पंडितजी नदी में स्नान करते हुए श्लोक पढ़ रहे थे -
पापोऊ पापकर्माऋ पापा ज़्मा पापसंभव:
त्राहि मां पुंडरीकाक्ष सर्वपापहरों हरि:
तब तक खट्टर काका भी नहाने के लिए पहुँच गये। बोले-पंडितजी, यह क्या कर रहे हैं ? इसी हीनता की भावना ने तो हम लोगों का व्यक्तित्व कुंठित कर दिया। ऐसा क्यों नहीं कहते कि -
पृण्योऋं पुण्यकर्मा'हं प्रण्यातत्मा पुण्यसंभवः
प्रसीद पुंडरीकाक्ष सर्वपुण्यमययो हरि:
आप भगवान् के आगे अपने को पापी भी घोषित करते हैं और रक्षा भी चाहते हैं। भगवान् धर्मात्मा की रक्षा करते हैं या पापी की ? और, क्या आप सचमुच अपने को पापी समझते हैं ? यदि और लोग भी आपको इसी शब्द से संबोधन करने लग जायेँ, तो क्या आप पसंद करेंगे ? तब भगवान् से झूठ क्यों बोलते हैं।
पंडिजी कुछ सहमते हुए बोले - आपके सामने तो कोई श्लोक पढ़ना भी मुश्किल है। दीनबंधु दीनानाथ से तो दीनता ही दिखायी जाती है।
खट्टर काका - पंडितजी, दीन का बंधु कोई नहीं होता । दैन्यभाव छोड़िए । अदीना: स्याम कहिए।
मैंने कहा - खट्टर काका, शरणागति तो परम धर्म है।
खट्टर काका - धर्म से तुम क्या समझते हो ?
मैंने कहा - मैं धर्म पर आप लोगों के सामने क्या बोल सकता हूँ ? सीधी-सी बात जानता हूँ कि -
महाजनों येन गतः पंथाः
महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वही धर्म है।
खट्टर काका बोले-जितनी सीधी बात समझते हो, उतनी सीधी नहीं है। महावीर 'जिन' का मार्ग है - अहिंसा परमो धर्म: । महावीर हनुमान का मार्ग है - शठे शाठ॒यं समाचरेत् । दोनों महावीर तो पूज्य ही हैं। किनका मार्ग अपनाया जाय ? किनका छोड़ा जाय ?
मैंने कहा - खड्टर काका, दया हि परमो धर्म:। सभी जीवों पर दया रखना ही धर्म है।
खट्टर काका बोले - जरा समझाकर कहो। मेरी खाट में खटमल भरे हैं। क्या उन्हें रात-भर अपना रक्त चूसने दूँ ? पेट में कृमि है। उसे मारने के लिए दवा न खारऊँ ? मच्छरों पर फ्लिट' नहीं छिड़ कूँ ? घर में सॉप निकले तो उसे स्वच्छंद छोड़ दूँ ? यदि हम सभी जीवों पर दया करने लगें तो क्या जीवित रह सकते हैं ?
मैंने कहा - तो कया हिंसा के बिना जीवन नहीं चल सकता ?
खट्टर काका बोले-प्रकृति का नियम तो यही है कि -
जीवी जीवस्य भक्षणम्
छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाती है; बड़ी मछली को उससे भी बड़ी निगल जाती है। यही मल्यन्याय संपूर्ण जगत् में चलता है । घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायगा क्या ? भक्ष्य-भक्षक में प्रीति कैसे रह सकती है ?
