, बेटा, स्वर्ग सबकुछ मिल गया इसी तरह एक राजा (अंगध्वज) ने पूजा की और उसे भी सब कुछ मिल गया ।


तद्व्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्
इहलोके सुखं भुक्त्वा चांते सत्यपुरं ययौ ।

अजी, ये सब विज्ञापन नही, तो और क्या है ? लगता है, जैसे कोई दलाल बोल रहा हो बीमा-एजेंट की तरह ।

मैं- लेकिन ये सब तो बच्चों की कहानियाँ जैसे लगती है ।

ख० - सो तो है ही । हाँ एक कहानी अलबत्ता रसीली है । उसमें सत्यनारायण भगवान के चरित्र की कुछ झाँकी भी मिल जाती है ।

मैने पूछा - क्या लीलावती-कलावती वाली कथा ?

खट्टर काका बोले - हाँ, वह तो जानते ही होगे ?

मैने कहा - नही, खट्टर काका । आपके मुँह से सुनने मे मजा आयेगा ।

खट्टर काका बोले - तब सुनो । एक महाजन ने पूजा की, और
एकस्मिन् दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती
गर्भिणी साऽभवत् तस्य भार्या सत्यप्रसादतः ।

उसकी स्त्री लीलावती को गर्भ रह गया। सत्यनारायण के प्रसाद से। एक सुंदर कन्या का जन्म हुआ, जिसका नाम पड़ा 'कलावती'। महाजन ने संकल्प किया कि इसकी शादी के वक्त फिर पूजा करुँगा। लेकिन बदकिस्मती के मारे बेचारा भूल गया। नतीजा यह हुआ कि भगवान नाराज हो गये और शाप दे बैठे।


विवाह समये तस्याः तेन रुष्टोऽभवत प्रभुः
भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान
दारुणं कठिनं चास्य महददुःखं भविष्यति।

("अच्छा बच्चू! तुमने वादाखिलाफी की है! अब लो मजा चखो।")

अब आगे का हाल सुनो। महाजन अपने जमाता के साथ वाणिज्य के सिलसिले में बाहर गया। वहाँ राजा (चंद्रकेतु) के यहाँ चोरी हुई। भगवान की प्रेरणा से चोर वहीं माल छोड़कर भागा, जहाँ ये दोनों(ससुर-दामाद) ठहरे हुए थे। राजा के सिपाहियों ने वहाँ से माल बरामद किया और दोनों को पकड़कर ले गये। उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली गयी और वे कारागार में बन्द कर दिए गये । वे बहुत रोये-कलपे, लेकिन


मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वचः ।

सत्यनारायण की माया से किसी ने उनकी बातों की सुनवाई नहीं की ।

मैने कहा - खट्टर काका, इससे तो भगवान के चरित्र पर बट्टा लगता है ।

खट्टर काका बोले - भगवान पर भले ही बट्टा लगे, भक्तों का अपना बट्टा तो प्रसाद से भर जाता है । अगर वे भगवान को इस रूप मे अंकित नहीं करेंगे, तो लोग डरेंगे कैसे ? और डरेंगे नहीं तो पूजा कैसे चढायेंगे ? सत्यनारायण को मामूली देवता मत समझो । वह दारोगा से कम नहीं हैं । रोकर हो, गाकर हो, उन्हे दो । नहीं तो ऎसा फँसा देंगे, कि जेल में सड़ते रह जाओगे ।

मै - ऎसे भगवान से किसी को प्रीति कैसे हो सकती है ?

ख० - अजी, बिनु भय होंहि न प्रीति ।' सामान्य जनता प्रीति से उतना नही डरती, जितना भीति से । अगर लोगों को विश्वास हो जाय कि शालग्राम से कुछ बनने- बिगड़ने का नहीं, तो उन्हें सीधे शालग्रामी नदी में विसर्जन कर देंगे। दुनिया में शुद्धं-बुद्धं बनने से काम नहीं चलता। इसलिए नारायण को प्रतिशोध-परायण बना दिया गया है।

मैंने पूछा- तब ससुर-दामाद छूटे कैसे?

