आदर्श चरित्र

खट्टर कका के तरंग लेखक : हरिमोहन झा

खट्टर काका ने मेरे हाथ में पुस्तक देखकर पूछा- आज ब मोटी पुस्तक लेकर चले हो, जी!

मैंने कहा-आदर्श चरितावली है।

खट्टर काका मुस्कुरा उठे। बोले-आजकल कोई इन आदर्शों पर चलने लगे, तो सीधे पागलखाना पहुँच जाय!

मैंने कहा- ऎसा क्यों कहते हैं, खट्टर काका? देखिए, सत्यवादी दानवीर राजा हरिश्चन्द्र कैसे थे?


चंद्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्योहार
पै दृढ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार!

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले- वाह रे सत्य विचार! मान लो, सपने में तुमने अपना खेत मुझे दान कर दिया, तो क्या जागने पर दस्तावेज बना दोगे? मैं सपने में किसी को कन्यादान कर दूँ, तो क्या जागने पर उसे अपना दामाद बना लूँगा?

मैंने कहा - खट्टर काका, वहाँ तात्पर्य है सत्य की महिमा दिखाना।

खट्टर काका बोले- यहीं तो मूर्खता प्रारंभ हो जाती है। स्वप्न में न जानें, लोग कितनी बे-सिर-पैर की बातें देखते हैं। यदि उन्हें सच मानकर चलने लगें, तो क्या हालत होगी? मगर अपने यहाँ तो कुएँ में भी भंग पड़ी है। हम जाग्रत अवस्था से स्वप्न को ही अधिक महत्त्व देते हैं। इसी नींव पर वेदांत का भवन खड़ा है। सारा संसार स्वप्नवत है। सर्वं मिथ्या। बल्कि सुषुप्ति से भी एक डेग और आगे, तुरीयावस्था को, हम आदर्श मानते हैं। विश्व के और-और देशों में जागृति के नगाड़े बजते हैं, और हमरे यहाँ का मंत्र है-


या देवी सर्व भूतेषु निद्रारुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः (दुर्गासप्तशती)

मैने कहा- खट्टर काका, अपने यहाँ का दृष्टिकोण आध्यात्मिक है।

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले- हाँ, इसलिए हम दिन को रात और रात को दिन समझते है!


या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः (गीता 2/69)

जब सारा संसार जागता है, तब हम सोये रहते हैं। और, जब सब सो जाते हैं, तब रात्रि के अंधकार में हम जागते हैं। हो सकता है, किसी पक्षी से प्रेरणा मिली हो ।

मैम - खट्टर काका, आपका व्यंग्य तो 'नावक का तीर' होता है 'देखन मे छोटौं लगे घाव करै गंभीर ।'

खट्टर काका बोले - गलत थोड़े ही कहता हूँ ? इस देश के पक्षी भी तत्वदर्शी होते हैं । शुक, जटायु, गरुड़, काक सभी तो हमारे गुरु है । और उलुक की तो कोइ बात ही नही ! यदि उनमे विशेषता नही होती, तो बैशेषिक को औलूक्य दर्शन क्यों कहा जाता ?

मैने कहा - खट्टर काका, राजर्षि जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी भी तो इसी देश मे हो गये हैं ।

खट्टरकाक बोले - अजी, इसी ब्रह्मज्ञान ने तो हम लोगो को चौपट कर दिया। मिथिलेश जनक का सिद्धांत था-

मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दहति किंचन

"सारी मिथिला जलकर खाक हो जाय, तो इसमें मेरा क्या बिगड़ता है?' यदि आज सभी भारतवासी यहीआदर्श मानकर चलने लगें, तो इस देश की क्या दशा होगी?

मैंने कहा- खट्टर काका, उनका आदर्श था पद्मपत्रमिवांभासा। जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर भी असंपृक्त रहता है, उसी प्रकार संसार में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहना चाहिए।

खट्टर काका बोले-उपमा तो बड़ी सटीक है। लेकिन एक दिन भी उस तरह रहकर देखो तो। तुम पद्म-पत्र की तरह निर्विकार बैठे रहो, तो मैं अभी जाकर तुम्हारा समूचा घर-बार दखल कर लूँ।

मैंने कहा-खट्टर काका, जनक विदेह थे। उनके लिए जैसे मिट्टी के ढेले, वैसे सुंदरी के स्तन।

खट्टर काका विहँसकर बोले-तब तो विदेह बनने में अनिर्वचनीय आनंद है! लेकिन एक बात बताओ कि यदि वह सचमिच विदेह थे, तो उनके लिए जैसे राम, वैसे रावण। फिर धनुष-यज्ञ ठानने की क्या आवश्यकता थी ? और यदि कहीं रावण ही धनुष तोड़ देता तो ?