मुझे मुँह ताकते देखकर खट्टर काका बोले-संसार में वही जाति जीवित रह सकती है, जिसे भक्षण करने का सामर्थ्य है। यदि अहिंसा का अर्थ हो भक्ष्य बनकर रहना, तो सबसे बड़ा अहिंसक है केंचुआ, जो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ता ।
जिसके मन में आये, कुचलता हुआ चला जाय! मुझे तो ऐसी अहिंसा में विश्वास नहीं है।
पैं - खट्टर काका, यदि सभी जीवों पर दया करना संभव नहीं भी हो, तो कम-से-कम मनुष्यों पर तो दया करनी ही चाहिए।
खट्टर काका बोले-क्या सभी मनुष्य दया के पात्र होते हैं? मान लो कि देश पर आक्रमण करने के लिए शत्रु आ गये हैं । तब क्या उन पर दया दिखानी चाहिए ? उदारतापूर्वक स्वागत करना चाहिए ? शरबत और पान-इलायची से खातिर करनी चाहिए ? जो गला काटने आवें, उन्हें गले लगाना चाहिए ?
मैं - उन्हें प्रेम से जीतना चाहिए। खट्टर काका बोले - यही बात तो मेरी समझ में नहीं आती। मान लो कि कोई आततायी घर में घुसकर बलात्कार कर रहा है। तो कया उसे पंखा झला जाय ? गुलाबजल छिड़का जाय ? इत्रदान पेश किया जाय ? कर्पूर की आरती दिखायी जाय ? फूल-माला पहनाकर विदा किया जाय ?
मैं - शत्रु का हृदय-परिवर्तन करना चाहिए। खट्टर काका बोले - मगर उससे पहले तो वही परिवर्तन कर देगा। ऐसा बमगोला मारेगा कि कलेजे के टुकड़े-टुकड़े कर देगा।
गाजर-मूली की तरह कचरकर रख देगा। महिलाओं को मैदे की लोई की तरह मसल देगा। तो क्या लंगूरों को अंगूर के बगीचे में छूट दे दी जाय ? क्या अहिंसा के पुजारी बैठकर पूजा करते रहेंगे -
एतानि पुष्पधूषदीपतांबूलनैवेद्यानि श्री शत्रवे नमः!
क्या करताल लेकर प्रेम-कीर्तन करेंगे ?
जय जय शस्त्रसुसज्जित रिपुदल जय नरसूदन जिष्णो!
शरणं देहि रणं मा कुरु मा मारय है प्रभविष्णो!
पंडितजी बोले-मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं -
प्रति: क्षमा दमोउस्तेयं शौचमिद्धियनिग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशक धर्मलक्षणम्
खट्टर काका हँसते हुए बोले-पंडितजी, ये सब मुसम्माती धर्म हैं, जो निर्बलों के लिए बनाये गये हैं | अबला वर्य धारण कर बैठ जाती है । कमजोर गम खाकर रह जाता है। किंतु सबलों के ये धर्म नहीं होते। यदि पांडव थैर्य धारण कर लेते, तो महाभारत का युद्ध क्यों होता ? यदि रामचंद्र क्षमा कर देते, तो लंकाकांड क्यों मचता ?
मैंने पूछा - तो फिर ये धर्म क्यों बने ? ख़ड्टर काका बोले-अरे भाई, सेवकों को यह शिक्षा देना जरूरी था कि “धैर्य रख, अर्थात् सूखी रोटी भी खाना पड़े तो संतोष कर । डॉट भी पड़े तो चुप रह । मन में विकार मत ला। लोभ का दमन कर। कोई चीज मत चुरा। सफाई के साथ काम कर। जीभ आदि इन्द्रियों पर नियंत्रण रख।
होशियार और जानकार बनकर काम कर । मार खाने पर भी क्रोध मत कर।" यही दशक धर्म लक्षणम्' का रहस्य है। यह धर्म विशेषतः विद्यार्थियों, स्त्रियों और शूद्रों के लिए बनाया गया है। जो समर्थ होते हैं, उनका धर्म और ही होता है। महाभारत में भी कहा गया है -