खट्टर काका ने कहा- आगे का हाल और दिलचस्प है। माँ-बेटी घर पर थीं। उन्हें क्या पता कि दोनों के पति हवालात की हवा खा रहे हैं। एक रात कलावती देर से घर लौटी। माँ डाँटने लगी- "तू इतनी रात तक कहाँ थी?" कलावती ने कहा कि सत्यनारायण की पूजा देख रही थी। यह सुनते ही लीलावती को अपनी प्रतिज्ञा याद आ गयी। उसने भी लगे हाथ पूजा कर ली और भगवान से प्रार्थना की-

अपराधं च मे भर्तुः जामातुः क्षन्तु मर्हसि

"मेरे पति और दामाद का अपराध क्षमा करें। "

व्रतेनानेन संतुष्टः सत्यनारायणः प्रभुः ।

भगवान गदगद हो गये और राजा (चंद्रकेतु) को स्वप्न दिया-

देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत त्वयाऽधुना नो चेत नाशयिष्यामि सराज्यधनपुत्रकम ।

"महाजनों का सारा धन लौटाकर उन्हें तुरंत छोड़ दो, नहीं तो राज-पाट समेत तुम्हारा नाश कर दूँगा।"

अजी, भगवान क्या हुए? शनैश्चर हुए! जिस पर लग जाएँगे, उसे समूल नष्ट कर देंगे। बेचारा चंद्रकेतु क्या करता? महाजनों का जितना माल था, उसका दूना देकर उन्हें विदा कर दिया।


पुरानीतं तु यद द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान
प्रोवाच तौ ततो राजा गच्छ साधो निजाश्रमम ।

कहा- "महाराज! जाइए अपने घर, और मेरी जान बख्शिए!"

मैंने पूछा- खट्टर काका, बेचारे चंद्रकेतु का क्या कसूर था, जो भगवान उस पर बिड़ग गये?

खट्टर काका बोले- भगवान को एकाएक स्मरण हो आया होगा कि कलावती का यौवन विरह के ताप से कुम्हला रहा है और उसके पति को वह दुष्ट राजा बंद किये हुए है। वह भूल गये होंगे कि उन्हीं की माया से ऎसा हुआ। अजी, सामर्थ्यवान और गिरगिट को रंग बदलते कितनी देर लगती है!

खट्टर काका को हँसी आ गयी। बोले-देखो, एक थे उग्रदेव शास्त्री। उन्हें एक बार भोजन में जरा देर हो गयी तो स्त्री का गला काटने दौड़े। और जब आगे गरम-गरम कचौड़ियाँ परोसी गयीं, तो इतने खुश हुए कि स्त्री के गले में चंद्रहार लाकर डाल दिया। दूसरे दिन दाल में कुछ ज्यादा नमक पड़ गया; चंद्रहार छीनकर ले गये। मुझे तो सत्यदेव भी उग्रदेव ही जैसॆ लगते हैं। क्षणे रुष्टः क्षणे तुष्टः। न खींझते देर, न रीझते देर! गुस्से मे महाजन को बँधवा भी दिया और जब उसकी बेटी कलावती की कला पर मुग्ध हो गये, तो उसे छुड़वा भी दिया। भगवान क्या हुए, रियासत के जमींदार हो गये!

खट्टर काका ने नस ली। फिर बोले-अभी किस्सा खतम नहीं हुआ है। जब महाजन नाव पर सामान लादकर चला, तो फिर नारायण एक साधु के वेष में पहुँचे और पूछा कि नाव में क्या है? महाजन को शक हुआ कि एक अपरिचित क्यों ऎसा पूछ रहा है। उसने यह्कहकर टाल दिया कि

लतापत्रादिकं चैव वर्त्तते तरणौ मम

"नाव में घास -फूस वगैरह है।" भगवान तो ऎसे ही मौके की ताक में थे। फिर एक चरण लगा दिया-सत्यं भवतु त्वद्वचः। बस, जितना माल-मता था, बस लत्ता-पत्ता बन गया। अब तो बेचारा बनियाँ लगा सर पीटने। भगवान खुश हो रहे थे-कैसा मजा चखाया? चले थे बच्चू मुझसे चालबाजी करने! अब छल करने का दंड भोगो।'

