उस दिन मैं वैद्यनी के औषधालय में बैठा हुआ था ।
तब तक पहुँच गये खट्टर काका ।
वैद्यजी के हाथ में 'भावप्रकाश' देखकर बोले-अहा! क्या सुंदर काव्य है भावप्रकाश!
बैद्यजी विस्मित होते हुए बोले-'भावप्रकाश' आयुर्वेद का प्रामाणिक ग्रंथ है। इसे आप काव्य' कहते हैं!
खट्टर काका बोले-मैं तो पूरे आयुर्वेद को ही महाकाव्य मानता हूँ। कहिए तो, ज्वर की उत्पत्ति कैसे हुई है ?
वैद्यजी ने भावप्रकाश का उद्धरण देते हुए कहा -
दक्षापमान संक्रुद्धः रुद्रनिःश्वाससंभवः
अर्थात् “जब दक्ष प्रजापति के यहाँ महादेवजी का अपमान हुआ, तब उन्होंने क्रुद्ध होकर फुफकार छोड़ी। उससे जो दाह उत्पन्न हुआ, वही ज्वर है।
खट्टर काका बोले--अब कहिए, वैद्यजी! दुनिया में किसी डाक्टर के दिमाग में ऐसी कल्पना आयी होगी? इसी कारण मैं 'आयुर्वेद' को काव्य' कहता हूँ ।
वैद्य-परंतु आयुर्वेद में इतने द्रव्य-गुणों के जो विवेचन भरे हैं ?
खट्टर-उनमें भी वही अलंकार है। कहिए तो, पारा क्या है ?
वैद्यजी पुनः भावप्रकाश का श्लोक पढ़ते हुए बोले-
शिवाइगात् प्रच्युतं रेत: पतितं धरणीतले
अर्थात् “शिवजी की धातु पृथ्वी पर गिर गयी, वही पारा है।”
खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले--हाँ, इसी से सफेद! इसी से चिकना! इसी से रसराज! और गंधक क्या है, महाराज ?
वैद्यजी पुनः भावप्रकाश का श्लोक पढ़ने लगे -
श्वेतद्वीपे पुरा देव्या: क्रीडंत्या: रजसा प्लुतम्
डुकूल॑ तेन वस्त्रेण स्नाताया: क्षीरनीरधी
प्रसूतः तद्रजस्तस्माद् गंधकः समुदीरितः
अर्थात् “एक समय श्वेतद्वीप में क्रीड़ा करते-करते देवीजी स्खलित हो गयी । तब क्षीर-समुद्र में स्नान किया । उसमें कपड़े से धुलकर जो रज गिरा, वही गंधक है ।” खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले-इसी से लाल! इसी से गंधपूर्ण! इसी से पारा शोधने की शक्ति से युक्त! क्यों वैद्यजी, ऐसी सरस कल्पना किसी 'साइंस” विज्ञानी में मिल सकती है ?
मैंने कहा-खट्टर काका, आयुर्वेद में इस तरह की बातें कैसे आ गर्यी ? खट्टर-अजी, इस देश की जलवायु के कण-कण में रसिकता भरी हुई है। जहाँ विज्ञान ने थोड़ा सिर उठाया कि तुरत कविता-कामिनी आकर छाती पर सवार हो जाती है। समझो तो अपने देश के विज्ञान को खा गया काव्य। 'काव्येन गिलितं शास्त्रम्'। आयुर्वेद को काव्य इस रूप से ग्रस्त किये हुए है कि “भावप्रकाश” और 'भामिनी-विलास' में विशेष अंतर नहीं ।
इसी कारण वैद्य लोगों को 'कविराज” कहा जाता है। साधारण कवि नहीं, कविराज!
मैं - वाह! यह तो अनूठी कही।
खट्टर-मुझसे तो अनूठी ही सुनोगे। महादेव को वैद्यनाथ' क्यों कहते हैं, सो जानते हो ?
मैं-नहीं, खट्टर काका!