अन्यो धर्म: समर्थानां निर्बलानां तु चापरः (शांतिपर्व)
मैं - खड्टर काका, समर्थ का धर्म क्या होता है ? खट्टर काका - जिससे उसकी इच्छापूर्त्ति हो । वह चाहे बंदूक के जोर से हो, या बम के जोर से ।
समरथ को नहिं दोष गुसाईं
रवि पावक सुरसरि की नाईं।
साधारण व्यक्ति एक खून करता है, तो फाँसी पाता है। सैनिक युद्ध में सौ खून करते हैं, तो ववीर-चक्र' पाते हैं । इसीलिए कहा गया है-समूहे नास्ति पातकम् । एक लोटा पानी में कौआ चोंच डाल दे, तो अशुद्ध हो जाता है। लेकिन गंगाजी सैकड़ों कौओं के नहाने पर भी अशुद्ध नहीं होतीं।
पंडितजी बोले-व्यासजी का उपदेश है -
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्धयम्
परोपकार: प्ुण्याय पापाय परपीडनम्
मैंने कहा - खट्टर काका, हम लोग भी तो यही जानते हैं कि जिससे दूसरे का उपकार हो, वह पुण्य है; और जिससे दूसरे को पीड़ा पहुँचे, वह पाप। खट्टर काका बोले - यह लक्षण भी व्यभिचरित है।
यदि दूसरे की पीड़ा हरण करना ही धर्म हो, तब तो कामपीड़िता स्त्री को संतुष्ट करना भी धर्म हो जायगा। पंडितजी बोले - आप तो वितंडावाद कर रहे हैं।
खट्टर काका बोले-मैं क्या अपनी ओर से कह रहा हूँ ? कुमारिल भट्ट कहते हैं -
क्रोशता हृदयेनापि गुरुदाराभियामिनाम्
भूयों धर्म: प्रसज्येत भूयसीह्मुपकारिता।
यदि उपकार ही धर्म माना जाय, तो कया गुरुपलीगमन करनेवाले को भी धर्म होना चाहिए! इन सब शंका-समाधानों पर तो आप मनन करेंगे नहीं, केवल मुझको दोष देंगे। मैंने पूछा - खट्टर काका, आपका अपना विचार क्या है?
खट्टर काका हँसते हुए बोले-अजी, मेरा कोई विचार स्थायी थोड़ें ही रहता है? फिर भी खट्टर-पुराण का एक श्लोक है -
अष्टादश पुराणेषु ख़ड्टरस्य वचोद्वयम्
निजोपकारः पुण्याय, पापाय निजपीडनम् पुँच
“जिससे अपना उपकार हो, वही धर्म है; जिससे अपने को कष्ट पहुँचे, वही पाप है।”
मुझे मुँह ताकते देखकर खट्टर काका बोले-देखो, परमार्थ का चकका भी चलता है, तो स्वार्थ की धुरी पर ।दान-पुण्य क्या वैसे ही किया जाता है? कहीं नाम के लिए, कहीं स्वर्ग के लिए। सबमें कुछ न कुछ लोभ रहता है। यदि स्वार्थ का तेल समाप्त हो जाय, तो परमार्थ की बत्ती भी बुझ जाय।
मैं - कितु तपस्वी लोग जो धर्म के लिए इतना कष्ट सहते हैं ? खट्टर काका बोले - अजी, कुछ लोगों की बुद्धि ही विचित्र होती है। वे समझते हैं कि अपने शरीर को जितना कष्ट पहुँचाया जाय, उतना ही अधिक धर्म होगा। इसीलिए कोई चांद्रायण व्रत' करते हैं, कोई 'पंचाग्नि साधन' करते हैं! कोई एक टाँग पर खड़े रहते हैं! कोई मचान पर बैठे रहते हैं! कोई काँटों पर सोते हैं। कोई मौनी बाबा बन जाते हैं।
कोई बेलपत्र का रस पीकर रहते हैं। पंडितजी बोले-यह सब साधना है। खट्टर काका बोले - साधना नहीं, 'साध' कहिए। नाम, दाल या काम की । घट भित्वा पट छित्वा कृत्या रासभरोहणम्
