पंडितजी

खट्टर कका के तरंग लेखक : हरिमोहन झा

उस दिन मेरी ससुराल के पंडितजी बुरी तरह खट्टर काका के चपेट में आ गये।

बात यों हुई कि पंडितजी श्राद्ध के निमंत्रण में आये हुए थे।

ठाकुर साहब की मृत्यु पर बातें चल रही थी ।

पंडितजी सांत्वना दे रहे थे - भावी पर किसी का वश नहीं चलता है ।

उनकी तो अभी मरने की अवस्था नहीं थी।

परंतु नाकाले म्रियते कश्चित्‌ प्राप्तकाले न जीवति।

जब समय पूरा जो जाता है, तब कोई बच नहीं सकता है। और जब तक समय पूरा नहीं होता तब तक मर नहीं सकता।

उसी समय ठाकुरबाड़ी के पुरोहित चरणामृत बॉटने आये । पंडितजी उसे ग्रहण करते हुए श्लोक पढ़ने लगे -

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधि विनाशनम्‌
विष्णुपादोदक पीत्वा शिरसा धारयाम्यहम्‌

इतने ही में न जानें किधर से पहुँच गये खट्टर काका उन्होंने आते ही टोका - क्यों पंडितजी! आपने अभी कहा है कि बिना समय पूर्ण हुए कोई मर नहीं सकता।

तब फिर अकालमृत्युहरणम्‌ क्‍यों कहते हैं ?

पंडितजी एकाएक इस तरह में पकड़ आ गये कि कुछ जवाब देते नहीं बन पड़ा ।

खट्टर काका ने पूछा-क्यों पंडितजी! भावी तो सर्वोपरि है ?

पंडितजनी - अवश्य ।

न भवति यन्‍न भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यलेन
करतलगतमपि नश्यति यस्य हि भवितव्यता नास्ति

खट्टर काका-अच्छा, मान लीजिए, कल आपकी मृत्यु होती है। अब कहिए कि लाख यल करने पर भी आप बच सकते हैं ?

पं.-कदापि नहीं। जब राजा परीक्षित इतना उपाय करने पर नहीं बचे, तब मैं क्या बचूँगा ?

यद्धात्रा लिखितं ललाटपटले तन्मार्जितुं कः क्षम:!

ख.- और यदि बड़े-से-बड़े डॉक्टर को बुलाया जाय तो ?

पं.- धन्वन्तरि के बाप के आने से भी कोई लाभ नहीं होगा।

ख.- और यदि भावी हो कि बच जायँगे ?

पं.- तब अनायास ही बच जायेंगे।

ख.- तब तो दवा करने की कोई जरूरत नहीं ?

पं.- (कुंठित होते हुए) नहीं, उद्योग तो करना ही चाहिए ।

उद्योगिनं पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी:
देवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति
देव॑ निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या.
यले कृते यदि न सिध्यति कोउ्त्र दोष:

ख.-क्यों पंडितजी! इस वचन से तो दैव उड़ जाते हैं। भवितव्यता वाली बात कट जाती है।

पं.- नहीं, भवितव्यता को कौन काट सकता है? तादशी जायते बुद्धियद्रिशी भवितव्यता जैसी होनी रहती है, वैसी ही बुद्धि हो जाती है।

ख.- इसका अर्थ यह हुआ कि बुद्धि स्वतंत्र नहीं है। नियति के अधीन है। तब पुरुषार्थ का क्‍या अर्थ रह जायगा ?

पंडितजी अस्फुट स्वर में गोंगों करने लगे। खट्टर काका ने पूछा-यदि भवितव्यता अनिवार्य है, तब तो किसी को उपदेश देना भी व्यर्थ है ?

पं - सो कैसे ?

खट्टर काका कहने लगे-यदि कर्त्ता स्वतंत्र हो, तभी तो सत्यं वद, धर्म चर, वाक्य सार्थक हो सकते हैं। परंतु आपने जो श्लोक पढ़ा उसका आशय निकलता है कि हम लोग स्वतंत्र नहीं हैं। प्रयोज्य कर्त्ता मात्र हैं। तब व्रिधि-निषेध का क्‍या अर्थ ? धनुष से छूटे हुए वाण को कोई आदेश देता है कि इस वेग से चलो ? समुद्र की लहरों को कोई उपदेश देता है कि इस तरह मत उमड़ो ? जब संभी लोग नियति की धारा में बह रहे हैं और अपनी गतिविधि पर किसी को कोई अंधिकार ही नहीं है, तब इदं कर्त्तव्यम्‌, हद न कर्त्तव्यम्‌ इस तब्य प्रत्यय का अर्थ ही क्‍या रह जाता है ?