खट्टर-तो सुनो । महादेव के श्वास से ज्वर उत्पन्न हुआ, जिससे वैद्य लोगों की जीविका चलती है ।
उन्हीं की धातु से पारा निकला, जिससे वैद्य लोग मकर॒ध्वज' बनाते हैं ।
उन्हीं की बूटी (भंग) से वैद्यलोग मोदक बनाकर रुपये में तीन अठन्नियाँ बनाते हैं। तब यदि महादेव वैद्यगाथ न कहलाएँ तो कौन कहलाए! मैं--धन्य हैं, खट्टर काका! आप जो न सिद्ध कर दें!
ख़ट्टर काका बोले-अजी, समझो तो वैद्य भी एक प्रकार के महादेव ही होते हैं। उन्हीं की तरह भस्म के प्रेमी! बूटी के पीछे बेहाल!
वह त्रिशूल से रक्षा करते हैं, तो ये भी त्रिशूल (उदरशूल, हृदयशूल, मस्तकशूल) से रक्षा करते हैं। उन्होंने भस्मासुर का संहार किया, तो ये भी भस्मक रोग का संहार करते हैं।
उन्होंने त्रिपुए का अंत किया, ये न जानें कितने पुरों का अंत करते हैं! वैद्यजी ने रुष्ट होकर कहा-परंतु वैद्य रक्षा भी तो करते हैं ?
आयुर्वेद में एक-से-एक चमत्कारी रसायन भरे पड़े हैं।
खट्टर काका बोले--सबसे बढ़कर रसराज रस यानी श्रृंगार रस! मैंने चकित होकर पूछा-ऐं! आयुर्वेद में श्रृंगार रस!
खट्टर काका बोले-अजी, कुछ ऐसा-वैसा! देखो, लोलिम्बराज गर्मी का कैसा सरस उपचार बताते हैं!
हारावली.. चंदनशीतलानां
सुगंध... पुष्पांवरशोभितानाम्
नितम्बिनीनां सुपयोधराणाम्
आलिंगनान्याशु हरन्ति दाहम्
अर्थात्, “सुगंधित पुष्प-माला और चंदन से शीतल शरीरवाली पीन पयोधरा और पुष्टनितम्बिनी युवतियों के आलिंगन दाह को तुरत दूर कर देते हैं।”
जघनचक्रचलन् मणिमेखला
सरसचंदनचंद्रविलेपना
वनलतेव तनु परिवेष्टयेत
प्रबलतापनिपीडित मंगना
अर्थात्, “चंदन-कपूर का लेप किये हुए रमणी मणिमेखलायुक्त जघन-चक्र चलाती हुई, संपूर्ण शरीर में वनलता की तरह लिपट जाय, तो प्रबल ताप को भी शांत कर देती है।” अब तुम्हीं बताओ, इसे रोगशास्त्र कहोगे या भोगशास्त्र ?
मैंने पूछा-वैद्यजी, आप कया कहते हैं ?
वैद्यजी कुछ झेंपते हुए बोले-हाँ, ये श्लोक तो हैं। लेकिन सिर्फ गर्मी के लिए ऐसे उपचार बताये गये हैं।
खट्टर काका ने कहा-महाराज! सर्दी की दवा भी कम रसीली नहीं है-
तं स्तनाम्यां सुपीनाम्यां पीवरोरुर्नितग्बिनी
युवती गाढमालिंगेत् तेन शीत प्रशाभ्यति
अर्थात् “मांसल जंघा और स्थूल नितंबवाली युवती अपने पीन स्तनों से गाढ़ालिंगन करे, तो सर्दी दूर हो जाती है!”
ऐसा नुसखा किसी डाक्टरी किताब में मिलेगा? जाड़े में भी युवती! गर्मी में भी युवती! युवती क्या हुई, चाय की प्याली हुई! महाराज, जब युवती भी आष्यर्या में है तो और-और दवाओं के साथ उसे भी आलमारी में क्यों नहीं रखते हैं ?
वैद्यनी कटकर रह गये। मैंने पूछा-खट्टर काका, ऐसी रसिकता आयुर्वेद में कैसे आ गयी ?
खट्टर काका बोले-अजी, बात यह है कि आयुर्वेद मुख्यतः वैसे विलासी राजाओं के लिए बना है, जिनका एकमात्र व्यायाम था नखक्षत !
