मोक्ष - विवेचन

खट्टर काका बनारसी ठंढाई छान रहे थे।

तब तक पंडितजी श्लोक पढ़ते आ गये -

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका पूरी द्वारावती चैव सप्तैता: मोक्षदायिकाः -

खट्टर काका मुस्कुराकर बोले-पंडिजी, मोक्ष पाने का बड़ा सस्ता नुसखा आपने बता दिया । फैजाबाद या बनारस का टिकट कटा लीजिए और मोक्ष ले लीजिए!

तब तो वहाँ के सभी लोगों के लिए मोक्ष की पहले ही एडवांस बुकिंग' हो गयी होगी ?

पंडितजी बोले - आप तो हँसी करते हैं, परंतु जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष ही है।

खट्टर काका बोले-इसी लक्ष्य ने तो हम लोगों को भक्ष्य बना दिया!

और देशों के लोग संसार को क्रीड़ागार समझते हैं, हम लोग कारागार समझने लगे। “जीवन ही बंधन है। कैसे इससे, छुटकारा होगा!

पंडितजी बोले-अपने यहाँ की दृष्टि आध्यात्मिक रही है।

खट्टर काका ने कहा-यही तो बीमारी है। हमारी दृष्टि पर अध्यात्मवाद का ऐसा मोतियाबिंद छा गया, कि संपूर्ण संसार ही घुँधला प्रतीत होने लगा।

जैसे पीलिया रोग में सबकुछ पीला-पीला नजर आता है।

मोक्ष का ऐसा चसका लगा कि क्‍या अफीम का नशा चढ़ेगा ?

उसके आगे जीवन के सभी आनंद फीके पड़ गये । जैसे बुखार में मिठाइयाँ भी बेमजा लगती हैं।

पंडितजी - अपने यहाँ के द्रष्टा सबसे बड़े आनंद की तलाश में थे।

खट्टर काका बोले-हाँ, वे भूमि छोड़कर 'भूमा' के पीछे दौड़ने लग गये।

सभी शास्त्र-पुराण मोक्ष के एजेंट बन गये ।

जगह-जगह मोक्ष के गोदाम खुल गये । उनमें धड़ल्ले से मोक्ष की बिक्री होने लगी। मोक्षप्राप्ति के एक-से-एक नायाब नुसखे निकाले जाने लगे।

“इस प्रकार नाक दबाओ तो पुनर्जन्म न विद्यते। इस प्रकार दान करो, तो पुनर्जन्म न विद्यत । अमुक तीर्थ में स्नान करो तो पुनर्जन्म न विद्यते ।

अमुक मंत्र का जप करो, तो पुनर्जन्म न विद्यते!” जैसे, पुनर्जन्म कोई हौआ हो, गले का फंदा हो, जिसे जल्द-से-जल्द उतार फेंकना जरूरी है!

मैंने कहा-खड्टर काका, आपको मोक्ष में विश्वास नहीं है ?

खट्टर काका ने कहा-अरे, मूल नास्ति कुतः शाखा! जब पुनर्जन्म में ही विश्वास नहीं है, तो फिर मोक्ष की क्‍या बात ?

पंडितजी ने शास्त्रार्थ की मुद्रा में कहा-पुनर्जन्म अवश्य है। तभी तो अबोध शिशु पूर्वजन्म के अभ्यासवश स्तन की ओर लपकते हैं।

खट्टर काका ने मुस्कुराते हुए कहा-पंडितजी, आधुनिक युवतियाँ बच्चों को स्तन नहीं, बोतल पिलाती हैं। तब तो वे दूसरे जन्म में स्तन की जगह बोतल पर लफकेंगे ?

पंडितजी - आपको तो सब जगह विनोद ही की बातें सूझती हैं। पर देखिए, कोई जन्म से ही तीव्र होता है, कोई मंद। कोई पूर्णांग होता है, कोई विकलांग। ऐसा क्‍यों होता है ?

खट्टर काका बोले-पंडितजी, गन्ने के खेत में कोई गन्ना मोटा निकलता है, कोई पतला। कोई सीधा, कोई टेढ़ा, कोई ज्यादा मीठा, कोई कम मीठा ।

इसका क्‍या कारण है ?

