भगवान की चर्चा

खट्टर काका फालसे का शरबत पी रहे थे। मुझे देखकर बोले--आओ-आओ | तुम भी पियो। “वह है बेजायका शरबत अगर तुर्शी न शामिल हो!

मैंने कहा-खट्टर काका, आपकी बातों में जो खट्टामीठा जायका रहता है, वह क्‍या इस शरबत से कम है ?'

खट्टर काका बोले-अजी, उनमें मिर्च भी काफी रहती है। जिनका हाजमा कमजोर है, वे पचा नहीं सकते। लेकिन मैं क्या करूँ ? आदत से लाचार हूँ। लटपट बातें मुझे पसंद नहीं! साफ-साफ बोल जाता हूँ। इसलिए लोग 'नास्तिक' कहते हैं।

मैं - खट्टर काका, सच-सच बताइए, आप भगवान्‌ को मानते हैं या नहीं ?

खट्टर काका मुस्कुराकर बोले-समझो तो भगवान्‌ ही मुझे नहीं मानते हैं। मैं तो उन्हें अपना मौसा मानता हूँ!

मैं - खड्टर काका, आपको तो हमेशा विनोद ही रहता है।

खट्टर काका बोले - गौतम ने ईश्वर को कुम्हार बना दिया, उपनिषद्‌ ने मकड़ा बना दिया, वेदांत ने बाजीगर बना दिया, सो सबकुछ नहीं! और मैंने मौसा बना दिया, तो क्या बुरा हुआ ?

मैं - परंतु आप तो भगवान्‌ से परिहास करते हैं!

खट्टर काका बोले - सूरदास ने सख्य भाव से इतना परिहास उनके साथ किया है और मैं इतने से भी गया ?

में - मगर वह आपके मौसा कैसे लगेंगे ?

खट्टर काका बोले - देखो, लक्ष्मी और दरिद्रा, दोनों सगी बहनें हैं। भगवान्‌ हैं लक्ष्मी के स्वामी, और मैं हूँ दरिद्रा का पुत्र । अब तुम्ही संबंध जोड़ लो। भगवान स्वयं कहते हैं -

ये यथा मां प्रपद्चन्ते तांस्तथेव भजाम्यहम्‌

मैंने कहा-खट्टर काका, आप तो हँसी करते हैं। परंतु यदि भगवान्‌ नहीं रहते, तो इतनी सारी सृष्टि कैसे होती ?

खट्टर काका बोले - जैसे नित्य होती है। इसी गाँव में सहस्रों सृष्टिकर्त्ता मौजूद हैं।

मैंने कहा - खट्टर काका, आप तो दूसरी ही तरफ ले गये। मेरा तात्पर्य है कि आदि सृष्टिकर्ता तो मानना ही पड़ेगा।

खट्टर काका बोले-अजी, मानने में जरा भी एतराज नहीं, मगर जरा समझाकर कहो वह आदि-पुरुष कब आये ? कहाँ से आये ? आकाश से टपक पड़े ?

अथवा, अनादि काल से सोये हुए थे और एकाएक नींद टूटने पर सृष्टि की क्रिया में प्रवृत्त हो गये ? यदि सृष्टि की, तो किस रूप में ? पहले स्त्री बनायी या पुरुष बनाया ?

यदि कहो कि आसंभ में स्त्री को उत्पन्न कर सृष्टि का कार्य आगे बढ़ाया, तो उन्हें गाली पड़ जायगी। यदि शुरू में एक पुरुष एवं एक स्त्री को उत्पन्न किया, तो फिर दोनों में भाई-बहन का संबंध हुआ। यदि उन्हीं से सारी संतति-शाखा हुई, तब संपूर्ण मनुष्य जाति ही पतित है। फिर कुल-मर्यादा की बात ही क्या ?

प्रयागे मूत्रितं येन गंगा तस्य वराटिका!

मैंने कहा - खट्टर काका, आपसे कौन बहस करे ? परंतु आदि सृष्टिकर्त्ता तो कोई अवश्य रहे होंगे ?

खट्टर काका बोले-अच्छा, माल लिया, कि होंगे। परंतु अब वह कर कया रहे हैं? सृष्टि का जो कार्य है, वह तो चलता ही जा रहा है । बल्कि बढ़ता ही जा रहा है । प्रतिदिन लाखों की संख्या में सृष्टि हो रही है। अब इस बीच में उनके पड़ने की क्या जरूरत ? वह 'पेंशन' लेकर बैठें!