मन को उत्तेजना देने पर कवि रहते थे, तन को उत्तेजना देने पर कविराज ! एक रस द्वारा, दूसरे रसायन द्वारा। काव्य और आयुर्वेद दोनों मौसेरे भाई, एक ही दरबार में पले हुए हैं ।
इसी से जो रंग जगननाथराज पर है, वही रंग लोलिम्बराज पर | कालिदास का ऋतुसंहार पढ़ो या सुश्रुत की ऋतुचर्या, एक ही बात है। बैद्यजी ने पूछा--आप ऐसा क्यों कहते हैं ?
खट्टर काका ने भावप्रकाश आगे बढ़ाते हुए कहा देखिए
कस्तूरीवर कुंकुमागरुयुतामुष्णाग्बुशीच॑तथा
स्निग्धं स्त्रीपु सुखं गुरूष्णवसनं सेवेत हेमंतके
यह हेमंतचर्या किसके लिए है! जिसके केलि-कक्ष में केसर-कस्तूरी-कदंब कलित कामिनियाँ किलोल करती रहें! औरों के लिए तो अग्रहण शब्द ही सार्थक है।
आयुर्वेद राजा-महाराजों की वस्तु है। इसी से ऋतुचर्या का मुख्य अर्थ हो गया, किस समय कैसे भोग करना चाहिए।
वैद्य-इसका तात्पर्य था कि भोग को मर्यादा की सीमा में रखा जाय। खट्टर काका ग्रंथ के पृष्ठ उलटते हुए कहने लगे-देखिए, इसी सीमा को लेकर तो आचार्यों में झगड़ा है।
एक आचार्य का मत है
अर्थात्, तीन-तीन दिनों पर रमण करना चाहिए। दूसरे आचार्य को इतने से संतोष नहीं। वह कहते हैं
प्रकाम॑ तु निषेवेत मैथुनं शिश्चिरागमेजाड़े के समय में कौन हिसाब-किताब? जितना मन हो, उतनी बार रमण कीजिए |
तीसरे आचार्य इनसे भी आगे टप जाते हैं-
नित्यं बाला सेव्यमाना नित्यं वर्धवते बलम्
जाड़ा क्या और गर्मी क्या? प्रतिदिन बाला का सेवन करना चाहिए ।
चौथे आचार्य समय की तालिका भी बना देते हैं-
“जाड़े की रात में, गर्मी के दिन में, बसंतऋतु में रात या दिन किसी समय, वर्षाऋतु में जभी मेघ का गर्जन हो, शरत्ऋतु में जभी काम का वेग हो, रमण करना चाहिए।”
पाँचवें आचार्य और भी गुरुघंटाल निकलते हैं-
निदाधशरदोर्बाला हिता विषयिणां मता
तरुणी शीतसमये प्रौढ़ा वर्षावसन्तयो:
गर्मी और शरद में बाला', जाड़े में 'तरुणी', और वर्षा तथा वसंत में श्रढ़ा' पथ्य होती है। जैसे, वे सेब, पपीता या कहू हों! अब इन तीनों का 'सेट' हर साल बना रहे, तब तो ऋतुचर्या का ठीक-ठीक पालन हो! लेकिन ऐसा तो उन्हीं के लिए संभव है, जिनके उद्यान में बारहों मास बदरीफल से लेकर श्रीफल तक विद्यमान रहें।
मैं-खट्टर काका, बात पूरी तरह समझ में नहीं आयी। बाला, तरुणी और प्रीढ़ा में क्या अंतर है ?
खट्टर-यह भी इसी ग्रंथ में देख लो ।
सोलह वर्ष तक बाला, बत्तीस तक तरुणी, पचास तक प्रौढ़ा होती है। अब तुम्हीं बताओ, यह ऋतुचर्या किसके लिए है ? जिसके रंगभवन में मुग्धाबाला से लेकर प्रौढ़ा हस्तिनी तक मौजूद रहें और मौसम के मुताबिक बारी-बारी से कामज्वर को शांत करती रहें। इसे चिकित्साशास्त्र कहा जाय या कोकशास्त्र ? मैंने पूछा-आयुर्वेद में कामशास्त्र की इतनी बातें क्यों भरी हैं ?
