गीता

खट्टर कका के तरंग, लेखक : हरिमोहन झा

खट्टर काका मेरे हाथ में 'गीता' देखकर बोले - क्या आजकल गीतापाठ करने लगे हो ? तब तो तुमसे दूर ही रहना चाहिए।

मैंने चकित होकर पूछा-सो क्यों, खट्टर काका ?

खट्टर काका बोले - देखो, पहले अर्जुन में मनुष्यता थी। 'ये भाई हैं, ये चाचा हैं, यह बाबा हैं, इन पर कैसे हाथ उठावें ? परंतु गीता का आसव पीकर वह इस तरह वाणवर्षा करने लगे कि वृद्धि पितामह तक की छाती छलनी कर दी। इसी से मुझे भी भय होता है कि कभी बात को लेकर तकरार हो जाय, और तुम भी अर्जुन की तरह निस्पृह योगी बनकर सोचने लगो-

नैंनं छिंदंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः

खट्टर काका की आत्मा को तो शस्त्र काट ही नहीं सकता है, तो फिर क्यों न एक गडाँसा कसकर लगा दिया जाय ?

और काकी रोना-धोना शुरू करें, तो समझाने लगो कि-

वासांसि जीणार्नि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही


'काकाजी का चोला बदल गया है। नया शरीर मिल गया है। आप खुश होकर सोहर गायें। विलाप क्यों कर रही हैं ?

यदि गाँव के नवयुवक गीता के उपदेश पर चलने लगें, तो कितने चाचा मारे जायेंगे, कितनी चाचियाँ विधवा होंगी, इसका ठिकाना नहीं। इसीलिए मैं हाथ जोड़ता हूँ। पढना ही है तो गीतगोविंद पढो, मगर गीता का चसका मत लगाओ।

मैने कहा - खट्टर काका , लोग कहते हैं कि गीता अहिंसा-वैराग्य की शिक्षा देती है।

खट्टर काका बोले - अजी, मैं तो सीधी बात जानता हूँ। यदि अर्जुन गीता का उपदेश सुनने के बाद गांडीव फेंककर गेरुआ वस्त्र धारण करते, कवच उतारक कमंडल ग्रहण करते और कुरुक्षेत्र छोड़ा वाराहक्षेत्र का मार्ग पकड़ते, तब मैं मान लेता कि गीता में अहिंसा - वैराग्य भरा है। परंतु वह तो मत्स्यवेध की तरह भाई-बंधुओं का मस्तक- वेध करने लगे!

अजी, एक तो यों ही आजकल बर्छी-भाले निकलते रहते हैं, अगर उन पर गीता की शान चढ गयी, तो प्रत्येक गाँव कुरुक्षेत्र बन जायेगा। अतएव मैं हाथ जोड़ता हूँ, अभी गर्म खून में गीता मत पढो।

मैंने कहा - खट्टर काका , हो सकता है कि गीताकार का वास्तविक अभिप्राय कुछ और हो।

खट्टर काका बिगड़कर बोले - दूसरा अभिप्राय मैं कैसे समझूँ ? स्वयं गीताकार ही तो सारथी बनकर आगे बैठे थे। तब उन्होंने रथ मोड़ क्यों नहीं लिया? वह कहते - "ओ अर्जुन! मैंने तुम्हें इतना ज्ञान दिया है कि यह शरीर नश्वर है, संसार क्षणभंगुर है, हस्तिनापुर की क्या हस्ती? एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। इस कारण तुम रक्त की धारा क्यों बहाओगे? सांसारिक सुख तुच्छ है। तुम राज्य की कामना छोड़ दो। क्या गद्दी की खातिर वृद्ध पितामह एवं पूज्य द्रोणाचार्य पर तीर छोड़ना तुम्हें शोभा देगा? यही ना होगा कि लोंग हँसेंगे कि क्षत्रिय होकर मैदान छोड़ दिया। परंतु जो यथार्थ ज्ञानी होते हैं, वे निंदा या प्रशंसा से विचलित नहीं होते। छोड़ो इस झमेले को, और चलो मेरे साथ हिमालय। लेकीन ये सब बातें तो उन्होंने कहींनही। उलटे, उन्होंने अर्जुन को लड़ने के लिए भड़का दिया। और तुम समझते हो कि गीता में अहिंसा और वैराग्य भरा है। हाय रे बुद्धि!