मैने कहा - खट्टर काका, महर्षि याज्ञवल्क्य को लीजिए। वह कैसे आत्मज्ञानी थे!

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले - ऎसे आत्मज्ञानी थे, कि दो-दो पत्नियाँ रखते थे। आत्मा के लिए मैत्रेयी और शरीर के लिए कात्यायनी।

मैने कहा - परंतु गार्गी के साथ उनका शास्त्रार्थ कितने उच्च स्तर पर हुआ था?

खट्टर काका बोले - बिल्कुल बचकाने स्तर पर हुआ था। जब गार्गी प्रश्न पर प्रश्न पूछकर उनको नाकोदम करने लगी, तब झल्ला उठे 'अब ज्यादा पूछोगी तो तुम्हारी गर्दन कट्कर गिर पड़ेगी।'

मैं - वह कैसे त्यागी थे?

खट्टर काका - ऎसे त्यागी थे कि शास्त्रार्थ से पहले ही सभी गायों को हँकवाकर अपने घर भेज दिया कि बाद में कहीं दूसरा न ले जाय।

मैं - यहाँ ब्राह्मण कैसे वीतराग होते थे?

खट्टर काका - ऎसे, कि उनकी नाक पर हमेशा क्रोध ही चढा रहता था। भृगु ने विष्णु को लात मार दी। भार्गव ने अपनी माता की गर्दन उड़ा दी।

मैं - महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र कैसे थे?

खट्टर काका - दोनों वेश्या-संसर्गी थे। एक उर्वशी के गर्भ से निकले। दूसरे ने मेनका को गर्भ कर दिया। ऋषियों का भीतरी हाल अप्सराएँ जानती हैं।

मैं-देवर्षि नारद कैसे पहुँचे हुए भक्त थे....

खट्टर काका - कि मोहिनी ने बंदर की तरह नचा दिया! अजी, यहाँ के मुनियों को सुंदरियाँ सदा से अँगुलियों पर नचाती आयी हैं। एक भूभ्रंग से उनकी सारी तपस्या भंग कर देती हैं।

मैं प्रह्लाद और विभीषण कैसे धर्मात्मा थे?

खट्टर काका- एक ने बाप को मरवाया, दूसरे ने भाई को भगवान ऎसे आदर्शों से भारत की रक्षा करें!

मैं - भीष्मपितामह कैसे मर्यादा-पालक थे?

खट्टर काका - जो भरी सभा में द्रौपदी को नग्न होते हुए देखकर भी चुप लगा गये!

मैं द्रोणाचार्य कितने महान थे।

खट्टर काका - कि स्वार्थवश एकलव्य जैसे शिष्य का अँँगूठा कटवा लिया। आज का छत्र रहता, तो दूर से ही अँँगूठा दिखा देता!

मैं अरुणि कैसे गुरुभक्त थे.....

खट्टर काका- जो गुरु के खेत में आड़ बाँँधने के बजाय खुद वहाँँ लेट गये! वह विशुद्ध मुर्खता का आदर्श दिखा गये हैं। ऎसे ही विद्यार्थी ढिबरी में तेल नहीं रहने पर दिन भर सूखे पत्ते बटोरते थे और रात में उन्हें जलाकर पढने बैठते थे।

मैने क्षुब्ध होते हुए देखा- खट्टर काका, तब ऎसी कथाओं की कोई उपयोगिता नहीं?