येन केन प्रकारेण प्रसिद्ध पुरुषों भवेत. पं.-परंतु निवृत्तिमार्ग तो सबसे ऊपर है। खट्टर काका बोले - निवृत्तिमार्ग निरुपायों के लिए है। जो निष्क्रिय हैं वे ही नैष्कर्म्यवाद का पल्ला पकड़ते हैं। जो निराश हैं, वे ही उदासीनता का नाट्य करते हैं।
जो अकिंचन हैं, वे ही कंचन की भर्सना करते हैं। त्याग और वैराग्य की बातें लाचारी की बातें हैं। पं.- संतोष: परम सुखम्
खट्टर काका बोले - पंडितजी, यह सिर्फ कहने की बात है। मिथिला के अयाची मिश्र सवा कट्टा बाड़ी पर संतोष कर आजीवन साग खाते रह गये । उनके ढेरों प्रशंसक हैं । परंतु वे लोग अपने बेटों के विवाह में सहस्नयाची बन जाते हैं।
मैंने पूछा--खट्टर काका, ब्रह्मचर्य के विषय में आपकी क्या राय है? खट्टर काका हँसते हुए बोले-ब्रह्मचर्य का अर्थ है, ब्रह्म के समान चर्या ब्रह्म नपुंसक लिंग है।
अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ है नपुंसकवत् आचरण। पं.- आप तो परिहास कर रहे हैं। ब्रह्मचर्य है विंदुरक्षा।
मरणं विंदुपातेन जीवन विंदुधारणात् ।
खट्टर काका बोले-मैं कहता हूँ -
जीवन विंदुपातेन मरणं विंदुधारणात्!
यदि सभी विंदु पुरुष के कोषागार में ही रह जाय, तब सृष्टि कैसे होगी? विंदुपात ही से तो जीव का प्रादुर्भाव होता है।
पं. - तब क्या ब्रह्मचारी बनना मूर्खता है।
खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले-जिन्हें सामर्थ्य है, वे दूसरे अर्थ में ब्रह्मचारी बन सकते हैं। 'ब्रह्म' स्वच्छंद होता है, इस कारण 'ब्रह्मचारी' का अर्थ हुआ स्वच्छंदाचारी । जैसे, संन्यासी का अर्थ है “सम्यक् प्रकार से 'न्यास' अर्थात् त्याग करनेवाला ।” इसी कारण वे लोग सामाजिक बंधनों को त्याग देते हैं।
कोई-कोई वस्त्र का बंधन भी त्यागकर दिगंबर या नागा बाबा' बन जाते हैं। गृहस्थ लोग गृहस्वामी बनकर बैल की तरह जुते रहते हैं। वैरागी लोग गोस्वामी बनकर साँड़ की तरह स्वच्छंद विचरते हैं।
पंडितजी बोले-वे लोग इतनी योग-साधना जो करते हैं सो क्या व्यर्थ है ?
खट्टर काका तरंग में आ गये थे। बोले--तब सुनिए। समस्त योग का उद्देश्य है भोग । कुछ लोग समझते हैं कि इस नाक को दबाने से उस “नाक' (स्वर्ग) का दरवाजा खुल जायगा। यहाँ कुंडलिनी (योग) जगाने से वहाँ कुंडलिनी (कुंडलवाली रमणी) मिल जायगी । यहाँ खेचरी' (मुद्रा) साधन पर वहाँ खेचरी' (आकाश-विहारिणी परी) मिल जायगी। जो नारी को नरक की खान बताते हैं, वे भी नारी के लोभ से स्वर्ग जाना चाहते हैं। रंभा के लोभ में भगवान् को रंभाफल (केला) चढ़ाते हैं।
'तिलोत्तमा' के लोभ में तिल छींटते हैं। अगर सभी लोग समझ जाये कि स्वर्ग का फाटक एक टाटक मात्र है, तो आज ही सारा त्राटक और पूजा का नाटक समाप्त हो जाय! यदि चंद्रमुखी' ही न मिलेगी, तो लोग गोमुखी' में हाथ देकर जप क्यों करेंगे? यदि 'मृगनयनी” नहीं मिले, तो लोग 'मृगछाला' क्यों पहनेंगे? यदि 'षोडशी' की आशा न हो तो एकादशी क्यों करेंगे ?