मैंने कहा - खट्टर काका , बड़े-बड़े लोग गीता के द्वारा विश्व शांति स्थापित करना चाहते हैं और आपको उसमें युद्ध का संदेश मिलता है.?

खट्टर काका ने मुस्कुराते हुए कहा-तुमने आल्हा सुना है ? किस प्रकार गाकर जोश बढाया जाता है-आखिर राम करै सो हो, एक दिन सबको मरना होगा। और, उसी बोल पर कितने कटकर मर जाते हैं। मुझे तो वहीं ललकार गीता में भी सुनायी पड़ती है-

अंतवंत इमे देहाः नित्यस्योक्ताः शरीरिणः
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद युध्यस्व भारत (गीता2/18)

लेकिन 'कभी तो मरना ही है, इसलिए अभी मर जाओ' - यह तर्क तो मुझे नहीं जॅंचता।

मैंने कहा - खट्टर काका , भगवान का कहना है कि जीव का कभी नाश नहीं होता है।

खट्टर काका बोले-यदि जीव का कभी नाश नहीं होता है, तो खून की सजा फाँसी क्यों होती है ? श्रीकृष्ण अर्जुन को तो उपदेश देते हैं कि-

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचंति पंडिताः (2/11)

परंतु जब अभिमन्यु का वध होता है, तो वह ज्ञान कहाँ विलीन हो जाता है? यदि वास्तव में यही बात सत्य है कि-

न जायते म्रियते वा कदाचित्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः
अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणः
न हन्यते हन्यमाने शरीरे । (गी० 2/20)

तब फिर जयद्रथ से बदला लेने के लिए इतना प्रपञ्च क्यों रचा गया ? उस समय यह वचन क्यों भूल गये कि -

दुःखेष्वनुद्विग्मनाः सुखेषु विगतस्पृहः
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।

अजी तुम अभी बच्चे हो । इन बातो को नही समझोगे । मैने कहा खट्टर कका, कहा जाता है -

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदनः ।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतंमहत ॥

समस्त उपनिषदों का मंथन कर कृष्ण भगवान ने गीता रूपी अमृत निकालकर अर्जुन रूपी बछड़े को पान कराया है ।

खट्टर काका मुस्कुराते बोले - हाँ ! अर्जुन तो बछिया के ताउ थे ही । तभी तो श्रीकृष्ण ने उन्हे पुचकारकर लड़ाई मे जोत दिया। एक तरह देखा जाय तो अर्जुन को फुसलाने के लिए ही गीता की रचना हुई है। श्रीकृष्ण को लड़ाने की ईच्छा थी। अर्जुन की पीठ ठोंक दी, और स्वयं महाभारत का तमाशा देखते रहे। अर्जुन पर इस तरह श्याम-रंग चढ गया कि उन्होंने संपूर्ण वंश को मटियामेट कर दिया।

मैंने कहा -खट्टर काका , अर्जुन ने अनासक्त होकर युद्ध किया। राज्य के लोभ से नहीं।

खट्टर काका व्यंग्य करते हुए बोले-हाँ! हस्तिनापुर की गद्दी तुम्हारे ही नाम से वसीयत कर गये हैं! अजी, यदि अनासक्त रहते, तो सौ चचेरे भाइयों के शोणित से अपना राज्याभिषेक करते! हाय रे दिल्ली! तेरे चलते इतना रक्तपात हुआ कि आज तक किले का रंग लाल है।

मैंने कहा-धन्य हैं, खट्टर काका ! कहाँ से कहाँ शह चला देते है!