अजी, भगवान स्वयं अपना रूप छिपाकर छद्मवेष में वहाँ गये सो तो छल नहीं हुआ, और बेचारे बनियाँ ने आत्मरक्षा की दृष्टि से अजनबी को माल का हाल नहीं बताया, तो वह छल हो गया! यही भगवान का इंसाफ है! खैर, बेचारे महाजन ने वादा किया-

प्रसीद पूजयिष्यामि यथा विभवविस्तरैंः

'जितना हो सकेगा सो लेकर जरूर आपकी पूजा करूँगा।' तब जाकर भगवान् संतुष्ट हुए और उसका माल लौटा दिया। चुंगीवाले अफसर का भी कान भगवान ने काट लिया!

मैं-खैर, किसी तरह बेचारा सकुशल घर लौट आया।

खट्टर काका-अभी और है जी। उधर घर पर खबर पहुँची तो कलावती उतावली होकर पति हो देखने के लिए नदी की ओर दौड़ी । हड़बड़ी में भगवान् का प्रसाद लेना भूल गयी।

प्रसादं च परित्यज्य गता सापि पतिं प्रति

बस, भगवान ने फिर थानेदारवाला विकराल रूप धारण किया।


तेन रुष्टः सत्यदेवो भत्तर्रि तरणिं तथा
संहृत्य च धनैः सार्धं जले तत्रावमज्जयत्

उनका क्रोध ऎसा भड़का कि पूरी नाव को ही उलट बैठे। यह देखते ही कलावती बेहोश गिर पड़ी। उसके माँ-बाप रोने-पीटने लगे। तब भगवान ने फिर फब्तियाँ कसी-'बड़ी चली थी पति से मिलने! मेरा प्रसाद छोड़कर, मेरा अपमान कर स्वामी के पास दौड़ गयी। अब कहो! जब तक घर जाकर मेरा प्रसाद नहीं खायेगी, तब तक पति देवता गोते लगाते रहेंगे।' मरता क्या न करता! कलावती दौड़ी घर गयी, प्रसाद खा आई। किसी तरह रूठे हुए भगवान को मनाया!

खट्टर काका सुपारी का कतरा करते हुए कहने लगे- अजी, मैं पूछता हूँ, वह नवयुवती उमंग में अपने पति से मिलने को दौड़ी तो भगवान् के दिल में इतनी ईर्ष्या क्यों धधक उठी? इस तरह की प्रतिस्पर्धा तो सिनेमा के खलनायक में होती है। भगवान् कहीं ऎसा करें? इनको तो और खुश होना चाहिए था कि कलावती अपने पति-देवता को भगवान से भी बढकर मानती है। लेकिन यह तो प्रतिद्वंद्विता पर उतर आये! अंत में तो कलावती इनके सत्यलोक में गयी ही। चांते सत्यपुरं ययौ। पता नहीं वहाँ इनके साथ उसकी कैसी निभी होगी? मुझे तो सत्यनारायण के नाम से ही भय लगता है!

मैंने पूछा-खट्टर काका, सत्यनारायण-कथा में चार-चार कहानियाँ क्यों दी गयी है? क्या एक से काम नहीं चल सकता था?

खट्टर काका बोले - देखो ! ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शुद्र चारों से एक-एक प्रतिनिधि लिए गए है, जिससे जनता का प्रत्येक वर्ग पूजा करने के लिए प्रोत्साहित हो ।

'एक ब्राह्मण गरीब से धनी हो गया । एक राजा को बेटा हुआ । एक बनियाँ को बेटी हुई । एक लकड़हारे को ज्यादा नफा हुआ ।' यही न चारों कथाओं का सारंश है ? अजी, ए सब बातें तो होती ही रहती है । लोग पूजा करे या न करें । लीलावती गर्भवती हो गई, तो कौन सी अनोखी बात हो गयी ? यहीं अब्दुल्ला मियाँ ने कब पूजा की कि उसके एक दर्जन-भर वच्चे हैं ? और चौधरानीजी हर महिना कथा बचवाने पर भी गर्भिनी नहीं हुई । अजी, मासिक पूजा से कहीं मासिक धर्म बन्द होता है ? बेचारे त्रिवेदी जी जीवन भर शंख फूँकते रह गए, कभी घर पर खपड़ा नही चढ़ा और तिनकौड़ी लाल ने चोर बाजार की बदौलत तिमंजिला मकान उठा लिया । तुम्हारे सत्यनारायण ने उसको दंड देकर तीनकौड़ी का क्यों नहीं बना दिया ?

