रामायण

खट्टर कका के तरंग लेखक : हरिमोहन झा


खट्टर काका रामनवमी के फलाहार के लिए किशमिश चुन रहे थे।

मैंने कहा- खट्टर काका, आज रात मैदान में रामलीला है। चलिएगा ?

खट्टर काका ने पुछा-कौन-सी लीला होगी?

मैं- सीता-वनवास।

खट्टर काका .- तब नहीं जाऊँगा।

मैं- सो क्यों, खट्टर काका ? मर्यादा पुरुषोत्तम एक से एक आदर्श दिखा गये हैं।

खट्टर काका बोले- हाँ, सो तो दिखा ही गये हैं। अबला को कैसे दुःख देना चाहिए! सती-साध्वी पत्नी को कैसे घर से निकाल देना चाहिए! किसी स्त्री की नाक कटवा लो। किसी स्त्री पर तीर छोड़ दो। समझो तो नारी को रुलाने से ही उनकी वीरता शुरू होती है, और उसी से समाप्त भी।

मैं - खट्टर काका, भगवान ने मनुष्य का अवतार लेकर ये सब लीलाएँ की हैं।

खट्टर काका बोले- क्या बिना निष्ठुरता के लीला नहीं हो सकती थी?

लेकिन असल में उनका उतना दोष नहीं है। उन्हें आदि में ही विश्वामित्र जैसे गुरू मिल गये, जिन्होंने तारकावध से ही विद्यारंभ कराया। नहीं तो राम का प्रथम वाण कहीं स्त्री पर छुटता?

लेकिन विश्वामित्र की तो उलटी खोपड़ी थी। उन्होंने अपने नाम में अमित्र शब्द को मित्र सिद्ध करने के लिए व्याकरण का नियम उलट दिया, राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनने के लिए वर्णव्यवस्था का नियम पलट दिया, वशिष्ट के साथ प्रतिस्पर्धा करने में नीति- मर्यादा को कर्मनाशा में भसा दिया।

फिर राम को क्या शिक्षा देते ? स्वयमसिद्धः कथं परान् साधयति!

मैंने कहा - खट्टर काका , रामचंद्रजी न्याय का आदर्श दिखा गये हैं। न्याय की खातिर सीता जैसी पत्नी को भी वनवास देने में कुंठित नहीं हुए।

खट्टर काका बोले-नहीं जी। इनके कुल की रीति ही ऎसी थी। बाप ने इनको वनवास दिया। इन्होंने स्त्री को वनवास दिया। तुम न्याय की दुहाई देते हो। न्याय क्या यही है कि किसी के कहने पर किसी को फाँसी पर चढा दिया जाय?

न्याय ही करना था तो वादी-प्रतिवादी, दोनों को राजसभा में बुलाते। दोनों पक्षों के वक्तव्य सुनकर न्याय-सभा में जो निष्पक्ष निर्णय होता, सो करते। परंतु सो सब तो किया नहीं। चुपचाप सीताजी को वन में भेज दिया। यह कौन आदर्श हुआ? एक साधारण प्रजा को जितना अधिकार मिलना चाहिए, उतना भी सीता महारानी को नहीं मिला।

मैं- परंतु रामजी को तो प्रजा-रंजन का आदर्श दिखलाना था......

खट्टर काका-गलत बात।

अयोध्या की प्रजा यह कभी नहीं चाहती थी। इसीलिए रातोरात चुपके से रथ हाँका गया। और, लक्ष्मण तो सबमें हाजिर। शूर्पणखा की नाक काटो, तो चाकू लेकर तैयार! सीता को जंगल में छोड़ आऒ, तो रथ लेकर तैयार!

सुबह होते ही प्रजा को खबर हुई तो संपूर्ण अयोध्या में हाहाकार मच गया। परंतु राजा राम ने अपने हठ के आगे प्रजा की प्रार्थना सुनी ही कब?

अपने वनवास में प्रजा की कौन-सी बात रखी कि सीता-वनवास में रखते!

मैंने कहा - खट्टर काका , वह तो पिता का वचन पालन करने के लिए वनवास गए थे।

खट्टर काका बोले - जरा तर्कशास्त्र लगाओ। वनवास का क्या अर्थ?

सर्वेषु वनेषु वासः (सभी वनों में वास) अथवा कस्मिश्चिद वने वासः (किसी वन में वास)?