खट्टर काका बोले--अजी, आयुर्वेद का जन्म ही भोग के निमित्त हुआ है।
भार्गवश्च्यवनः कामी वृद्ध: सन् विक्रृतिं गतः
वीर्यवर्णस्वरोपेत: . कृतोउश्विभ्यां. पुनर्युवा
जब वृद्ध च्यवन भोग करने में असमर्थ हो गये, तो आदिवैद्य अश्विनी कुमार ने रसायन के जोर से उन्हें पुनः युवा बना दिया। जैसे आदिकवि को क्रींचपक्षी की मैथुनेच्छा से काव्य की प्रेरणा मिली, वैसे ही आदिवैद्य को वृद्ध मुनि की भोगतृष्णा से आयुर्वेद की प्रेरणा मिली । एक ने अनुष्टुप् छंद का आविष्कार किया, दूसरे ने च्यवनप्राश का। तब से आयुर्वेद का विकास इसी दृष्टि से होने लगा कि रतिमल्लता के संग्राम में विजय-पताका फहराती रहे । राजा का ध्वजाभंग नहीं हो, यह देखने पर राजमंत्री थे; ध्वजभंग नहीं हो, यह देखने पर राजवैद्य थे।
मुझे चकित देखकर खट्टर काका बोल उठे-हँसी नहीं करता हूँ। राजा लोगों को जीवन में दो ही वस्तुओं से तो प्रयोजन था-पाचक और मोदक। भोजन-शक्ति को उद्दीप्त करने के लिए क्षुधाग्नि-संदीपन।
भोगशक्ति को उद्दीप्त करने के लिए कामाग्नि-संदीपन! राजा लोग रातदिन पड़े-पड़े दोनों अ्थों में कुमारिकासव पान किया करते थे । इतना ही तो काम था | रोज-रोज वही दिनचर्या! कहाँ तक सहते? इसी से बेचारे वैद्यगण रात-दिन वाजीकरण के पीछे बेहाल थे। एक-से-एक स्तंभन वटी, वानरी गुटिका, कामिनी-विद्रावण! इन्हीं बातों की रिसर्च में सारी बुद्धि खर्च होने लगी ।
मैं - क्यों वैद्यनी, आप कुछ नहीं बोलते हैं!
खट्टर-बोलेंगे क्या ? इनको भी तो वही सब रटाया गया है। एक आचार्य ने ऐसी खीर बनायी कि-
“वृद्ध भी खाय, तो दश प्रमदाओं का मान-मर्दन कर सके।” दूसरे आचार्य ऐसा चूर्ण बनाते हैं कि-
एतलमेत॑ मधुनावलीढं रामाशतं सेवयतीव पंढः
“नपुंसक भी वह चूर्ण मधु के साथ चाट जाय तो कंदर्प बनकर सौ कामिनियों का दर्प चूर्ण कर दे!”
कामिनियों का दर्प दलित होता था या नहीं, सो तो वे ही जानें। लेकिन वैद्यजी का भाग्य अवश्य फलित हो जाता था। सुंदरियों के यौवन की सुरक्षा का भार भी उन्होंने अपने हाथ में ले लिया। एक आचार्य ने गारंटी” दी-
“यदि प्रथम पुष्प के समय नवयौवना नस्ययोगपूर्वक चावल का माँड़ भी ले, तो उसका यौवन कभी ढलेगा ही नहीं।”
दूसरे आचार्य ने और भी जबर्दस्त दावा किया -
श्रीपर्णी के स्वरस में सिद्ध तिल का तेल मर्दन करने से विगलित यौवनाओं के ढले हुए यौवन भी ऊपर उठ जाते हैं!
इस प्रकार, पुरुष के विंदुपात” और रानी के 'कुच-पात' पर वैद्यों ने अपना 'ब्रेक' लगा दिया। उनके मुष्टियोग कहाँ तक सफल होते थे, सो तो पता नहीं। लेकिन उनकी मुट्ठियाँ तो गर्म होती ही थीं ।
वैद्यजी ने सगर्व कहा-हमारे सभी मुष्टियोग अनुभूत और परीक्षित हैं। खट्टर काका बोले-अगर ये योग सचमुच कसौटी पर खरे उतर सकें, तो करोड़ों डालर विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।
लेकिन वे फेल कर गये, तो फिर आपकी मुख-मुद्रा कैसी हो जायेगी ?