मैं - अहा! अलंकारों की वर्षा हो गयी।
खट्टर काका बोले - केवल अलंकार ही नहीं, यथार्थ भी है । मैं पूछता हूँ, यदि वारांगना वरांगना नहीं समझी जाती, तो स्वर्ग में देवांगना होकर कैसे निवास करती ? बड़े-बड़े महात्मा भी पुण्य का क्षय होने पर मर्त्यलोक में आ जाते हैं। परंतु रंभा, उर्वशी, मेनका, तिलोत्तमा आदि अप्सराएँ अक्षत-यौवना होकर नित्य सुख भोगती हैं । किसी कुलवधू को ऐसा सौभाग्य प्राप्त है ?
मैंने कहा-खट्टर काका, कहाँ कुलवधू, कहाँ वेश्या ?
खट्टर काका बोले-दोनों में उतना ही अंतर है, जितना एक चुल्लू पानी और सदानीरा महानदी में एक क्षुद्रता की मूर्त्ति है, दूसरी उदारता की। जो एक ही व्यक्ति के काम आये, वह शरीर भी कोई शरीर है ?
धन्य है वह शरीर जो अनेकों के काम आवे! परोपकाराय सता विभूतय:!
पंडितजी - वेश्या तो पण्यस्त्री है। शरीर-सुख देकर पैसे लेती है।
खट्टर काका बोले-वेश्या कभी-कभी लेती है। भार्या आजीवन लेती रहती है। तभी तो भार्या कहलाती है, (जिसका भरण करना पड़े)।
फर्क यही है कि भार्या एक को सुख देती है, वेश्या अनेक को।
देवी - भागवत में लिखा है -
पतिब्रता चैकपतौ द्वितीये कुलटा भवेत्
तृतीया पर्षिणी ज्ञेया चतुर्थ परश्चली तथा
वेश्या च पंचमे षष्ठे पुंगी च सप्तमे5ष्टमे
ततः ऊर्ध्व महावेश्या . ....
अर्थात्, “एक पति से संसर्ग होने पर पतिव्रता, दो से...कुलटा, तीन से घर्षिणी, चार से पुंश्चली, पाँच-छ: से वेश्या, सात-आठ से पुंगी, और उसके ऊपर महावेश्या! उदारचरितानां तु वसुधैव कृटुम्बकम्! पंडितजी-वेश्या तो नरकगामिनी होती है ।
खट्टर काका बोले - तब धर्मशास्त्र देख लीजिए। गृहिणी आजीवन पतिसेवा करती रहेगी, तब वैकुंठ जायगी। एक बार जरा भी सेवा में चूक हो गयी, तो यमदूत उसके मुँह में ऊक लगा देंगे।
स्वामिसेवा विहीना या: वर्दति स्वामिने कटुम मुखे तासां ददात्येव मुल्कां च यमकिकरा: (ब्रह्मवैवर्त)
और वेश्या सीधे विष्णुलोक पहुँच जायगी! यदि मुस्कुराकर बोलती हुई अपने को सर्वथा समर्पित कर दे!
यद्यदिच्छति विप्रेद्र: तत्तत् कुर्यात् विलामिनी
सर्वभावेन चाञ्सानं अरपयेत स्मितभाषिणी
(भविष्यपुराण उत्तरपर्व )
वेश्याओं से विष्णु भगवान् भी प्रसन्न रहते हैं। इसीलिए तो मुक्ति का मार्ग उनके लिए इतना सुगम बना दिया गया है। तभी तो स्वर्गलोक वेश्याओं से भरा है। मगर एक भारी गड़बड़ है। स्वर्ग जाने से धर्म भ्रष्ट हो जायगा!
अब पंडितजी से नहीं रहा गया । बोलें-आप तो उलटी गंगा बहाते हैं। भला स्वर्ग जाने से कहीं धर्म भ्रष्ट हो!