यदि पहला अर्थ लो, तो सो उन्होंने किया नहीं। संभव भी नहीं था। और, यदि दूसरा अर्थ लो, तो फिर अयोध्या के निकट ही किसी वन में रह जाते। चित्रकूट में ही चौदह वर्ष बिता देते।

तो भी पिता की आज्ञा का पालन हो जाता। फिर, हजारों मिल दूर भटकने की क्या जरूरत थी! सो भी पैदल, सुकुमारी सीता को साथ लेकर! यही बात मिथिला के नैयायिक (गौतम) ने पूछी, तो राम कुछ उत्तर नहीं दे सके।

खीझकर कह दिया-


यः पठैत् गौतमी विद्यां श्रृगालीयोनिमाप्नुयात्!
(जो गौतम की विद्या पढे, सो गीदड़ होकर जन्म ले। )

भला, यह भी कोई जवाब हुआ! क्या शास्त्रार्थ करना भूँकना है? वह मिथिला का न्याय पढे रहते, तो अन्याय नहीं करते।

खट्टर काका गरी काटते हुए बोले-मान लो, यदि जनता एक स्वर से यही कहती कि सीता को राज्य से निर्वासित कर दीजिए, तथापि राम का अपना कर्त्तव्य क्या था?

जब वह जानते थे कि महारानी निर्दोष हैं, अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण हो चुकी हैं, तब संसार के कहने से ही क्या?

वह अपने न्याय पर अटल रहते। यदि प्रजा-विद्रोह की आशंका होती, तो पुनः भरत को गद्दी पर बैठाकर दोनों जने जंगल की राह पकड़ते तब आदर्श-पालन कहलाता।

परंतु राजा राम ने केवल राज्य ही समझा, प्रेम नहीं। महारानी सीता तो अपने पत्नीधर्म के आगे संसार का साम्राज्य ठुकरा देतीं, लेकिन राम राजा अपने पतिधर्म के आगे अयोध्या की गद्दी नहीं छोड़ सके। सती-शिरोमणि सीता के लिए वह उतना भी त्याग नहीं कर सके, जितना विलायत के एक बादशाह (अष्टम एडवर्ड) ने अपनी एक चहेती के लिए किया!

मैं - खट्टर काका , जान पड़ता है सीता-वनवास से आपको गहरा क्षोभ है।

खट्टर काका .- क्यों न हो?

सीता का जीवन दुःख में ही गया। बेचारी को कभी सुख नसीब नहीं हुआ। जंगलो में कहाँ-कहाँ स्वामी के साथ भटकती फिरी और जब महल में रहने का समय आया, तो निकाल दी गयी। वन में तो हाय सीता!

हाय सीता!

उनके लिए आकाश-पाताल एक कर दिया गया। समुद्र पर पुल बाँधा गया। और वही सीता जब लौटकर आयी, तो घर में रहने भी नहीं पायी। इसी से तो मिथिला के लोग कहते हैं कि पश्चिम की तरफ बेटी नहीं ब्याहनी चाहिए!

खट्टर काका की आखों में पानी भर आया। वह थोड़ी देर क्षुब्ध रहे। फिर कहने लगे-सीता के समान देवी के प्रति ऎसी निर्दयता!

वह तन, मन, वचन से राम की सेवा में लीन रही। उनके चरणों के पीछे-पीछे चली। किन-किन दुर्गम अरण्यों में घूमी! उन्हीं के तोष के लिए आग तक में कूद पड़ी!

अग्नि-प्रवेश के समय सीताजी ने कहा था -


जौ मन वच क्रम मम उर माहीं
तजि रघुवीर आन गति नाहीं
तौ कृसानु सब कै गति जाना
मों कहॅं होउ श्रीखंड समाना

और अग्नि की ज्वाला चंदन के समान शीतल बन गयी! श्रीखंड सम पावक प्रवेश किया सुमिरि प्रभु मैथिली

वह तपाए हुए सोने की तरह चमकती हुई बाहर निकल आयी। परंतु उस सर्वश्रेष्ठ सती के साथ कैसा हृदयहीन व्यवहार हुआ!