मैंने कहा-खड्टर काका, वह क्या चुपचाप बैठनेवाले हैं ? वह सर्वव्यापी हैं। सर्व ब्रह्ममयं जगत्‌।

खट्टर काका-अब तुम वेदांत छाँटने लगे! परंतु जो कहते हो, उसमें स्वयं आस्था रखते हो ?

मैं - अवश्य । भगवान्‌ घट-घट में वास करते हैं।

खट्टर काका मुस्क्राते बोले-वाह रे ब्रह्मज्ञाना! जब भगवान्‌ घट-घट में वास करते हैं, तब तो मदिरा के घट में भी वास करते हैं! यदि सर्व ब्रह्ममयं जगत्‌ तो फिर तुम काली की जगह साली का स्तोत्र क्यों नहीं पढ़ते ? चंडी की जगह रंडी का चरणामृत क्यों नहीं पीते ?

मैंने कहा-खट्टर काका, आपसे पार पाना कठिन है । परंतु भगवान्‌ की महिमा अनंत है।

वह अंतर्यामी सर्वशक्तिमान्‌ करुणानिधान

खट्टर काका -ठहरो, ठहरो! एक ही बार इतने सारे विशेषण मत उँड़ेलो । एक-एक कर समझाओ। उन्हें अंतर्यामी क्‍यों कहते हो ?

मैंने कहा - वह सभी के अभ्यंतर वास करते हैं। हम और आप जो भी करते हैं, उन्हीं की प्रेरणा से।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन तथा नियुक्तोषस्मि तथा करोमि।

खट्टर काका हँसते हुए बोले - अच्छा, तो अब इसी पर कायम रहो । यदि दूसरी डाल पकड़ोगे तो एक डंडा लग जायगा।

मैंने कहा - अच्छा, अब इसी बात पर रहूँगा।

खट्टर काका - तो अब यह कहो कि जब भगवान्‌ ही सबकुछ कराते हैं, तब तो हम लोग उनके हाथ की कठपुतली हुए! जैसा नचायँगे, वैसा नाचेंगे ?

मैंने कहा - अवश्य ।

खट्टर काका - तब मैं पूछता हूँ कि साधु और चोर में क्या अंतर ?

मैंने कहा - साधु अच्छे कर्म करते हैं इसलिए उत्तम; चोर बुरे कर्म करते हैं, इसलिए अधम।

यह सुनते ही खट्टर काका डंडा उठाते हुए बोले-खबरदार! तुम अभी बोले थे कि - यथा नियुक्तोञस्म तथा करोमि।

सब भगवान्‌ ही कराते हैं। वही साधु के हाथ में माला और चोर के हाथ में ताला धरा देते हैं। तब फिर साधु क्‍यों उत्तम और चोर क्‍यों अधम ? जो कहना हो, भगवान्‌ को कहो।

मैंने कहा - खट्टर काका, आप तो इस तरह शिकजे में कस देते हैं, कि निकलने का रास्ता ही नहीं मिलता है।

परंतु इतना तो अवश्य है कि भगवान्‌ की माया अपरंपार है । उनके लिए कुछ असंभव नहीं। वह जो चाहें कर सकते हैं।

खट्टर काका - यदि ऐसी बात है तो मैं एक प्रश्न पूछता हूँ। क्या भगवान्‌ चाहें तो आत्महत्या कर सकते हैं? जहर खाकर या फाँसी लगाकर मर सकते हैं ?

मैंने कहा-खड्टर काका, आपकी तो बातें ही निराली होती हैं। भला भगवान्‌ मरना क्यों चाहेंगे? जब-जब पृथ्वी पर अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब वह अवतार लेते हैं।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवीति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाउत्मानं सृजाम्यहम्‌
(गीता)

खट्टर काका बोले - भगवान्‌ की दृष्टि में अधर्म क्या है, जिसका नाश करने के लिए वह अवतार लेते हैं ?

मैंने कहा-अधर्म है हिंसा और व्यभिचार। । खट्टर काका मुस्कुरा उठे। बोले - वह भगवान्‌ को पसंद नहीं है ? मैंने कहा-कदापि नहीं।

खट्टर काका सुपारी का कतरा करते हुए बोले-तब मैं पूछता हूँ कि आदिकर्त्ता ने बाघ क्‍यों बनायां? सिंह को वैसा खूनी पंजा क्‍यों दिया ?

घड़ियाल को वैसे नुकीले दाँत क्यों दिये ? साँप में जहर क्‍यों भर दिया? बिच्छू में डंक क्‍यों दिया ?

कुत्ता, बिल्ली, गीदड़ भेड़िया, चील्ह, गीध-इन सबों को मांसाहारी क्‍यों बनाया? यदि उन्हें अहिंसा ही पसंद थी, तो लड़ने की प्रवृत्ति ही उन्होंने जीवों में क्यों दी ?