खट्टर काका ने कहा-देखिए, पंडितजी, मान लीजिए, आपके सभी पूर्वज स्वर्ग गये । आप भी जायँगे। कितु भोग्या असराएँ तो वे ही सब रहेंगी! रंभा, उर्वशी, तिलोत्तमा--जो युग-युग से सभी की तृप्ति करती आ रही हैं। तब तो स्वर्ग को भी 'भैरवी-क्षेत्र' ही समझिए! इसी से मैं कहता हूँ कि स्वर्ग जाने से धर्म नष्ट हो जाता है।
पंडितजी-आप तो हँसी कर रहे हैं। परंतु सतीत्व धर्म से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। खट्टर काका मुस्कुराते बोले-पंडितजी, सतीत्व धर्म से भी अधिक प्रबल है प्रकृति धर्म, जो सृष्टि के आदि से ही चल रहा है ।
विवाह तो हमारा आपका रचा हुआ कृत्रिम बंधन है। उद्दालक-पुत्र श्वेतकेतु जैसे ऋषि बंधन बनाते आये हैं, और जाबाला जैसी
युवतियाँ उन्हें तोड़ती आयी हैं । दीर्घतमा तो कहती है कि एक पति की प्रथा उसके पहले थी ही नहीं। अद्यप्रभुति मर्यादा मया लोके प्रतिष्ठिता
एक एवं पतिनर्या: यावज्जीवं॑ परायणम
(महाभारत आदिपर्व)
पंडितजी - तब पातिद्रत्य ईश्वरीय आज्ञा नहीं है ? खट्टर काका-यदि ईश्वरीय आज्ञा होती, तो स्वयं भगवान् ही वृंदा का पातिव्रत्य कैसे भंग करते?
पंडितजी - वह तो पौराणिक ईश्वर हैं। मैं निर्गुण, निराकार ब्रह्म की बात करता हूँ।
खट्टर काका हँस पड़े बोले-पंडितजी, निराकार ब्रह्म को उसमें क्यों घसीटते हैं ? क्या उनका यही काम है कि स्त्री-पुरुष के बीच में घुसकर झरोखे से मुजरा लेते रहें! पंडितजी रुष्ट होकर बोले - आप 'ब्रह्म' को गाली दे रहे हैं ? यदि ईश्वरीय आज्ञा नहीं है, तब पातिव्रत्य धर्म की उत्पत्ति कैसे हुई ? खट्टर काका मुस्कुराकर बोले-देखिए, लोकायत दर्शन कहता है -
'पातिव्रत्यादि संकेत: बुद्धिमद् दुर्बलै: कृतः
रूपवीर्यवता सार्ध स्त्रीकेलिमसहिष्णुभि:
“बलहीन चालाक पतियों ने रूप-वीर्य वाले पुरुषों से अपनी स्त्रियों को बचाने के लिए ईर्ष्यावश पातिव्रत्य धर्म की स्थापना की।”
एक का तो यहाँ तक कहना है कि -
कृत: धर्मप्रपंचोष्यं परमुष्ट्यां न यत पतेत्
कदाचित् स्वकृशग्रीवा पलीपीनस्तनो
“अपनी पतली गर्दन और पली का पीन स्तन दूसरे की मुट्ठी में नहीं पड़े, इसी उद्देश्य से धर्म का इतना सारा प्रपंच रचा गया है!