पं. - बीज क्षेत्र, खाद इत्यादि के भेद से ऐसा होता है।

ख. - तब यही बात बच्चों के साथ भी समझ लीजिए।

पं. - आप अदृष्ट नहीं मानते हैं ?

ख. - देखिए, कुछ कारण अदृष्ट होते हैं। जैसे, आपके गाल पर एक लाल मस्सा है। उसका कारण ज्ञात नहीं है। इसी को मैं अदृष्ट कारण कहता हूँ।

पं. - आप तो अर्थ ही बदल देते हैं। में पूछता हूँ कि आप कर्म-फल मानते हैं या नहीं ?

ख.- जहाँ कार्य-कारण संबंध है, वहाँ अवश्य मानता हूँ। जैसे, इस बार पानी पटाने से शफतालू खूब फला है और सिंचाई नहीं होने के कारण आलू सूख गया।

ऐसा नहीं कि पूर्वजन्म के कर्मफल से ऐसा हुआ है। जब दृष्ट कारण मौजूद है, तो अदृष्ट का सहारा क्‍यों लेंगे ?

पं - इसका मतलब कि आप प्रत्यक्षवादी हैं परंतु यदि अदृष्ट कोई वस्तु नहीं, तब क्यों कोई व्यक्ति राजा होकर जन्म लेता है और कोई भिक्षुक होकर ?

ख.- पंडितजी! राजा और रंक का भेद ईश्वर नहीं बनाते हैं। हमीं लोग सामाजिक ढाँचा गढ़ते हैं, जो समयानुसार बदलता रहता है।

आज रूस-अमेरिका में न कोई राजा होकर जन्म लेता है, न भिक्षुक होकर।

पंडितजी बोले-प्रारब्ध का फल तो भोगना ही पड़ता है।

खट्टर काका कहने लगे - पंडितजी, जरा खुलासा करके समझाइए । जिस प्रकार बैंक में जमा-खर्च का हिसाब रहता है, क्‍या उसी प्रकार परलोक में भी कर्म-फल के खाते खुले हुए हैं ?

हम लोग जो भी करते हैं और भोगते हैं, वे सब क्‍या वही में दर्ज होते जाते हैं ?

पं. - अवश्य ।

खट्टर काका बोले - और जब लेना-पावना बराबर हो जायगा अर्थात्‌ कर्मफल के खाते में शून्य रह जायगा, तब हमें फारखती अर्थात्‌ मुक्ति मिल जायगी ?

पं.-अवश्य ।

ख.- तब तो कर्मों का फल जितना भोग लिया जाय उतना अच्छा है ?

पं.- अवश्य। कृतकर्मणां भोगादेव क्षयः।

खट्टर काका बोले - तब तो लोगों को अपने-अपने कर्म-फल भोगने देना चाहिए।

कोई दर्द से छटपटा रहा है। कोई भूखों मर रहा है। किसी पर लाठी का प्रहार हो रहा है । किसी अबला पर बलात्कार हो रहा है।

तब हम क्यों दौड़ें ? उन्हें अपने-अपने प्रारब्ध का फल भोगने दीजिए ।

जितना भोग लेंगे उतना पाप कट जायगा। हम क्‍यों बीच में पड़कर उनके मोक्ष के मार्ग में बाधक बनें ?

पंडितजी की समझ में नहीं आया कि क्‍या जवाब दें ? प्रारब्ध और क्रियमाण के बीच विभाजक रेखा कैसे खींचें!

कुछ बोल देना चाहिए, इसलिए बोले -

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृत कर्म शुभाशुभम्.

सभी जीवों को प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग अथवा उद्धिज्ज योनि में जन्म लेकर सुख-दुःख भोग करना पड़ता है।

खट्टर काका बोले-अच्छा, सामने खेत में धान के पौधे लहलहा रहे हैं। तब तो आपके हिसाब से वहाँ लाखों जीवात्मागण पंक्तिबद्ध खड़े होकर अपने-अपने पूर्व कर्म का फल भोग रहे हैं ?