आठवें महीने में घर से निकाल दी गयी। निष्ठुरता की बलिहारी है! सीता मिथिला की कन्या थी, 'सी' अक्षर बॊलने वाली नही। तभी तो! और जगह की होती तो दिखा देती। अजी, मैं पूछता हूँ, यदि संबंध ही तोड़ना था तो सीताजी को पिता के घर जनकपुर भेज देते। वैसे घोर जंगल में कैसे भेजा गया! बेचारी सीता को इस पृथ्वी पर न्याय की आशा नहीं रही, तो पाताल में प्रवेश कर गयी। जिस मिट्टी की कोख से निकली थी, फिर उसी में विलिन हो गयी। विश्व की सर्वश्रेष्ठ सती का ऎसा करुण अंत! तभी तो पृथ्वी फट गयी!

मैंने सांत्वना देने के निमित्त कहा- खट्टर काका, फसाद की जड़ हुई वह धोबिन।

खट्टर काका की आँखें लाल हो गयीं। बोले- मैं तुमसे पूछता हूँ कि कोई धोबी रूठकर गधे की पीठ पर से गिर जाय, तो क्या मैं तुम्हारी काकी को घर से निकाल दूँगा?

परंतु रामचंद्र को तो वैसे ही लोगॊं का ज्यादा साथ रहा। निषाद, केवट, भिल्लिनी, गीध, भालू, बंदर-इन्हीं सबके बीच तो रहे।

बाप ने मूर्खा दासी की बात पर बेटे को वनवास दिया, इन्होंने मूर्ख धोबी की बात पर स्त्री को वनवास दिया। उनके दरबार में छोटों की ही चलती थी। घर में मंथरा, बाहर में दुर्मुख।

मैं - खट्टर कका, वह नीति के पालनार्थ.....

खट्टर काका बोले-नीति नहीं, अनीति कहो। यदि नीति का ही आदर्श दिखलाना था, तो फिर बालि को उस पेड़ की आड़ से छिपकर क्यों मारा? आमने-सामने लड़कर मारते। उस समय कालहुँ डरै न रन रघुवंशी वाला वचन कहाँ गया! इसीलिए बालि ने चुटकी ली थी -


धरम हेतु अवतरेउ गोसाईं
मारेहु मोहि ब्याध की नाईं


यदि मर्यादा की रक्षा करनी थी, तो वही अनीति करने के कारण सुग्रीव को भी क्यों नहीं दंड दिया? विभीषण को क्यों नहीं मारा? रामायण कार को भी स्वीकार करना पड़ा है-


जेहि अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली
फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली
सोइ करतूत विभीषण केरी
सपनेहु सो न राम हिय हेरी


प्राणदंड दिया किसको तो बेचारे शंबूक को, जो चुपचाप सात्त्विक वृत्ति से तपस्या कर रहा था।

मैं- परंतु मर्यादा पुरुषोत्तम......

खट्टर काका .- तुम मर्यादा पुरुषोत्तम कहो, परंतु मुझे तो उनमें उतावली ही दिखलायी पड़ती है। बच्चे की तरह सुनहले मृग के पीछे क्यों दौड़ गये! सीता के वियोग में पे को पकड़- पकड़कर क्यों प्रलाप करने लगे?

कहाँ तो सुग्रीव से इतनी गाढ दोस्ती, और जहाँ बेचारे को सीता की खोज में कुछ देर हुई कि तुरंत धनुषवाण लेकर तैयार! न तो समुद्र की पूजा करते देर और न उस पर प्रत्यंचा कसते देर! और, जब लक्ष्मण को शक्तिवाण लगा तो रणभूमि में विलाप करने लगे। ऎसी अधीरता कहीं वीरों को शोभा देती है!

खट्टर काका बादाम काटते हुए बोले - असल मे समझो तो राम का दोष नहीं है। उनके पिता दशरथ ही जल्दबाज थे। शिकार खेलने गये। घाट पर शब्द सुना। चट तीर छोड़ दिया। यह नहीं सोचा कि कोई आदमी भी तो वहाँ हो सकता है।

बेचारे श्रवणकुमार को बेध दिया। अंधा पिता पुत्रवियोग में मर गया। उसका फल मिला कि वह स्वयं भी पुत्रवियोग में मरे। अजी, दो पटरानियाँ थी ही, तो बुढापे में तीसरी शादी करने का शौक क्यों चर्राया? और, वृद्धस्य तरुणी भार्या प्राणेभ्योपि गरीयसी।