खट्टर काका अपनी धुन में कहने लगे-देखो, श्रीकृष्ण को लड़ाना था और अर्जुन को अपनी बुद्धि थी ही नहीं। इसी से जो-जो मन में आया, कृष्ण कहते गए- "शरीर नाशवान् है, इसलिए युद्ध करो। आत्मा अमर है, इसलिए युद्ध करो। क्षत्रिय हो , इसलिए युद्ध करो। नहीं लड़ने से निंदा होगी, इसलिए युद्ध करो।

खट्टर काका के होंठों पर मुस्कान आ गयी। बोले-श्री कृष्ण अर्जुन को तो यह उपदेश देते हैं कि क्षत्रिय के लिए रण छोड़कर भाग जाने से मरण अच्छा है। और, स्वयं जो रण छोड़कर भागे सो अभी तक रणछोड़ कहला रहे हैं। इसी को कहते हैं-परोपदेशे पांडित्यम। लेकिन अर्जुन को इतनी बुद्धि कहाँ कि जवाब दे सकते! गटगट सुनते गये। और, जब सबकुछ सुनकर भी अर्जुन के पल्ले कुछ नहीं पड़ा, तब कृष्ण ने अपना विकराल रूप दिखाकर अर्जुन को डरा दिया-'यदि उस तरह नहीं समझोगे, तो इस तरह समझो।

खट्टर काका को हँसी लग गयी। बोले-मुझे एक बात याद आती है। एक बार तुम्हारी चाची काशी स्नान करने जा रही थी। उनके साथ एक पाँच साल का बच्चा था। वह भी साथ जाने के लिए जिद करने लगा। मैंने उसे बहुत तरह से समझाया कि "नदी में तेज बहाव है, वहाँ बच्चे डूब जाते हैं। पानी में मगर रहते हैं, पकड़ लेते हैं। मत जाओ। जब वह किसी तरह नहीं माना, तब रामलीला वाले राक्षस का चेहरा लगाकर उसे डरा दिया। वह देखते हुए जो सीधा हुआ, सो फिर क्यों मचलेगा? ऎ भाई! मुझे तो उस बच्चे में और अर्जुन में कोई खास अंतर नही जान पड़ता है।

मैंने कहा - खट्टर काका , गीता में जो इतना ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग भरा है......

खट्टर काका बोले-सभी योगों का लक्ष्य यही है कि तस्मात युध्वस्व भारत। यानी "कौरवों को मारो"। अर्जुन किसी तरह लड़ने को तैयार हो, इसीलिए इतना सारा निष्काम कर्म और अनासक्ति योग का महाजाल रचा गया। उसमें अर्जुन की बुद्धि उलझ गयी और श्रीकृष्ण ने उन्हें जैसे नचाना चाहा, नचाया। परंतु जिसे समझने की शक्ति है, वह तो भगवान की चालाकी समझेगा ही।

मैने कहा - खट्टर काका , भगवान ने अर्जुन को कैसे फुसलाया? मेरी समझ में तो नहीं आता।

खट्टर काका बोले-तुम्हारी क्या बिसात ? बड़े-बड़े पंडितो की समझ में नहीं आता। परंतु मुझे तो बिल्कुल साफ नजर आता है। भगवान कहते हैं कि-

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते (गीता 2/55)

अर्थात्, 'जो सारी इच्छाओं का त्याग कर देते हैं वे ही यर्थाथ ज्ञानी हैं। तब फिर राज्य और स्वर्ग का प्रलोभन क्यों देते हैं?

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् तस्मादुत्तिष्ठ कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चयः (2/37)

'हे अर्जुन! यदि मरोगे, तो स्वर्ग मिलेगा। जीतोगे, तो राज्य मिलेगा। तुम्हारे दोनों हाथ लड्डू हैं। अतएव उठो और युद्ध करो।

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले-अर्जुन ने तर्कशास्त्र नहीं पढा था, इसी कारण उभयतः पाश में बँध गये। यदि मैं रहता, तो कहता-'हे कृपानिधान! एक तृतीय कोटि भी तो हो सकती है कि वे अर्जुन को पकड़कर बंदी बना लें, तब तो माया मिली न राम! परंतु अर्जुन तो सीधे धनुर्धर थे। किसी पक्षधर से भगवान को भेंट होती, तब न! मैं तो पूछता -'ऎ महाराज! जब सारे मनोरथ व्यर्थ हैं, तब फिर आप यह रथ क्यों चला रहे हैं?