पहले स्वयं आग लगाकर पीछे पानी लेकर दौड़ना - यह कौन-सी बुद्धिमानी हुई ? मैं पूछता हूँ, यदि उन्हें व्यभिचार सचमुच ही नागवार था, तो एक कम चौरासी लाख योनियों में, खुल्लमखुल्ला समागम का नियम क्यों चला दिया ?

सृष्टि की प्रक्रिया वैसी अश्लील क्‍यों बना दी ? धृतकुभसमा नारी तप्तांगार समः प्रमान्‌ नर-नारी में इस प्रकार का संबंध क्यों स्थापित कर दिया ?

मैं - भगवान्‌ ने मनुष्य को बुद्धि दी है, जिससे वह पाप-पुण्य की विवेचना कर धर्म के पथ पर चले।

खट्टर काका - तब मनुष्य पाप क्‍यों करता है ? मैं - भगवान्‌ ने मनुष्य को अपनी इच्छा में स्वतंत्र कर दिया है।

खट्टर काका - क्यों कर दिया ? जब वह जानते थे कि मनुष्य इस शक्ति का दुरुपयोग करेगा, तब उसे स्वतंत्र क्यों छोड़ दिया ? कया बच्चे के हाथ में तलवार देना उचित है ? और, यदि वह इतना भी नहीं जानते थे, तब फिर उन्हें 'अंतर्यामी' क्यों कहते हो ?

मैं - खट्टर काका, भगवान्‌ की लीला अपरंपार है। यह सारा जगत ब्रह्म की माया है।

खट्टर काका बोले-तुम ब्रह्मवादी भी बनते हो, और पाप-पुण्य का भेद भी रखते हो! दोनों एक साथ कैसे होगा ?

यदि सर्वब्रह्ममयं जगत्‌, तब पारमार्थिक दृष्टि से वही ब्रह्म मछली बनकर जल में विचरण करते हैं, और वही ब्रह्म शिकारी बनकर उसे जाल में फैसाते हैं। वही ठग बनकर जालसाजी करते हैं और न्यायाधीश बनकर दंड देते हैं। वही वेश्या बनकर कोठे पर बैठते हैं और वही लंपट बनकर बलात्कार करते हैं।

मैं भंग घोंटकर उसमें चीनी डालकर पीता हूँ। इसका अर्थ हुआ कि “ब्रह्म ब्रह्म को घोंटकर ब्रह्म में ब्रह्म डालकर पीता है!

मैंने कहा-खट्टर काका, आप तो बुद्धि को उलझा देते हैं। खट्टर काका बोले - तुम लोग अपने ही जाल में फँस जाते हो।

एक बार तो कहते हो -

कर्म प्रधान विश्व करे राखा
जो जस करहिं सो तस फल चाखा

और दूसरी बार कहते हो -

होइ हैं सोइ जो राम रचि राखा
को करि यल बढाबहि शाखा!

ये दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं ?

एक संग नहि होइ भ्रुआलू
हँसब ठठाय फुलाएब गालू

कभी तो कहते हो कि भगवान्‌ सर्वव्यापी हैं और कभी कहते हो कि जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब भगवान्‌ पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करते हैं। कभी कहते हो कि भगवान्‌ समदर्शी हैं, कभी कहते हो कि भक्त-वत्सल हैं। एक तरफ अद्दैतवादी भी बनते हो और दूसरी तरफ पाप-पुण्य का भेद भी मानते हो। इसी कारण फदे में फैंस कर उलझ जाते हो।

मुझे असमंजस में देख खट्टर काका बोले-देखो, एक तरह की बात बोलो। वेश्या जो काम करती है, वह अपनी प्रेरणा से या भगवान्‌ की प्रेरणा से? यदि भगवान्‌ की प्रेरणा से, तो भगवान्‌ स्वयं दोषी हैं। यदि अपनी प्रेरणा से करती है, तो उस श्लोक को काटकर फेंको कि -

यथा नियुक्तोष्रस्मि तथा करोमि!

मैंने कहा - खट्टर काका, मैं कया कहूँ ? दोनों में एक भी काटने योग्य नहीं। बिना भगवान्‌ की इच्छा से एक पत्ता तक नहीं हिलता है। और, व्यभिचार का दोष भगवान्‌ पर थोपना भी उचित नहीं।

खट्टर काका - देखो, फिर मेरा इंडा उठना चाहता है। एक बात पर कायम रहो। क्या हर बात भगवान्‌ की इच्छा से होती है ?

मैंने कहा - अवश्य!