खट्टर काका बोले- उपयोगिता थी। उस समय के गुरु चालाक थे। विद्यार्थी मंदबुद्धि होते थे। इसीलिए गुरुभक्ति के ऎसे-ऎसे उपाख्यान गढे गये हैं। आचार्य लोग विद्यार्थियों से गायें चरवाते थे, लकड़ी कटवाते थे। प्रत्येक कथा में कुछ ना कुछ अभिप्राय भरा है। किसी ने बिना पूछे पेड़ से अमरुद तोड़ लिया होगा। उसी को लज्जित करने के लिए शंक लिखित की कथा रच डाली गयी। किसी राजा ने ब्राह्मण को गाय देकर छीन ली होगी। उसी को डराने के लिए राजा नृग की कहानी गढ दी गयी। राजा नृग ने इतनी हजार गौएं दान की, वे तो गयीं कोठी के कंधे पर! और, एक गाय भूली-भटकी उनके पास लौट आयी तो उन्हें हजारों वर्ष तक कुएँ में गिरगिट बनकर रहना पड़ा! अजी, नृग के वंशजों को जरा भी अक्ल रही होंगी, तो फिर कभी भूलकर भी गोदान का नाम नहीं लिया होगा।

मैंने कहा - खट्टर काका, आपसे कौन बहस करे? मगर देखिए, इसी भरत भूमि पर कैसे-कैसे राजा हो गये हैं! भरत को लेकर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। उनके पिता दुष्यंत यहाँ के भूषण थे।

खट्टर काका बोले- दुष्यंत ने कुमारी मुनिकन्या शकुंतला को दूषित कर दिया और पीछे पहचानने से भी इनकार कर दिया। ऎसे लंपट और कायर राजा को तुम भूषण कहते हो? दूषण कहो। दुष्यंत नाम भी तो वही सूचित करता है। अजी, एक से एक कामुक और विषयलोलुप राजा यहाँ हो गये हैं। राजा ययाति की वृद्धावस्था में इंद्रिय शिथिल हो जाने पर भी यौन लालसा नहीं मिटी तो पुत्र से यौवन उधार माँगकर भोग किया! ऎसी उद्दाम कामवासना का दृष्टांत और किसी देश के इतिहाएस में मिलेगा?

मैंने कहा- खट्टर काका, आप दूसरा पक्ष क्यों नहीं देखते हैं? इसी देश में शिवि-दधीचि जैसे आदर्श दानवीर भी तो हो गये हैं!

खट्टर काका बोले- हाँ, राजा शिवि ने अपना मांस काटकर दान किया। दधीचि ने अपनी हड्डी दान कर दी। तुम भी अपनी नाक काटकर किसी को दे दो, तो क्या मैं तुम्हें आदर्श मान लूँगा?

मैंने कहा- खट्टर काका, आप तो ऎसा दो-टूक कह देते हैं कि जवाब ही नहीं सूझता। लेकिन देखिए, ये सातों चरित्र अमर समझे जाते हैं-


अश्वत्थामा बलिर्व्यासः हनूमांश्च विभीषणः
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले- इस श्लोक का असली तात्पर्य समझे? दरिद्र ब्राह्मण, मूर्ख राजा, खुशामदी पंडित, अंध भक्त, कृतघ्न भाई, दंभी आचार्य एवं क्रोधी विप्र- ये सातों चरित्र इस भूमि पर सदा विद्यमान रहेंगे। यह देश का दुर्भाग्य समझो।

मैंने कहा- खट्टर काका, अपने यहाँ एक से एक आदर्श चरित्र भरे पड़े हैं और आपको कोई जँचता ही नहीं! देखिए, सती-सावित्री जैसी आदर्श देवियाँ इसी देश में हो गयी हैं।

खट्टर काका बोले- इन देवियों में किसी ने अपने बाप की बात नहीं मानी। माता-पिता से विद्रोह कर स्वेच्छानुसार प्रेम-विवाह किया। इन्ही को तुम आदर्श मानते हो ? आज अगर मेरी बेटी भी वैसा ही करने लग जाय , तो मुझे कैसा लगेगा ? इसलिए मैं सती-सावित्री के उपख्यान अपनी लड़कियों को नहीं पढ़ने देता । देखो, यह चरितावली मेरे घर में नहीं जाने पाए !