अच्छा, मैं पूछता हूँ कि बाढ़ आने पर ये पौधे नष्ट हो जायँगे, क्या यह भी प्रारब्ध का ही फल होगा ?

तब तो खेत में बाँध नहीं बाँधा जाय ? जीवात्मा लोगों को प्रारब्ध का भोग करने दिया जाय ?

पंडितजी चुप रहे ।

खट्टर काका ने कहा-देखिए, महामारी के प्रकोप से सैकड़ों व्यक्ति मर जाते हैं । भूकंप में हजारों मनुष्य दब जाते हैं। आँधी के झोंके में लाखों मच्छर नष्ट हो जाते हैं।

क्‍या इन घटनाओं में भी कर्म-फल-दाता की पूर्व-रचित योजना रहती है ?

पंडितजी से कुछ स्पष्ट उत्तर देते नहीं बना।

खट्टर काका ने कहा-अच्छा, पंडितजी! एक बात पूछता हूँ। अभी प्रृथ्वी पर धर्म की मात्रा अधिक है अथवा पाप की ?

पंडितजी-कलियुग में पाप की मात्रा अधिक रहती है।

ख़.- जो मनुष्य ज्यादा पाप करता है, उसे तो मनुष्य योनि नहीं मिलनी चाहिए।

पं.- नहीं!

ख.- तब तो मनुष्यों की संख्या कम होनी चाहिए? फिर दिनानुदिन बढ़तीं क्यों जा रही है?

पंडितजी को सहसा उत्तर नहीं सूझा।

खट्टर काका ने पूछा-दुःख-सुख का भोग तो पाप-पुण्य से ही होता हैं।

पं.- अवश्य ।

ख.- तब तो हल जोतनेवाले बैलों ने पूर्वजन्म में पाप किया था जिसका फल भोग रहे हैं ? और काशी के साँड़ों ने पुण्य किया था, जो तर माल चाभते फिरते हैं ?

पंडितजी चुप लगा गये।

खट्टर काका पुनः कहने लगे-देखिए, पंडितजी! अमेरिका के लोग दिन में चार-चार बार मक्खन उड़ाते हैं और यहाँ हम लोगों को छाछ भी नहीं जुड़ती। जब तो वे लोग पूर्वजन्म के पुण्यात्मा हैं।

या यों कहिए कि आजकल धर्मात्मा लोग प्रायशः अमेरिका में ही जाकर जन्म लेते हैं।

पंडितजी बोले - आप प्रकारांतर से यह कहना चाहते हैं कि हम लोग पूर्वजन्म के पापी हैं, इसलिए इस देश में दुःख भोग रहे हैं।

खट्टर काका बोले-मैं तो पुनर्जन्म मानता ही नहीं। जो मानते हैं, उनके सिद्धांत का खुलासा जानना चाहता हूँ।

पंडितजी बोले - आप तो चार्वाक की तरह तर्क करते हैं। हम लोग नास्तिकों के साथ शंका-समाधान नहीं करते।

खट्टर काका बोले-पंडितजी, यही तो आप लोगों में भारी दोष है कि प्रतिपक्षी को नास्तिक' कहकर टाल देते हैं ।

समझने की कोशिश नहीं करते । आपका सारा महल आत्मा की नींव पर खड़ा है? उसी आधार-स्तंभ पर आप पुनर्जन्म और कर्मफल की इमारत प्रस्तुत कर मोक्ष की पताका फहरा रहे हैं।

लेकिन आज विज्ञान आपकी जड़ खोद रहा है। आत्मा के तले से धरती खिसकती जा रही है। अगर वह पाया टूटा, तो आपकी संपूर्ण अझलिका ढह जायगी।

आपका सारा हवाई महल ताश के पत्तों की तरह बिखर जायगा। तब आप कहाँ जायँगे ?

आप जिसे मीनार समझ रहे हैं, वह कहीं खिसकता हुआ बालू का कगार तो नहीं है ?

यह भी तो आपको देखना चाहिए। कहीं ऐसा नहीं हो कि आप जिसे पेड़ की डाल समझकर मजबूती से पकड़े हुए हैं, वह सरकता हुआ

साँप सिद्ध हो जाय और आप उसे लिये-दिये धड़ाम से नीचे गिर पड़ें!