खट्टर काका - अच्छा, यदि मैं एक डंडा लगा दूँ, तो यह भी भगवान्‌ की इच्छा से होगा ?

मुझे फिर असमंजस में पड़ा देख खट्टर काका बोले-बोलते क्यों नहीं? यदि सभी घटनाएँ भगवान्‌ की इच्छा से होती हैं, तब जो जितनी हत्याएँ और बलात्कार होते हैं सबका दोष उन्हीं के ऊपर है ?

मैंने कहा-खट्टर काका, भगवान्‌ अनंत करुणामय हैं । गज पर संकट पड़ा, तो सुदर्शन चक्र लेकर दौड़े। एक पक्षी को बचाने के लिए महाभारत की लड़ाई में गजघंट गिरा दिया ।

खट्टर काका व्यंग्य के स्वर में बोले--और प्रयाग के कुंभ मेले में जब लाखों भक्त कुचलकर मर गये, उस समय वह सोये हुए थे? उनका सुदर्शन-चक्र भोथा हो गया था? उतने नर-नारी, बच्चों ने जब आर्त्तनाद किया, उस समय कान में रुई-तेल डाले हुए थे! इसी से गजघंट के बदले यमघंट गिर पड़ा! कया भगवान्‌ बहरे हो गये हैं? तब तो उन्हें कान का इलाज कराना चाहिए।

मैंने कहा-खट्टर काका, ऐसा मत बोलिए। जिन लोगों ने पाप किया होगा, उन्हें क्लेश भोगना पड़ा।

खट्टर काका-तब तो जितने लोग दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं, वे सभी पापी हैं! यदि किसी को मगर पकड़कर घसीटता है, तो वह अपने पूर्वजन्म कृत पाप का फल भोग करता है। तब तो उसे डूबने देना चाहिए? फिर भगवान्‌ को दौड़ने की क्या जरूरत थी?

मैंने कहा-भगवान्‌ भक्तवत्सल हैं।

खट्टर काका-तब यों कहो कि भगवान्‌ खुशामद-पसंद हैं। यदि समदर्शी रहते, तो दुर्योधन का मेवा छोड़कर विदुर का साग खाने क्‍यों जाते ?

मैंने कहा-खट्टर काका,

यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।

जो उनकी जितनी भक्ति करता है, उसको उतना ही फल मिलता है।

खट्टर काका-तब यह कहो कि भगवान्‌ बनियाँ हैं। जितना दाम दोगे, उसी हिसाब से वह तराजू पर तौलकर देंगे। तब उनमें और दमड़ी साह में अंतर क्या ?

मैंने कहा-खट्टर काका, भगवान्‌ दयामय हैं। उनकी करुणा का अंत नहीं है।

खट्टर काका - तब संसार में जो इतना दुःख-दारिद्रय है, उसे वह दूर क्‍यों नहीं करते हैं ? रोग, शोक, दुर्भिक्ष, महामारी-इन सबों से लोगों को क्‍यों परेशान करते हैं ? मैंने कहा-लोग अपने-अपने कर्मों के फल से क्लेश पाते हैं।

खट्टर काका-तब तो कर्म ही प्रधान हुआ। भगवान्‌ की इच्छा कहाँ रही? वह दया भी करना चाहेंगे, तो क्या कर सकते हैं ? मेरा कर्म ही नहीं किया रहेगा, तो देंगे कहाँ से ? और जब कर्म रहेगा, तो वह स्वयं फलित होगा। फिर उनकी खुशामद क्यों ? इसी से भर्तृहरि कहते हैं -

नमस्यामो देवान्‌ ननु हत विधेस्तेष्रपे वशगा:
विधिवध: सोऊपि प्रतिनियतकर्मेक फलद:
फल कर्मायत्तं यदि किममरै: कि च विधिना ?
नमस्ततकर्मभ्यो विधिरपि न येभ्य: प्रभवति! (नीतिशतक)

मैंने कहा - खट्टर काका, मैं तो यही जानता हूँ कि भगवान्‌ कर॒ुणामय और सर्वशक्तिमान्‌ हैं।

खट्टर काका बोले - अच्छा । मान लो, ऐसा ही है। तब वह संसार के समस्त दुःख क्यों नहीं दूर कर देते हैं ? दो ही कारण हो सकते हैं।

एक तो यह, कि वह चाहते ही नहीं हैं। दूसरा यह, कि वह चाहते तो हैं, परंतु कर नहीं सकते। यदि नहीं चाहते हैं, तो निष्टुर हैं । यदि नहीं कर सकते हैं, तो असमर्थ हैं । फिर उन्हें दयालु और सर्वशक्तिमान्‌, दोनों एक साथ क्‍यों कहते हो ?