मैने क्षुब्ध होते हुए कहा - इन्ही आदर्शों को लेकर तो हमारा देश धर्मप्राण कहलाता है । यहाँ एक से एक अनुपम आदर्श हो गये हैं ।

खट्टर काका ने कहा - यह बात ठीक कहते हो । यहाँ ऎसे-ऎसे बेजोड़ नमूने हो गए हैं, जिनका दुनियां जबाब नही ! मोरध्वज पर आतिथ्य का उन्माद चढा, तो बेटे को आरे से चीरकर अतिथि के आगे रख दिया ! इसे सिद्धान्त कहोगे या पागलपन ? किसी पर दानोन्माद चढ़ता था, किसी पर सत्योन्माद ! एक स्त्री पर सतीत्व की सनक सवार हुई, तो कोढ़ी पति को सर पर लादकर उसे वेश्या के कोठे पर भोग कराने के लिए ले गयी ! तुम इन्हे आदर्श समझते हो । मैं कहता हूँ, ये लोग मानसिक विकृतियों के शिकार थे ।

मैंने कहा - खट्टर काका, अपने यहाँ के राजा और ब्राह्मण उच्च सिद्धांत पर चलते थे।

खट्टर काका बोले- अजी, राजा के पास बल था, बुद्धि नहीं। ब्राह्मण के पास बुद्धि थी, बल नहीं। एक बात-बात पर शस्त्र निकालते थे, दूसरे बात-बात पर शास्त्र निकालते थे। एक के हाथ में चाप चढा रहता था। दूसरे की जिह्वा पर शाप चढा रहता था। ब्राह्मण को सनक चढती थी, तो कोई वचन गढ लेते थे। राजा को सनक चढती थी तो कोई प्रण ठान लेते थे। ऎसे-ऎसे प्रणों के चलते न जानें इस देश में कितने प्राण गये हैं!

मैंने कहा- खट्टर काका, अपने यहाँ तो यह परंपरा रही है कि प्राण जाहीं पर वचन न जाहीं !

खट्टर काका बोले- यही तो मूर्खता है। सिद्धांत हमारे लिए बने हैं; हम उनके लिए नहीं बने हैं। वे हमारे साधन हैं, साध्य नहीं। अगर वे लक्ष्य की पूर्त्ति में साधक नहीं होकर बाधक बन जायँ, तो किस काम के? -वा सोना को जारिये जा सौं टूटॆ कान!

आज बचपन का मोजा तुम्हें नहीं अँटेगा, तो क्या उसी के मुताबिक अपना पाँव काट लोगे?

मैंने कहा - पर सिद्धान्त तो मौजे की तरह बदलनेवाली चीज नहीं है।

खट्टर काका बोले - 'क्यों नहीं है? कभी पति की चिता पर सती होनेवाली स्त्री देवी की तरह पूजी जाती थी। आज कोई ऎसा करने जाय, तो उसे पुलिस पकड़कर ले जाएगी।

मैंने कहा - किंतु जो सिद्धांतवादी हैं, वे कानून की दफा के अनुसार थोड़े ही चलते हैं?

खट्टर काका बोले-नहीं चलें। किंतु बुद्धि के अनुसार तो चलना ही चाहिए। ऎसा कोई सिद्धांत नहीं है, जिस पर आँख मूँदकर चला जाय। मान लो, कोई गुरु विद्यार्थी को आदेश देते हैं-'पूरब की ओर जाओ।' अब यदि वह विद्यार्थी नाक की सीध में बढता चला जाय और किसी ताड़ के पेड़ से टकरा जाय और वहाँ जिद पकड़ ले कि 'एक इंच भी पेड़ से इधर या उधर होकर नहीं जाऊँगा, तो क्या इसे आदर्श कहोगे या बेवकूफी? इस अक्खड़पन के चलते कितने राजा कट मरे, कितनी रानियाँ जल मरीं कितने महल खँडहर हो गये! सारा इतिहास तो इन्हीं मूर्खताओं से भरा है।

मैंने कहा - खट्टर काका, तो फिर ऎसे पौराणिक उपाख्यान क्यों बने?