वैद्यनी बोले-अपने यहाँ के निधंटु' में सूक्ष्म विवेचन देखिए। खट्टर काका बोले-निधंटु' में भी तो वैसी ही बातें भरी पड़ी हैं। देखिए, अभ्रक (अबरख) के विषय में क्या कहा गया है-
अर्थात्, “इसके जोर से नित्य सौ स्त्रियों से संभोग किया जा सकता है।” जैसे अधिक-से-अधिक स्त्रियों का भोग करना ही जीवन का चरम लक्ष्य हो! जो व्यक्ति नित्य सौ बार भोग करेगा, वह दूसरे काम किस समय करेगा ? वह टिकेगा कितने दिन? इसी से राजा लोगों को शीघ्र हीं क्षय रोग पकड़ लेता था, और वैद्य लोग उसे कहते थे-राजयोग! अब आप ही कहिए, ऐसे शास्त्र को आयुर्वेद कहा जाय या आयुर्भेद ?
वैद्य-परंतु दूसरे-दूसरे रोगों के निदान और उपचार भी तो आयुर्वेद में हैं। खट्टर-हैं | लेकिन उनमें भी ऐसे-ऐसे मनगढ़ंत नुस्खे भरे हैं, कि चिकित्सा में विचिकित्सा (शंका) हो जाती है; आयुर्वेद से निर्वेद (वैराग्य) हो जाता है। वैद्य-जैसे ? कोई उदाहरण दीजिए।
खट्टर काका पुनः ग्रंथ खोलकर देखने लगे। बोले-यही बंध्या-रोग की चिकित्सा लीजिए-
“ऋतुस्नाता स्त्री पुष्य नक्षत्र में उखाड़ी हुई लक्ष्मणा की जड़ को कुमारी कन्या से दूध में पिसवाकर पी ले, तो गर्भ धारण करे, इसमें संदेह नहीं।” आचार्य को संदेह नहीं है, परंतु मुझे तो अवश्य है।
पहला प्रश्न तो यह उठता है कि गर्भ धारण कराने की शक्ति किसमें है ? लक्ष्मणा की जड़ में अथवा पुष्य नक्षत्र में अथवा कुमारी कन्या के हाथ में? अथवा तीनों के संयोग में? इस प्रयोग को वैद्यम कहा जाय अथवा ज्योतिष अथवा तंत्र, या तीनों की खिचड़ी ?
वैद्य-परंतु ऐसे-ऐसे उपचार भी तो हैं, जिनमें नक्षत्र का बंधन नहीं है। खट्टर-हाँ, हैं।
जैसे-
“पलाश का एक पत्ता दूध में पीसकर पी लेने के बाद गर्भिणी को निश्चय पुत्र हो। वह भी साधारण नहीं, वीर्यवान्!”
अजी साहब, मैं कहता हूँ, यदि बलवान् पुत्र की प्राप्ति इतना सुगम है, तो डंका पीटकर प्रचार कीजिए कि यह भारतवर्ष का मौलिक आविष्कार है। इसे संपूर्ण संसार में खिराकर देश का मस्तक ऊँचा कीजिए। और यदि यह झूठ है, तो आज ही इस वचन को काटकर फेंकिए! ऐसी-ऐसी झूठमूठ की बातें आयुर्वेद में रहेंगी, तो शास्त्र का क्या मूल्य रह जायेगा ?
वैद्यजी को निरुत्तर देखकर खट्टर काका मुझसे कहने लगे-देखो, इस देश में जहाँ कोई शास्त्र बना कि तुरंत क्षेपकों की भरमार होने लग जाती है। जिसके मन में आता है, एक श्लोक जोड़कर घुसेड़ देता है। और वही कालक्रम से प्रमाण बन जाता है!