पंडितजी बोले - आज के भीतिकवादियों को कठोपनिषद्‌ से उत्तर मिल जायगा। मृत्यु के बाद क्‍या होता है, इसका रहस्य यम ने नचिकेता को समझाया है।

खट्टर काका ने कहा-अजी, कठोपनिषद्‌ में कोरा कठविवाद है! यम ने नचिकेता को बच्चा जानकर बहला दिया है।

पहले तो बड़े-बड़े नखरे दिखाए कि यह राज मत पूछो । और आखिर में बताया क्या ?

वही घिसीपिटी आत्मा की बात, और अंत में सहवीर्य॑ करवावहै! नचिकेता बेवकूफ थे, इसीलिए उनको यह भी नहीं पता चला कि यमराज ने कैसा चकमा दिया! जो प्रश्न पूछने गये थे, वह तो यों ही रह गया।

उन्हें हाथ क्या लगा ? खोदा पहाड़ निकली चुहिया! आज के विज्ञानवेत्ता नचिकेता की तरह अल्पचेता नहीं है, जो इस तरह घपले में आ जायँ। वे चेकितान हैं!

पंडितजी ने कहा - अभी तो विद्यालय का समय हो रहा है। बाद में आकर फिर आपके साथ विचार करूँगा। वादे वादे जायते तत्त्वबोध:।

खट्टर काका ने कहा-अवश्य आइएगा। लेकिन ऐसा न हो कि -

वादे वादे जायते तत्त्वरोधः।

अब केवल उपनिषद्‌ का उद्धरण देने से उद्धार नहीं है। समीक्षकों की परिषद्‌ से पास होना भी जरूरी है।

पंडितजी के चले जाने पर मैंने कहा-खट्टर काका, आप*तो पंडितजी को उलझन में डाल देते हैं ।

इसमें आपको मजा मिलता है। मगर यह बताइए कि क्‍या मृत्यु के बाद कोई आत्मा या चेतन्य कायम नहीं रहता ?

खट्टर काका बोले - अजी, यही बात तो समझ में नहीं आती है। जब संपूर्ण शरीर ही नष्ट हो गया, तब मस्तिष्क पर अश्रवित चैतन्य का अस्तित्व किस ब्वर आधारित रहेगा ?

भसमीभूतस्य वेहस्य कथ॑ चैतन्यसंस्थिति:?

जब घड़ी ही टूट गयी तो फिर उसकी 'टिक्‌-टिक' कैसे टिकेगी ?

मैंने कहा-किंतु अपने यहाँ के लोग तो समझते हैं कि आत्मा पिंजड़े के पंछी की तरह है, जो मृत्यु के बाद शरीर से निकलकर उड़ जाता है।

खट्टर काका बोले - अजी, इसी कल्पना पर तो पुनर्जन्म का भवन खड़ा है । अगर आत्मा नहीं, तो पुनर्जन्म किसका होगा ? कर्म-फल कौन भोग करेगा? और यह सब नहीं, तो फिर मोक्ष का क्‍या अर्थ रह जायगा ?

आज के वैज्ञानिक “आत्मा' नहीं मानते । उनका विचार है कि शरीर पिंजड़ा नहीं, कंप्यूटर की तरह है । उसमें कोई चिड़िया नहीं है, केवल कल-पुर्जे हैं ।

मानसिक क्रियाओं को भी वे शरीर-यंत्र की करामात समझते हैं। अगर यह बात सिद्ध हो गयी, तब तो' “आत्मा' का खातमा ही समझो। "न सोनू साह, न सहजन का गाछ!'

मैंने कहा-खट्टर काका, यदि आत्मवाद में तथ्य नहीं, तो इतने दिनों से चलता कैसे आ रहा है ?