खट्टर काका कहने लगे-अजी, राजाओं को ठगने के लिए, विद्यार्थियों और शूद्रों से सेवा कराने के लिए, स्त्रियों को बस मे रखने के लिए, इतने सारे उपाख्यान गढे गए हैं । उपाख्यानकार जिस नैतिक आदर्श का चित्रण करते हैं, उसे पराकाष्ठा पर पहुँचा देते हैं । सतीत्व की महिमा दिखलाती हुई, तो कही सती के ऑंचल में आग की लपट निकलती है । कोई स्वामी को यमराज के हाथ से छीनकर ले आती है । कोई सूर्य के चक्के को रोककर काल की गति बन्द कर देती है । बिना अतिशयोक्ति के उन्हे बोलना ही नही आता । नतीजा यह हुआ कि आदर्शों के चित्र फोटो नहीं होकर महज कार्टून (विद्रूप) बन गए हैं ।

मैने पूछा - तब इन पौराणिक आदर्शो का कोई मूल्य नहीं ?

खट्टर काका बोले - वही मूल्य, जो अजायब घर में रखी, पुरानी जंग-लगी ढाल-तलवारों का होता है । वे प्रदर्शन के लिए होते हैं, व्यवहार के लिए नही ।

मैं - खट्टर काका, चरित्र-चित्रणों मे इतनी अतिशयोक्ति क्यों है ?

खट्टर काका बोले - अजी, अतिशयोक्ति हमारे रक्त में है । वैदिक युग से ही हम जिसकी प्रशंसा करते हैं, उसे त्वमर्कः त्वं सोमः करते हुए आकाश मे चढा देते हैं । जिसकी निन्दा करनी होती है, उसे पाताल मे धॅंसा देते हैं । 'जेहि गिरि चरण देहि हनुमन्ता, सो चलि जाँहि पताल तुरंता !' बीच का रास्ता हम जानते ही नहीं ।

देखो न, हमारा सारा साहित्य ही अतिशयोक्ति से भरा हुआ है । बड़ी ऑंखें अच्छी लगी तो उन्हे कान तक सटा दिया । पुष्ट पयोधर पसंद आये, तो उन्हे कलशों के बराबर बना दिया । अजी सब बातों की एक सीमा होती है । यहाँ तो कोई सीमा ही नहीं ! 'मुख मस्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरीतिकी !'

जिसे जो मन मे आया, लिख मारा । कोई पहाड़ उठा लेता है । कोई समुद्र सोख जाता है ! कोई पृथ्वी को दाँतों मे रख लेता है कोई सूर्य को निगल जाता है । कोई चतुरानन, कोई पंचानन, कोई षडानन, कोई दशानन ! कोई चतुर्भुज, कोई अष्टभुज, कोई सहस्रभुज ! कोई एक सहस्र वर्ष युद्ध करता है । कोई पाँच सहस्र वर्ष युद्ध करता है । कोई दस सहस्र वर्ष भोग करता है ! इन्ही अति शयोक्तियों के प्रवाह में हमने सत्य को डुबो दिया ।

मैने पूछा - तो क्या ये सारी बातें कपोल कल्पित हैं ?

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले - जब तक हमारे देश में दिग्गज पंडित मौजूद हैं, तब तक ऎसी बात कहने की धृष्टता कौन कर सकता है ? हमारे एक महावीर जी आ जायॅं तो सभी देशों की सेनाओं को अपनी पूछ मे लपेट लें । एक अगस्त्य मुनि आ जाय, तो जहाज सहित सभी समुद्रों को सोख जायॅं ! एक वराह अवतार हो जाय तो सारी पृथ्वी को उठाकर फूटबॉल की तरह फेंक दे ! एक वामन आवें तो डेग भर मे चन्द्रमा को नाप लें ! और देशवाले आविष्कार करते रहें, हम लोगों का काम अवतार से ही काम चल जाता है । एक अवतार अभी और हो जाय, तो सारी समस्याएँ हल हो जायँ । एक हुंकार से खाद्यान्न का पहाड़ लग जाय ! एक वाण से दूध-दही का समुद्र लहराने लगे !

मैने कहा - खट्टर काका, आपने तो अतिशयोक्ति की धारा बहा दी ।

खट्टर काका हॅंसते हुए बोले - अजी हम वंशज किसके हैं ? रक्त का धर्म कहीं छुटता है ? विज्ञान की उन्नति करने के लिए तो और देश हैं ही । कल्पना-विलास का भार भी तो किसी पर रहना चाहिए !

अच्छा भाई । अपना अलबम ले जाओ । मुझे ऎसे आदर्श नहीं चाहिए । मैं यथार्थवादी हूँ ।