पंडितजी बोले - आपको तो सदा विनोद ही में रस मिलता है। खट्टर काका बोले - सो तो है ही । परंतु क्षमा कीजिएगा, पंडितजी! आप जिसे 'पातिव्रत्य' कहते हैं, यही यथार्थतः व्यभिचार' है।
पंडिजी बिगड़कर बोले - आप तो 'कबीरदास की उलटी बानी' बोल रहे हैं! खट्टर काका बोले-पंडितजी, आप स्वयं सोचकर देखिए। व्यभिचार का क्या अर्थ? सामान्य नियम का अपवाद | सामान्य नियम किसे कहते हैं? व्यापक नियम को। अब देखिए, सृष्टि का व्यापक नियम क्या है? नर और मादा के संयोग से स्वभावतः गर्भाधान हो जाता है। उसके लिए न शंख फूँकने की जरूरत है, न शहनाई बजाने की। सिंदूरदान और गठबंधन तो केवल आडंबर मात्र हैं। स्त्री को भैंस की तरह नाथने के लिए । इसी से तो महिषी और नाथ जैसे शब्द चल पड़े।
पंडितजी को चुप देखकर खट्टर काका फिर बोले-देखिए, प्राणी मात्र को मैथुन कर्म में स्वतंत्रता है। केवल मनुष्य ने ही इस नियम का उल्लंघन कर स्त्री को घेरे-के अंदर बंद कर दिया है। इसी कारण पातितव्रत्य धर्म को मैं अपवाद या व्यभिचार कहते हूँ । पंडितजी का स्नान समाप्त हो गया था। अपमर्षण यूक्त पाठ करते हुए विदा हो गये।
मैंने कहा - धन्य हैं खट्टर काका, आप जो न सिद्ध कर दें! मगर ऐसा कहिएगा तो सतीत्व धर्म को धक्का लगेगा। खट्टर काका भभाकर हँस पड़े । बोले - अजी, मेरे जैसे मदकची के कहने से तो धक्का लगेगा! और स्मृतिकार लोग जो व्यभिचार का इतना खुल्लमखुल्ला समर्थन कर गये हैं, उससे धक्का नहीं लगेगा ?
मैं - खट्टर काका, यह आप कया कहते हैं? स्मृतियों में कहीं व्यभिचार का समर्थन हो ? खट्टर काका बोले-तब देखो, स्मृतियों में कैसे-कैसे वचन हैं ?
न स्त्री दुष्पति जारेण
(जार-कर्म से स्त्री दूषित नहीं होती)
रजसा शुध्यते नारी
(रजःस्राव हो जाने पर नारी शुद्ध हो जाती है)
और देखो,
विमुक्ते तु ततः शल्ये रजश्चापि प्रदृश्यते
तदा सा शुध्यते नारी विमल कांचनं यथा
(अत्रिस्मृति)
अर्थात्, “असवर्ण से भी स्त्री को गर्भ रह जाय, तो उसका त्याग नहीं करना चाहिए। पुनः पुष्पवती होते ही वह निर्मल स्वर्ण की तरह शुद्ध हो जाती है।”
शौच सुवर्ण नारीणां वायुसूर्यन्दुरश्मिभि: (आपस्तंबस्मृति)
अर्थात्, “कामिनी और कांचन सूर्य-चंद्रमा की किरणों और हवा से ही शुद्ध हो जाते हैं।”
न दुष्येत् संतता धारा वातोद्धूताश्च रेणव:
स्त्रियों वृद्धाश्व बालाश्च न दुष्यन्ति कदाचन
(आपस्तंबस्मृति)
“जिस प्रकार बहती धारा में कोई दोष नहीं, हवा में उड़ते हुए धूलिकणों में कोई दोष नहीं, उसी प्रकार स्त्रियों, वृद्धों और बच्चों में कोई दोष नहीं लगता।” अजी, जैसे-जैसे सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती गर्यी, स्मृतिकार भी उन्हीं के अनुरूप वचन बनाते गये। इसीलिए कहा गया है -
श्रुति विभिन्न स्पृतयों विभिन्ना:
नैको मुनिर्यस्य बच: प्रमाणम्!
मैंने पूछा-खड्टर काका, आपको स्वर्ग में विश्वास नहीं है ?
खड्र काका बोले - यदि एक भी आदमी स्वर्ग से आकर कहता, तब न विश्वास होता! परंतु आज तक जो भी गये सो लौटकर नहीं आये। और जो कहते हैं, सो गये ही नहीं हैं। फिर उनकी बात का क्या भरोसा ?
मैं - खट्टर काका, अगर इस बात में कोई तथ्य नहीं होता, तो इतने दिनों से कैसे चलती आती?