कैकेयी में ऎसे लिप्त ही गये कि युद्धक्षेत्र में भी बिना उन्हें बगल में बैठाये रथ पर नहीं चलते थे। और, रथ भी कैसा था कि असली मौके पर ही टूट गया। नाम तो दशरथ! और, एक रथ भी काम का नहीं! नहीं तो कैकेयी को पहिए में अपनी कलाई क्यों लगानी पड़ती? और, बलिहारी है उस कलाई की भी जो धुरी में पड़कर भी नहीं लचकी। तभी तो रानी का कलेजा भी वैसा ही कठोर था! किसी तरह पत्नी के प्रताप से वृद्ध राजा के प्राण बच गये। स्त्री को आँख मूँदकर वचन दिया-तुम जो माँगोगी, वह दूँगा।

इतनी बुद्धि नहीं कि यदि आकाश का तारा माँग बैठी, तब क्या करूँगा! और, जब राम का वनवास माँगा तो राजा छपटाने लगे। कैकेयी ने तो बहुत पत रखी। यदि कहीं कलेजा माँग बैठती तो सत्यपालक दशरथ महाराज क्या करते? और, जब एक बार वचन दे ही दिया तो पीछे छाती क्यों पीटने लगे? चौदह वर्ष के बाद तो बेटे का राज होता ही।

तब तक धैर्य से प्रतीक्षा करते। यदि बहुत अधिक पुत्रस्नेह था तो खुद भी साथ लग जाते। सो सब तो किया नहीं। हा राम! हा राम! करते हुए प्राण त्याग दिया। क्षत्रिय का हृदय कहीं ऎसा कमजोर हो!

मैने देखा कि खट्टर काका जिस पर लगते उसका बंटाधार ही कर देते हैं। अभी दशरथ जी पर लगे हुए हैं। प्रकाश्यतः कहा- खट्टर काका, और लोग रामायण के चरित्र से शिक्षा ग्रहण करते हैं.......

खट्टर काका - शिक्षा तो मैं भी ग्रहण करता हूँ। बिना देखे तीर नहीं चलाना चाहिए। बिना विचारे वचन नहीं देना चाहिए। वचन दे देने पर छाती नहीं पीटना चाहिए।

मैं - खट्टर काका , आप केवल दोष ही देखते हैं?

खट्टर काका - तो गुण तुम्ही दिखलाओ।

मैं- देखिए, महाराज दशरथ कैसे सत्यनिष्ठ थे....

खट्टर काका .- कि नकली श्रवण कुमार बनकर अंधे माता-पिता को फुसलाने गये!

मैं - रामचंद्र कैसे पितृभक्त थे....

खट्टर काका - कि पिता के मृत्यु का समाचार पाकर भी ना लौटे! ज्येष्ठ पुत्र होकर भी पिता का श्राद्ध तक नहीं किया! सीधे दक्षिण की ओर बढते चले गये।

मैं - लक्ष्मण कैसे भ्रातृभक्त थे....

खट्टर काका - कि एक भाई( राम ) की ओर से, दूसरे भाई (भरत) पर धनुष-वाण लेकर तैयार हो गये।

मै-भरत कैसे त्यागी थे....

खट्टर काका - कि चौदह वर्ष तक भाई की खोज खबर नहीं ली! राजधानी से फुर्सत मिलती, तब तो जंगल में जाकर पता लगाते! अजी, यदि वह अयोध्या से सेना सजाकर ले जाते तो राम को बंदरों का सहारा क्यों लेना पड़ता?

मैं-हनुमानजी कैसे स्वामिभक्त थे....

खट्टर काका - कि अपने स्वामी सुग्रीव को छोड़कर दुसरे की सेवा में चले गये।

मैं-विभीषण कैसे आदर्श थे ....

खट्टर काका - कि घर का भेदिया लंका डाह करा दिया। ऎसे विभीषण से भगवान देश को बचावें।

मैं- तो आपके जानते रामायण में एक भी पात्र आदर्श नहीं है?

खट्टर काका - है क्यों नहीं! मुझे समूची रामायण में एक ही पात्र आदर्श जान पड़ता है!

मैं - वह कौन है?