खट्टर काका बोले-देखो, मृत्यु की विभीषिका से बचने के लिए अमरत्व की कल्पना की गयी है।

धनवानों को भोग करते देखकर छाती नहीं फट जाय, इसीलिए पूर्वजन्म की कल्पना की गयी है।

इससे मन को सांत्वना मिलती है। “अमुक ने पुण्य किया था, इसलिए कलाकंद खा रहा है, मैंने पाप किया था, इसलिए शकरकंद खा रहा हूँ।” यह भावना दुःख में मलहम का काम करती है।

हम अपने मन को संतोष देते हैं कि इस जन्म में पुण्य करेंगे तो अगले जन्म में एकबारगी खूब सुख-भोग कर लेंगे।

इसी आल्-प्रतारणावश बहुत लोग जीवन में तरह-तरह के कष्ट सहक्र पुण्य बटोरने के फेर में लगे रहते हैं।

इसी प्रत्याशा पर कि पीछे एक ही बार सबकुछ हाथ लग जायगा।

इसी कारण नाना प्रकार के यज्ञ-याप, तीर्थ-ब्रत, दान-पुण्य किये जाते हैं।

सबके मूल में एक ही भावना काम करती है, “भविष्य में अधिकतम सुख की प्राप्ति कोई स्वर्ग का स्वप्न देखता है, कोई मोक्ष का मनमोदक खाता है।

साधकगण चाहते हैं कि इस जीवन में अधिक-से-अधिक फीस देकर स्वर्ग या मोक्ष का बीमा करा लें! इस वाणिज्य-वृत्ति को 'धर्म' का नाम दिया जाता है! मगर, मुझे तो इस बीमा कंपनी में विश्वास नहीं ।

मैं आजीवन किश्तें चुकाता जाऊँ, और अंत में वह कंपनी नकली साबित हो जाय, तब ?

इसीलिए मैं भी चार्वाक वाला सिद्धांत मानता हूँ - वरमद्य कपोतः श्वो मयूरात्‌!

“शायद कल कहीं मोर मिल जाय', इस उम्मीद में हाथ आये कबूतर को छोड़ देना विशुद्ध मूर्खता है ।

स्वर्गलोक में कदाचित्‌ कोई अप्सरा अमृत पिला दे, इस वकांड-प्रत्याशा में इस ठंढाई को फेंक दूँ, यह क्‍या बुद्धिमानी होगी ?

मैंने पूछा - तब आपको मोक्ष में आस्था*नहीं है ?

ख.- अजी, मैं तो सीधी बात जानता हूँ -

देहोच्छेदो मोक्ष:!

जिस दिन-यह चोला छूट जायगा, उस दिन स्वतः सब दु:खों से छुटकारा मिल जायगा। यह मोक्ष तो एंक दिन मिलना ही है।

मैं चाहूँ या नहीं चाहूँ। तब अभी से उसके पीछे अपना आराम क्यों हराम करूँ ?

मैंने कहा-तब मोक्ष के हेतु यल करने का प्रयोजन नहीं?

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक, बौले--हाँ, एक यल मोक्ष के लिए कर सकते हो।

मोक्ष का अर्थ है, ज्ञान से मुक्ति! सबसे बड़ा अज्ञान है, मोक्ष में अंधविश्वास ।

' यदि इस - मोक्षरूपी बंधन से छुटकारा हो जाय, तो बहुत बड़ा मोक्ष मिल जाएगा।

मैंने पूछा-खट्टर काका, जीवन्मुक्त कैसे होते हैं ?

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले - अजी, मुझे तो आज तक एक भी नहीं मिले। कहीं मिल जाते तो एक डंडा लगाकर देखता कि उनकी स्थितप्रज्ञता कहाँ तक कायम रहती है।

खट्टर काका हँस पड़े बोले - जो अभागे हैं, वे मोक्ष के पीछे दौड़ते हैं ।

जो भाग्यवान हैं, वे बैठे-बैठे ही सब बंधन खोलकर सायुज्य मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।

मैंने कहा-सो कैसे, खट्टर काका ?

खट्टर काका विनोदपूर्वक बोले-देखो, जो लोग पहुँचे हुए हैं, उनके लिए विधि क्‍या और निषेध क्या ?

निस्त्रेगुण्ये पथि विचरतां को विधि: को निषेधः

जो अभागे हैं, वे

भिक्षोपवासनियमाकमरीचिदाहै: अपने शरीर को सुखा डालते हैं।

जो भाग्यवान हैं, वे

आलिंगन भुजनिपीडित बाहुमूल
भुग्नोननतस्तनमनोहरमायताक्ष्याः

आनंद लूटते हैं। उनके लिए तो नीविमोक्षो हि मोक्ष:!