खट्टर काका बोले - अजी, पृथ्वी पर लोगों को भोग से तृप्ति नहीं होती । तृष्णा का अंत नहीं है। परंतु जीवन परिमित है। देह की शक्ति अल्प है। कुछ ही दिनों में बुढ़ापा आ जाता है। और, भोग-तृष्णा बनी ही रह जाती है।
तब तक खेल खतम हो जाता है। इसी कारण लोग आकाश-कुसुम की कल्पना करते हैं। मनमोदक खाते हैं। “मृत्यु के अनंतर ऐसी जगह जायँगे जहाँ अमृत-तुल्य मधुर भोजन मिलेगा, भोग के लिए अप्सराएँ मिलेंगी!” अजी, सुरालय क्या हुआ, श्वशुरालय हो गया! बल्कि उससे भी लाख गुना बढ़कर । ससुराल में तो एक ही षोडशी पर सोलह आने अधिकार रहता है। लेकिन स्वर्ग में तो षोडश सहसख्र षोडशियाँ रहती हैं। सभी अक्षत यौवना! और, कोई साला-ससुर रोकने वाला नहीं! ऐसी चकल्लस और कहाँ मिलेगी ?
मैं - खट्टर काका, आप तो सभी बातें हँसी में उड़ा देते हैं। तब धर्म है क्या ?
खट्टर काका बोले - अजी, मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना! कोई कहते हैं--आत्मा रक्षितो धर्म:। कोई कहते हैं - धारणाद् धर्म इत्याहु:। कणाद का मत है - यतोडभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्म: जैमिनि की परिभाषा है - चोदनालक्षणोंर्यो धर्म:।
मैं - खट्टर काका, आप किस मत को मानते हैं ?
खट्टर काका - मैं सभी वचनों को मानता हूँ। सिर्फ भाष्य अपना करता हूँ। जिससे आत्म-रक्षा हो, शरीर का धारण संभव हो, अधिकतम आनंद की प्राप्ति हो, सृष्टि का प्रवाह चलता रहे, वही धर्म है।
मैं - परंतु धर्माचार्यों का कहना है - नास्ति सत्यात् परो धर्म: । सबसे बड़ा धर्म है सत्य।
खट्टर काका - यह असत्य है। मान लो, कोई तलवार लेकर तुम्हें काटने आया है, और तुम झाड़ियों में छिपे हो, तो क्या मुझे सच-सच बता देना चाहिए? वहाँ सत्यरक्षा धर्म है या प्राणरक्षा ?
मैं - तब शाश्वत धर्म क्या है, सो मेरी समझ में नहीं आता।
खट्टर काका - बड़ों-बड़ों की समझ में नहीं आता! इसी से तो कहा गया है - धर्मस्य तत्त्व॑
निहित॑ गृहायाम्! उस गुफा में प्रवेश किये बिना धर्म का मर्म नहीं जाना जा सकता । मुझे मुंह ताकते देखकर खट्टर काका बोले - अजी, किस पचड़े में हो ?ऐसा कोई धर्म नहीं, जो सर्वदा सर्वथा सबके लिए लागू हो। देश-काल-पात्र के अनुसार धर्म भी बदलते रहते हैं। सभी धर्म आपेक्षिक होते हैं, अवस्थाओं पर, परिस्थितियों पर, निर्भर करते हैं। निरपेक्ष या ऐकान्तिक धर्म नाम की कोई चीज नहीं है। देखो, महाभारत के
शांतिपर्व में साफ कहा गया है -
देशकालनिमित्तानां भेदैर्धभमो विभिद्यते
नहि सर्वहितः कश्चिदाचारः संप्रवर्त्तते ।
आचाराणामनेकाग्रय॑ तस्मात् सर्वत्र दश्यते
नह्मौवैकान्तिको धर्मो धर्मस्त्वापेक्षिक: स्मृतः
मैंने पूछा - तब इतने धर्मशास्त्र क्यों बनाये गये हैं ?
खट्टर काका ने हँसते हुए कहा - अजी,
मंदबोधोपकारार्थ धर्मशास्त्रं विनिर्मितम्
निज कल्याण मार्ग हि पश्यन्ति सुधिय: स्वयम्
जो मंदबुद्धि हैं, उन्हीं कै लिए धर्मशास्त्र बनाये गये हैं। जो बुद्धिमान हैं, वे स्वयं अपना मार्ग पा लेते हैं।