तब तो चाहिए शब्द ही कोष से उड़ जाना चाहिए! ऐसी स्थिति में पाप-पुण्य का भेद ही मिट जायगा और सारा धर्मशास्त्र निरर्थक हो जायगा। क्‍या पंडितजी! आप यह बात स्वीकार करते हैं ?

पंडितजी फिर गों गों करने लगे।

खट्टर काका ने कहा - पंडितजी! मेरे सामने गड़बड़झाला नहीं चलेगा। या तो भवितव्यतावाला श्लोक काटिए या संपूर्ण धर्मशास्त्र को गंगाजी में विसर्जन कीजिए । दोनों घोड़ों पप आप एक साथ सवार नहीं हो सकते। किसी एक पर रहिए।

परंतु पंडितजी दोनों में किसी पक्ष को छोड़ना नहीं चाहते थे। इसलिए असमंजस में पड़ गये।

मैंने देखा पंडितजी साँसत में हैं। अतः प्रसंग बदलते हुए पूछ दिया-पंडितजी ! श्राद्ध तो बड़ी धूमधाम से हो रहा है ?

पंडितजी को राहत मिल गयी। नि्साँस छोड़ते हुए बोले-भला, इसमें भी पूछने की बात है? ठकुरानी साहिबा दिल खोलकर खर्च कर रही हैं। ऐसा ब्रह्मभोज बहुत दिनों से नहीं हुआ था। आज दो दिनों से बालूशाही की डकार हो रही है।

यह कहकर पंडितजी इतमीनान से तोंद पर हाथ फेरते हुए अजीर्णनाशन मंत्र पढ़ने लगे -

आतापी भक्षितो येन वातापी च महाबलः
समुद्र: शोषितो येन स मेगस्त्यः प्रसीदतु

फिर कहने लगे - सात तरह की मिठाइयाँ बनी हैं। प्रेतोत्स्म में असली चाँदी के बर्तन दान किये गये हैं। शय्यादान में रेशमी तोशक दी गयी है। अशर्फी से पिंड काटा गया है। पंडितों को विदाई में दुशाले भी मिलेंगे। ठाकुर साहब थे भी वैसे ही इकबाली! उन्होंने निश्चय किसी राजा-महाराज के घर में जन्म लिया होगा। जैसे दरियादिल थे, वैसा ही कर्म भी हो रहा है । स्वर्ग में भी देखकर प्रसन्‍न होते होंगे। भगवान्‌ उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें!

खट्टर काका इतनी देर तक चुपचाप सुन रहे थे। अब उनसे नहीं रहा गया। बोले-पंडितजी, आप तीन तरह की बातें क्‍यों बोलते हैं ?

पंडितजी - सो कैसे ?

ख.- आपका क्‍या विश्वास है ? ठाकुर साहब स्वर्गलोक में हैं? अथवा प्रेतयोनि में हैं? अथवा पुनर्जन्म ग्रहण कर चुके हैं? तीनों बातें तो एक साथ नहीं हो सकती हैं।

पंडितनी को फिर डकार आ गयी।

खट्टर काका ने कहा-आप स्वयं सोचकर देखिए यदि ठाकुर साहब ने जन्म ग्रहण किया होगा, तो वह अभी स्तन-पान करते होंगे।

तब अभी भात का पिंड देने से क्‍या फल ? यदि स्वर्ग-लोक में ब्रिहार करते होंगे, तो वहाँ का अमृतोदक छोड़कर यहाँ का हस्तोदक पीने क्‍यों आवेंगे ? और यदि वह प्रेतलोक में भटकते होंगे, तो उनके निमित्त

शय्या और छाता-जूता दान का क्या अर्थ ? क्या प्रेत लोग जूता पहनकर चलते हैं ? पंडितजी को गुँगुआते देखकर खड्टर काका ने कहा-पंडितजी!

यह महाजाल आप ही लोगों का फैलाया हुआ है। जब तक ठकुरानी साहिबा जैसी मछलियाँ फँसती रहेंगी, तब तक आप जैसे पंडितों को बालूशाही की डकारें आती ही रहेंगी । परंतु अब अधिक दिनों तक यह चालाकी नहीं चलने की। न जानें कितनी सदियों से आपके पाखंडों का पर्दाफाश हो रहा है!

मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत तृप्तिकारकम्‌
निर्वणिस्य प्रदीपस्य स्नेह: संवर्धयेच्छिखाम्‌!

यदि मृत व्यक्ति को श्राद्ध से तृप्ति होती है, तब तो बुझे हुए दीप में भी तेल डालने से बत्ती जल जानी चाहिए!

स्वर्गस्थिता यदा तृप्ति गच्छेयुस्तत्र दानतः
प्रासादस्योपरिस्थाना मत्रकस्मान्न दीयते ?

यदि यहाँ दान देने से स्वर्गलोक में पितरों को पहुँच जा सकता है, तो क्यों न आपको कोठे पर बैठाकर नीचे भोजन उत्सर्ग कर दिया जाय ?

गच्छतामिहजन्तूनां वृथा पाथेयकल्पनम्‌
गेहस्थकृतश्राद्धेन पथि तृप्तिरवारिता

अगर मंत्र पढ़ देने से ही भोजन का फल किसी को मिल जा सकता है, तो क्‍यों न पंडितानीजी आपके परदेश जाने पर घर में ही थाली परोसकर मंत्र पाठ कर देती हैं ? आप बेकार क्‍यों भोजन की पोटली राह में ढोने का कष्ट करते हैं ?

यदि गच्छेत्‌ पर॑ लोक देहादेष विनिर्गतः
कस्माद्‌ भ्रयों न चायाति बंधृस्नेहसमाकुलः ?

यदि सचमुच ठाकुर साहब कहीं किसी लोक में मौजूद हैं, तो ठकुरानी साहिबा को इस तरह रोती-कलपती देखकर भी ढाढ्स बँधाने के लिए, एक बार आँसू पोंछने के लिए, क्‍यों नहीं आ जाते ?

चार्वाक की इन चुनौतियों का जवाब आप लोग अभी तक नहीं दे पाये हैं। पंडितजी बोले-यहाँ मरने पर भी पितरों को जल दिया जाता है । यही तो इस देश की विशेषता है।

खट्टर काका बोले-यही बात तो मेरी समझ में नहीं आती। कया मृतक पानी पी सकते हैं ? आप एक चुल्लू जल लेकर तर्पण कराते हैं -

अस्मत्‌॒ पिता अमुक शर्मा
तृष्यताम्‌ इदं जल॑ तस्मे स्वधा!

मान लीजिए, पितर पीते भी हों, तो कया चुल्लू भर पानी उन्हें परलोक में नहीं मिल सकता ? क्‍या वहाँ पानी का इतना अकाल है ? क्‍या वे चातक की तरह दो बूँद पानी के लिए तरसते हैं? आप मंत्र पढ़कर भीगा अँगोछा निचोड़ देते हैं!

ये के चास्मतकुले जाता अपुत्राः गोत्रिणो मृताः ते पिबंतु मया दत्त वस्त्रनिष्पीडनोदकम्‌

“मेरे कुल में जो भी निःसंतान मर गये हों, वे यह वस्त्र का निचोड़ा हुआ पानी पी लें!” क्‍या यह उदारता की बात हुई। अगर जीतेजी आपका लड़का ऐसा करे, तो आपको कैसा लगेगा ?

सच पूछिए तो पितर के जलदान के नाम पर धूर्त्त लोग स्वयं अपने जलपान की व्यवस्था किये हुए हैं। वैतरणी पार कराने के बहाने यजमान को यह मंत्र पढ़ाकर उसकी गाय ले लेते हैं -

यमद्वारे महाघोरे कृष्णा वैतरणी नदी
तां संतर्तु ददाम्येनां कृष्णां वैतरर्णी च गाम्‌

यजमान तो गाय की पूँछ पकड़कर रह जाय और आप दुग्धपान करते रहें! इसलिए लोकायतमत वाले कहते हैं -

ततश्चजीवनोपाया: ब्राह्मणैरेव निर्मिताः
मृतानां प्रेतकार्याणि न क्रियन्ते क्वचित्‌ तथा

आज लोगों ने अपनी जीविका के लिए ये सब उपाय रचे हैं। और कहीं इस तरह के श्राद्ध-कर्म नहीं होते क्योंकि और देशों में ब्राह्मण हैं ही नहीं, जो गाय की पूँछ पकड़ा कर वैतरणी पार करावें!