आयुर्वेद में भी वही बात हुई है। तभी तो ऐसे-ऐसे श्लोक भी उसमें पाये जाते हैं-
“काले रंग के घोड़े की पूँछ में से सात बालों की लट बनाकर शिशु की गर्दन में बाँध दो, तो दाँतों का कटकटाना दूर हो जाय!” यह बात यदि कोई डाक्टर सुने तो क्या कहेगा? परंतु अभी तक आयुर्वेद के आचार्य ये सब श्लोक पढ़ाते हैं और इन्हें विद्यार्थी रट जाते हैं! इससे बढ़कर उपहासास्पद बात और क्या हो सकती है!
वैद्यजी को कुछ उत्तर देते नहीं बना।
खट्टर काका कहने लगे-दूसरे देशों में चिकित्सा का विकास वैज्ञानिक प्रणाली से हुआ है; परंतु इस देश में तो बाबा वाक्यं प्रमाणम् चलता है। इसलिए जहाँ डाक्टरी विद्या आज उन्नति के शिखर पर पहुँच गयी है, वहाँ आयुर्वेद अभी तक प्रदरान्तक रस में डूबा हुआ है।
जहाँ आधुनिक 'सर्जन' शल्य-चिकित्सा से कृत्रिम अंग का सर्जन कर रोग का विसर्जन कर देता है, वहाँ वैद्य लोग केवल धन्वंतरि के नाम का गर्जन करके रह जाते हैं। जब ये एक कटी नाक तक नहीं जोड़ सकते, तो फिर किस मर्ज की दवा हैं ? इसीलिए रजः प्रवर्तिनी बटी से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।
मैंने पूछा--आयुर्वेद के आचार्य नवीन अनुसंधान क्यों नहीं करते ?
खट्टर काका मुस्कुराते बोले-गद नाम रोग का है। उसका हनन करनेवाले कुछ लोग गदहा पद को सार्थक करते हैं। वे केवल प्रखर रूप से शास्त्र का भार ढोना जानते हैं!
खरो यथा चंदनभारवाही भारस्य वेत्ता न तु चंदनस्य!
ऐसे ही शास्त्रभारवाहकों के लिए कहा गया है-
वे अपना उदर-भांड भरने के लिए झूठमूठ फॉट, कषाय और आसव के भांड प्रस्तुत करते रहते हैं। अरिष्ट बनाकर केवल अपना अरिष्ट (अनिष्ट योग) दूर करते हैं!
खट्टर काका ने वैद्यजी को अप्रतिभ देखकर कहा--वैद्यजी! मैं आपको नहीं कह रहा हूँ। उन सबों को कह रहा हूँ जो कुएँ का खारा पानी भी-यह समझकर पी रहे हैं कि बाबा का खुदाया हुआ कुआँ है।
तातस्य कृपोज्यमिति ब्रुवाणा: क्षारं जल॑ कापुरुषा: पिबन्ति! मैंने कहा-खड्टर काका, आज आप वैद्यों पर लग पड़े। परंतु बेचारे को राजकीय आश्रय नहीं प्राप्त है। क्या करें ?
खट्टर काका ब्यंग्यपूर्वक बोले-हाँ, एक बार राजकीय आश्रय मिला, तो हजार वर्ष तक मदनानंद मोदक बनाते रह गये। अब फिर राजकीय सहायता मिले, तो गर्भ-कुठार-रस तैयार करने लग जायेंगे !
एकाएक खट्टर काका का ध्यान पाचक पर चला गया। बोले-अजी, और जो कहो, वैद्य लोग पाचक काफी चटपटा बनाते हैं।
लवणभास्कर! हिंग्वष्टक! दाडिमाष्टक! एक-से-एक स्वादिष्ट! ऐसी जायकेदार चीजें डाक्टरी में कहाँ मिलेंगी! जब खट्ट-मीठा हाजमे का चूर्ण खाकर पानी पीता हूँ, तो मजा आ जाता है!
और दूसरी दवाओं की तो मुझे जरूरत ही नहीं पड़ती। जब वैद्यनाथ ही बूटी ही साध रखी है, तो फिर वैद्य की क्या खुशामद!
खट्टर काका ने वैद्यजी से विनयपूर्वक कहा--बुरा न मानिएगा। मैंने अपने मन का भावप्रकाश कर दिया। अब आप अपना भाव-प्रकाश रखिए। मैं जाता हूँ।