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले- रावाण ।

मैं- आपको तो हमेशा मजाक ही सूझता है।

खट्टर काका - हॅंसी नही करता हूँ। तुम रावण में एक भी दोष दिखलाओ।

मैं-धन्य हैं खट्टर काका! और लोगों को रावण में दोष होई दोष दीखते हैं, और आपको एक भी नहीं?

खट्टर काका - तो तुम्हीं बतलाओ।

मैं-वह सीता को हरकर ले गया....

खट्टर काका - सो तो मर्यादा पुरुषोत्तम को शिक्षा देने के लिए कि किसी की बहन का नाक-कान नहीं काटना चाहिए। परदेश में रहकर किसी से वैर नहीं मोल लेना चाहिए।

मृगमरीचिका के पीछे नहीं दौड़ना चाहिए। किसी स्त्री का अपमान नहीं करना चाहिए। देखो, लंका ले जाकर भी रावण ने सीता का अपमान नहीं किया। रनिवास में नहीं ले गया, अशोकवाटिका में रखा। लोग राक्षस कहें, परंतु उसका व्यवहार जैसा सभ्यतापूर्ण हुआ है, वैसा विरले ही मनुष्यों का होता है।

मै.-खट्टर काका, आप तो उल्टी गंगा बहा देते हैं। रावण जैसे अन्यायी का पक्ष ग्रहण करके सीतापति सुंदर राम को....

खट्टर काका - सीतापति निष्ठुर श्याम कहो। विदेह की कन्या अयोध्या गयी, इसका फल हुआ कि फिर लौटकर मायके का मुँह नहीं देख सकी। इसी से तो हम लोग पश्चिम से भड़कते हैं।

मैं - खट्टर काका , आपको सीता के ससुरालवालों से शिकायत है। यदि रामचंद्रजी से आपकी भेंट होती तो क्या कहते? प्रणाम भी करते कि नहीं?

खट्टर काका चिलगोजे छुड़ाते हुए बोले-प्रणाम कैसे करता? मैं ब्राम्हण, वह क्षत्रिय। हाँ, आशीर्वाद अवश्य देता कि "सुबुद्धि हो। अब आगे राम राज हो, तो ऎसा मत कीजिएगा, जिससे लोग छिः छिः राम राम करें! किसी मेरे जैसे ब्राह्मण को मंत्री बनाइएगा।

मैंने कहा-खट्टर काका, रामराज तो आदर्श माना जाता है।

खट्टर काका बोले-हाँ। गुसाईंजी लिखते हैं-


नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना मैं रहता तो जोड़ देता- केवल सीता भाग्य विहीना!

कहीं राम राज की तरह ग्रामराज भी चलने लगे, तो न जानें कितनीसीताएँ मिट्टी में मिल जाऍंगी।

मैं-खट्टर काका, आप राम-नवमी का व्रत रखते हैं। मन में तो भक्ति रखते ही होंगे।

खट्टर काका - सो सीतादेवी के कारण। नहीं तो, वह सीधे रघुपति राघव राजा राम रहते। पतितपावन सीताराम नहीं कहलाते। जो-जो काम उन्होंने किए हैं, वे सब तो क्षत्रिय राजा करते ही हैं।

केवल एक ही बात को लेकर उनकी श्रेष्ठता है कि दूसरी पत्नी उन्होंने नहीं की। जानकीजी की स्वर्ण-प्रतिमा बनाकर शेष जीवन बिताया। इसी बात पर मैं उनके सारे अपराध माफ कर देता हूँ। सीता को लेकर ही राम का महत्व है। इसी से पहले सीता, तब राम।

गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-

सियाराम मय सब जग जानी
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी

महर्षि वाल्मीकि भी कहते हैं -

सीतायाः पतये नमः

मैं - खट्टर काका , आपको सीताजी में इतनी श्रद्धा है तो फिर रामजी को ऎसा क्यों कहते है? उनके पिता तक को आपने नहीं छोड़ा।

खट्टर काका हॅंस पड़े। बोले-अजी, तुम इतना भी नहीं समझते हो!

मैं उनकी ससुराल का आदमी हूँ न! ससुराल का नाई भी गालियाँ देता है, तो मीठी लगती हैं। और, मैं तो ब्राह्मण ठहरा।

दूसरा ऎसा कहेगा सो मजाल है? परंतु मिथिलावासी तो कहेंगे ही। मैथिल का मुँह बंद कर दें, सो सामर्थ्य भगवान में भी नहीं है।