मैंने कहा-खट्टर काका, आप तो इतने प्रकार की शंकाएँ उत्पन्न कर देते हैं कि आस्तिक का मन भी डावॉडोल हो जाता है। अब आप ही कहिए कि भगवान्‌ हैं या नहीं ?

खट्टर काका मुस्कुराकर बोले-हैं तो अवश्य । तब प्रश्न यह कि वह हम लोगों की सृष्टि कर अपना मनोविनोद करते हैं अथवा, हमीं लोग उनकी सृष्टि कर अपना मनोविनोद करते हैं ?

मैंने कहा - खट्टर काका, क्या भगवान्‌ को आप कल्पना मात्र मानते हैं ? खट्टर काका एक चुटकी कतरा मुँह में रखते हुए बोले - नहीं जी वास्तविक भगवान्‌ भी होते हैं। भगवान्‌ का अर्थ है -

समृद्धि बुद्धि संपत्ति यशरसां वचनो भगः
तेन शक्तिर्भगवती भगरूपा च सा सदा
तया युक्त: सदात्मा च भगवांस्तेन कथ्यते (ब्रह्मवैवर्त)

अर्थात्‌, जो 'भग! से युक्त हैं, वही भगवान्‌ हैं| उसके बिना भगवान्‌ सृष्टि नहीं कर सकते, जैसे कुम्हार बिना मिट्टी के घड़ा नहीं बना सकता।

नहि क्षमस्तथा ब्रह्म सृष्टि द्रष्ट्र तया बिना
विना मृदा कुलालो हि घट कर्त्तु नहीश्वरः (ब्रह्मवैवर्त)

वह 'भग' या भाग्य जिनको जितनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, वे उतने ही बड़े भगवान्‌ हैं। जिनको वह सौभाग्य प्राप्त नहीं, सो 'अभगवान्‌' या अभाग्यवान्‌ हैं । वे सृष्टि क्या करेंगे ?

मैंने कहा - खट्टर काका, आप भंग की तरंग में भगवान्‌ को भी ले डूबते हैं। परंतु विनोद में भी आप अपनी तार्किकता नहीं छोड़ते। खट्टर काका बोले-अजी, तुम यह क्यों भूल जाते हो कि मैं गंगेश उपाध्याय! और गोनू झा, दोनों का वंशज हूँ। तर्क और विनोद पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। देखो,

हमारे एक पूर्वज की गर्वोक्ति है -

येषां कोमलकाव्य कौशल कला लीलावती भारती
तेषां कर्कशतर्कवक्रवचनोदूगारेडपि किं हीयते
ये: कांताकुचमंडले कररुहा: सानंदमारोपिता:
तेः कि मत्तगजेन्र कुंभशिखरे नारोपणीया: शराः

“जो कोमल काव्यकला में अपना कौशल दिखला सकते हैं, वे तर्क की कठोर भाषा के प्रयोग में भी अपने पांडित्य का परिचय दे सकते हैं। जो कामिनी के कुचमंडल पर नखक्षत करते हैं, वे क्या मत्त गज-कुंभ पर वाणवर्षा नहीं कर सकते ?” इसी तर्क-शक्ति के जोश में उदयनाचार्य ने एक बार भगवान्‌ तक को भी ललकार दिया था!

ऐश्वर्यमदमत्तो "से मामवज्ञाय वत्तसि
उपस्थितेषु बौद्धेप ममाधीना तव स्थिति:

“हे भगवान्‌! आप इस घमंड में मत रहिए कि मेरा ही अस्तित्व आपके अधीन है। बौद्धों के बीच आपका अस्तित्व भी मेरे ही अधीन रहता है!” उसी तरह मैं भी कहता हूँ -

कथ॑ तिष्ठसि नेपथ्ये चौरवत्‌ निभत: सदा
शक्तश्चेत प्रकटीभूय निजास्तितं प्रदर्शय ।

“हे भगवान्‌! आप चोर की तरह ओट में क्‍यों छिपे रहते हैं? अगर सामर्थ्य है, तो सामने प्रकट होकर अपना अस्तित्व प्रमाणित कीजिए ।”

अगर कहीं होंगे तो सुनते ही होंगे। नहीं तो अरण्यरोदन ही समझो । खैर, जो हो। किसी बहाने आज दो घड़ी भगवान्‌ की चर्चा तो हो गयी।

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध
कछु चर्चा भगवान्‌ को, हरे कोटि अपराध!

गंणेश उपाध्याय मिथिला में नव्यन्याय के जन्मदाता हैं और गोनू झा हास्यरस के अवतार माने जाते हैं।