मैंने कहा-खट्टर काका, आप तो सब बातों को विनोद ही में उड़ा देते हैं।

लेकिन गौतम, कणाद, कपिल आदि जो मोक्ष का इतना सारा विवेचन कर गये हैं, सो क्या व्यर्थ है ?

खट्टर काका हँसते हुए बोले-देखो, गौतम-कणाद के मोक्ष में न चैतन्य है, न आनंद है । जड़ पाषाण की तरह निश्चेष्ट स्थिति है ।

इसीलिए एक आलोचक ने आड़े हाथ लिया है -

मुक्तये सर्वजीवानां यः शिलातवं प्रयच्छति
स्‌ एक: गोतमः ग्रोक्त: उन्नकश्च तथापरः

“जो मुक्ति के नाम पर 'शिलात्व' प्रदान करते हैं, उनके नाम गोतम' (पशुतम) और 'उलूक' (उल्लू पक्षी) ठीक ही बैठते हैं।”

मैं - एक ने तो झल्लाकर यहाँ तक कहा है कि -

वर॑ वृंदावनेरण्ये श्रगालत्वं भजाग्यहम्‌
न व पाषाणवन्मोक्षं प्रार्थथामि कदाचन

“बृंदावन में गीदड़ होकर जन्म लेना अच्छा, लेकिन पत्थर के समान मोक्ष अच्छा नहीं।”

मैं - खट्टर काका, गौतम ने ऐसे मोक्ष का क्‍यों उपदेश दिया!

खट्टर काका बोले-अजी, उन्होंने अपनी स्त्री को शाप देकर जीतेजी पत्थर बना दिया।

तब से ऐसे पाषाणहदय हो गये कि सबको पत्थर बनने का उपदेश देने लगे। मुझे तो ऐसा जड़ मोक्ष नहीं चाहिए।

मैं-कितु सांख्य के मोक्ष में तो चित्‌ है ?

ख. - अजी, उसमें भी आनंद नहीं हैं। केवल चित्‌ रहकर क्‍या होगा ? अखाड़े में चित हो गये तो फिर पुरुषार्थ ही क्या रहा ?

मैं - लेकिन वेदांत का मोक्ष तो सत्‌ चित्‌ आनंद है ?

ख. - हाँ, पर वह आनंद किस काम का जिसमें मैं ही न रहूँ? अगर दूल्हा ही नहीं, तो फिर शादी कैसी ?

जब मेरी हस्ती ही नहीं रहेगी, तो आनंदभोग कौन करेगा ? जो स्थिरबुद्धिरसम्मूढ़:बनकर रहना चाहते हैं, वे मूढ़ हैं। जो ब्राह्मी-स्थिति के पीछे पागल

हैं, उन्हें ब्राह्मी बूटी का सेवन करना चाहिए।

मैं - तब निर्वाण भी कुछ नहीं?

ख.- जब स्वयं उसके प्रवर्तक ही सर्व शून्यम्‌ कहते हैं, तो फिर मुझसे क्या पूछते हो?

मैं - तब आपका अपना मत क्‍या है ?

ख़.- सो तो तुम जानते ही हो।

न स्वर्गों नैव नरक पुनर्जन्म न विद्यते

नास्ति मृत्यो: पर॑ किचित्‌ मोक्षो देहविमोचनम्‌!

“स्वर्ग-नरक कहीं नहीं है; पुनर्जन्म नहीं होता; मृत्यु के बाद कुछ शेष नहीं रहता; यह शरीर छूट जाना ही मोक्ष है।'

वह मनहूस मोक्ष जितने दिन नहीं आये, उतना अच्छा फिर जीवन के ये आनंद कहाँ मिलेंगे ?

दुनियाँ के जो मजे हैं हर्गिज वे कम न होंगे महफिल यही रहेगी अफसोस हम न होंगे!

यह कहकर खट्टर काका प्रेमपूर्वक ठंढाई का गिलास उठाकर पी गए।