मैंने कहा - खट्टर काका , आप हर जगह अपना तर्कशास्त्र लगा देते हैं!

खट्टर काका बोले - कैसे न लगाउँ, जी? यही तो अपने देश की मुख्य विद्या है। खंडन में ऎसी सूझ्म दृष्टि और किसकी हो सकती है?

खट्टर काका सरौते से सुपारी काटते हुए बोले-देखो, एक स्थान पर तो श्रीकृष्ण उपदेश देते हैं कि-
समदुःखसुःख स्वस्थः समलोष्टाश्मकंचनः
तुल्यप्रियाप्रियोधीरः तुल्यनिंदात्मसंस्तुतिः(14/24)

अर्थात् 'निंदा-प्रशंसा, दोनों को एक समान समझना चाहिए। और, दूसरी जगह यह भी कहते हैं कि-

अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यंति तेऽव्ययाम्
संभावितस्य चाकीर्तिः मरणादतिरिच्यते (2/34)

अर्थात 'युद्ध नहीं करोगे तो तुम्हारी निंदा होगी, इससे तो मर जाना ही अच्छा है।' एक बार तो अनासक्त कर्म की शिक्षा देते हैं कि-

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि (2/38)

अर्थात 'हार-जीत दोनों को बराबर समझकर लड़ो।' और बाद में जीत का लोभ भी देते हैं कि-

तस्मात उत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुक्ष्व राज्यं समृद्धम(11/33)

'हे अर्जुन! उठो, यश प्राप्त करो और शत्रु को जीतकर राज्य भोगो। ' अब तुम्ही कहो कि जब सुख-दुःख, जय-पराजय, यश-अपयश, सब समान हैं, तब फिर भगवान विजय एवं यश का प्रलोभन क्यों देते हैं?

मुझे चुप देखकर खट्टर काका बोले-अजी, एक बात मैं पूछता हूँ। भगवान कहते हैं कि-

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति
भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया (18/61)

अर्थात ईश्वर ही अपनी माया के प्रभाव से सबको कठपुतली की तरह नचा रहे हैं। यदि यही बात सत्य है, तब फिर इतनी माथा-पच्ची की क्या जरूरत थी? सीधे अपना यंत्र घुमा देते। उनकी इच्छा के सामने अर्जुन की क्या चलती? तब फिर यह क्यों कहते हैं कि- यथेच्छसि तथा कुरु (18/63)

अर्थात 'तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो।' और यदि यही बात थी, तो इसी पर कायम रहते। फिर ऎसा क्यों कि-

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
अहं त्वां सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः (18/66)

'तुम सभी धर्म छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा।

अजी, ऎसा तो कोई पंडा, पुरोहित या पादरी बोले! भगवान् को क्या ऎसा कहना शोभा देता है ? और यदि अंत में यही बात कहनी थी, तो फिर सात सौ श्लोकों की क्या जरूरत थी ? एक ही श्लोकार्ध में कह देते-अहमाज्ञापयामि त्वां तस्मात युध्यस्व भारत (हे अर्जुन! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, इसलिए युद्ध करो। )

मैंने कहा - खट्टर काका , मैं तो समझता हूँ कि समस्त गीता का निष्कर्ष है - निष्काम कर्म।

खट्टर काका बोले - अजी, यही तो मेरी समझ में नही आता है। इच्छाकृत कर्म भी कहीं निष्काम होता है? जो भी कार्य किया जाता है, किसी-न-किसी कामना से प्रेरित होकर। सारी कामनाओं का त्याग कर दें-यह भी तो एक कामना ही हुई। निष्काम कर्म कहने में वदतो व्याघात दोष है।

मैंने कहा - खट्टर काका आपके तर्क में मैं कहाॅ तक टिक सकता हूँ ? परंतु जीवनमुक्त को तो कोई भी कामना नहीं रहती है।

खट्टर काका मुस्कुराते बोले-भई,मुझे तो आज तक कोई जीवनमुक्त नहीं मिले। यदि कोई मिल जाते तो एक सोंटा लगाकर देखता कि उनकी स्थितप्रज्ञता कहाँ तक कायम रहती है। अजी,ये सब कहने सुनने की बातें हैं।

मैंने गंभीर होकर कहा-तब क्या आपका खयाल है कि भगवान ने अर्जुन को लड़ाने के लिए गीता रची है?