मैं - तो क्या सत्यनारायण की कथा असत्य है ?

तुम स्वयं सोचकर देख लो । आदि से अन्त तक इस कथा को देखने से यहीं लगता है, जैसे नारायण हद दर्जे के लोभी, स्वार्थी, क्षुद्र और दुष्ट हों । नारायण को नर से भी नीचे गिरा दिया गया है । बल्कि एक वानर जैसा चित्रण किया गया है, जो बात-बात मे बंदर-घुड़की दिखाकर, हाथ का फल छीनकर ले भागे और फिर खुश होकर दे दे ! ऎसे चरित्र से मन मे भक्ति क्या होगी, उलटे अभक्ति हो जाती है ।

मैं - लेकिन पूजा का फल कितना बताया गया है ?

ख० - हाँ - 'सौभाग्यसंततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम्' । जो पूजा करेगा, उसकी सर्वत्र जीत होगी ।' मैं पूछता हूँ, अगर मुद्दई-मुद्दालह, दोनो एक साथ पूजा करे, तो किसकी जीत होगी ?

कथाकार लिखते हैं - 'एतत् कृते मनुष्याणां बांछासिधि र्भवेद् ध्रुवम् ' ।

यजमान की बांछा सिद्ध हो या नहीं, पर पुरोहित की बांछा तो तत्काल सिद्ध हो जाती है । क्योकि कथाकार यह लिखना नहीं भूले हैं -

'विप्राय दक्षिणां दद्यात् कथां श्रुत्वा जनैः सह' अगर दक्षिणा नहीं मिले तो विधाता भी वाम हो जायँ ।

मैं - तो क्या यजमानों से प्रसाद और दक्षिणा ऎंठने के लिए ही यह कथा गढी गयी है ?

ख० - और क्या ! यजमानों को उसी तरह फुसलाया गया है, जैसे वच्चों को फुसलाया जाता है - "कान छेदबा लो, तो गुड़ मिलेगा ।" इसी तरह यजमानों को लालच दिया गया है - दूध, गुड़-केला घोलकर बाँटों, तो बेटा मिलेगा ।" बस भोले भाले यजमान सस्ता सौदा खरीदने के लिए टूट पड़ते हैं। जैसे, बच्चे दस पैसे की नकली घड़ी के पीछे दौड़ते हैं!उन्हें कहाँ तक कोई समझाए कि नकली माल के फेर में मत पड़ो! क्या रोकने से भी वे मानेंगे? इसी तरह एक हाँड़ी दूध, केला, गुड़ घोलकर जो उसके बदले में बेटा-बेटी या स्वर्ग पाना चाहते हैं, उन्हें क्या कहा जाय? इस देश में तो भेड़ियाधसान है। तभी तो नकली माल के दलाल मालामाल हो जाते हैं और सत्य की राह पर चलनेबाले पामाल होते रहते हैं।

मैं- खट्टर काका, तब क्या करना चाहिए?

खट्टर काका बोले- अगर शक्ति है, तो असली सत्यदेव की पूजा करो। जहाँँ-जहाँँ असत्य हो, अन्याय हो, धोखाधड़ी हो, जुआ जोरी हो, घूसखोरी हो, काला-बाजार हो, सत्य पर पर्दा डालने की साजिश हो, वहाँँ जाकर शंख फूँँको, जनता में जागृति करो, समाज को सत्य के पथ पर लाओ। वही असली सत्यनारायण की पूजा होगी। और जब वैसी पूजा होने लगेगी, तो सचमुच पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आयेगा। कुछ भी दुर्लभ नहीं रहेगा।

"न किंचित विद्यते लोके यन्न स्यात सत्यपूजनात!"