खट्टर काका ठठाकर हँस पड़े। एक चुटकी सुपारी का कतरा मुँँह में डाल कर बोले- अजी तुम कहाँँ हो? ये सब कवि की कल्पनाएँँ हैं। कवि को तो कोई आधार चाहिए । अपने काव्य का चमत्कार दिखलाने के लिए किसी ने रामचन्द्रजी का प्रसंग लेकर रामगीता बना दी, किसी ने शिव का प्रसंग लेकर शिवगीता बना दी, किसी ने गोपी का प्रसंग लेकर गोपीगीता बना दी। इसी तरह किसी ने अपना ज्ञान बघारने के लिए कुरुक्षेत्र की पृष्टभूमि में भगवदगीता की रचना कर दी। तुम्हीं बताओ कि घमासान युद्ध के अट्ठारह अध्याय गीता कहने या सुनने की फुर्सत किसको थी? क्या उस बीच में अट्ठारह अक्षौहिणी सेना त्राटक मुद्रा लगाए कुंभ प्राणायाम साध रही थी? और ,संजय की आँँख में टेलिविजन लगा हुआ था? कवि को किसी व्याज से सांख्ययोग एवं वेदांत की पंडिताई छाँँटनी थी, सो उन्होंने छाँँटी है।

मैंने कहा- खट्टर काका , तो आपकी दृष्टि में गीता से कोई लाभ नहीं?

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले- लाभ क्यों नहीं? एक लाभ तो यही कि परिवार-नियोजन में सहायता पहुँँच सकती है।

मैंने पुछा-सो कैसे, खट्टर काका ?

खट्टर काका बोले- देखो, गीता कासंदेश है-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (गीता 2/47)

इस श्लोक में संतति-निरोध का मंत्र छिपा है।

मैंने चकित होकर पूछा- सो कैसे, खट्टर काका?

खट्टर काका बोले - "केवल कर्म करते जाओ, फल की कामना मत रखो ।" यहाँ फल का अर्थ संतान समझो। अब मैं ज्यादा खोलकर कैसे कहूँ? चाचा जो हूँ!

मैंने कहा- खट्टर काका , आप तो हर बात में विनोद की पुट दे देते हैं। गीता का उपदेश है कि अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए ।

खट्टर काका बोले- हाँ जी। इस उपदेश पर अमल किया जाये तो देश में क्रांति नहीं होगी। कोल्हू के बैल को गुड़ की चेकी से क्या प्रयोजन? यदि इतना ज्ञान मजदूरों को जो हो जाय तो फिर कारखानों में हड़ताल क्यों होगी ? लेकिन आजकल तो देश में उलटी गीता चल पड़ी है-

फलेष्वेवाधिकारस्तु मा कर्मणि कदाचन

इस निष्कर्म भोगवान की लहर को रोकने के लिए एक नयी गीता देश को चाहिए, जो कर्म और फल दोनों को साथ लेकर चले। वह गीता अब कुरुक्षेत्र में नहीं, कृषिक्षेत्र में बनेगी। उस गीता से कुरु (वंश) का अंत हुआ था, इस गीता से कुरु मंत्र का उदय होगा। तभी तो सुजलाम, सुफ़लाम, शस्यश्यामलाम वाला राष्ट्र-गीत सार्थक हो सकेगा। आगे की पीढियाँ पूछेंगी-

कर्मक्षेत्रे कृषिक्षेत्रे समवेताश्चिकीर्षवः
मामकाः पूर्वजाश्चैव किमकुर्वत भारते?