पंडितजी रुष्ट होकर बोले--आप आत्मा नहीं मानते हैं, इसलिए नास्तिक की तरह बोलते हैं।

खट्टर काका ने पूछा-आप आत्मा किसको कहते हैं ?

पंडितजी शास्त्रार्थ की मुद्रा में बोले-शरीर, इंद्रिय, मन, बुद्धि, सबसे परे जो है, वही 'आत्मा' है। वह शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, आनंदस्वरूप है।

खट्टर काका ने पूछा-पंडितजी! जब आत्मा स्वतः आनंदस्वरूप है, तब आपने यह क्यों कहा कि भगवान्‌ ठाकुर साहब की आत्मा को शांति प्रदान करें! क्या उनकी आत्मा को पेचिश की बीमारी है ?

पंडितजी पुनः डकार लेते हुए श्लोक पढ़ने लगे-

अगस्त्यं कुंभकर्ण च शनिं च वडवानलम्‌
आहारपरिपाकार्थ स्मरेद्‌ भीम॑ च पंचमम्‌

(स्कंदपुराण)

ख्र काका ने फिर टोक दिया-पंडितजी, भोजन किया है आपने, और पचावेंगे भीम! यह तो वही कहावत हो गयी कि “खायँ भीम और पंडितजी बमक उठे-आप तो नास्तिक हैं। दूसरों की आलोचना करते हैं, और स्वयं ब्राह्मण होकर चंदन तक नहीं लगाते!

खट्टर काका ने शांत भाव से उत्तर दिया-पंडितजी! सामंतवादी युग में भोगाभिलाषिणी युवतियाँ स्तनों पर चंदन लेप करती थीं, और भोजनाभिलाषी ब्राह्मण ललाट में।

क्‍या अब भी यह 'साइनबोर्ड जरूरी है ? क्‍या “श्रीखंड' (चंदन) के बिना श्रीखंड (दही) गले में अटक जाता है? क्‍या भस्म लगाने से ही भोजन भस्म हो सकता है ? पंडितजी की क्रोधाग्नि में घृत पड़ गया। बोले - लिखा है -

अन विष्ठा जल मूत्रं यद्‌ विष्णोरनिवेवितम्‌ (ब्रह्मवैवर्त)

क्या आप भोजन के समय भगवान्‌ को नैवेद्य उत्सर्ग करते हैं ?

खट्टर काका ने उत्तर दिया-मैं स्वयं थाली में खाऊँ और भगवान्‌ के नाम पर एक मुट्ठी निकालकर जमीन पर रख दूँ, ऐसा अपमान नहीं कर सकता! भगवान्‌ क्‍या बिल्ली हैं, जो कौरा खायँगे ?

पंडितजी ने पूछा--आप “गायत्री-सावित्री' का ध्यान करते हैं ?

खट्टर काका ने मुस्कुराते हुए कहा-आप लोग गायत्री को बाला' और सावित्री को युवती' रूप में देखते हैं।

गायत्री व्यक्षरंं बालाम्‌! वह बाला भी कैसी, तो गोरे रंग की, रेशमी साड़ी पहने, फूलमाला और अलंकारों से युक्त!

श्वेतवर्णा समुद्विष्ट कौशेयवसना तथा
श्वेतैविलिपने: पुष्पैरलंकारैश्व धूषिता (संध्योपासनविधि)

और, सावित्री का ध्यान करते हैं -

सावित्री युवर्ती शुक्लां शुक्लवर्णा त्रिलोचनाम्‌ (स. वि.)

मैं गायत्री-सावित्री मंत्रों के साथ इस तरह का खेलवाड़ नहीं करता। पंडितजी ने रुष्ट होकर कहा - मनुजी का आदेश है -

नोपतिष्ठति य-पूर्वा नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम्‌
स शूद्रवद्‌ बहिष्कार्य: सर्वस्माद द्विजकर्मण:

क्या आप संध्यावंदन करते हैं ? 'अघमर्षण सूक्त” का पाठ करते हैं ? 108 बार गायत्री मंत्र जपते हैं ?

खट्टर काका ने हँसते हुए जबाव दिया -'अघमर्षण' का अर्थ है पाप दूर करनेवाला। गायत्री” मंत्र बुद्धि को प्रचोदित (प्रेरित) करने के लिए है।

इसलिए जो पापी या मंदबुद्धि हों, उन्हें यह सब जप करना चाहिए।

पंडितजी 'अग्निश्च वायुश्च' हो गये। बोले--आप व्यंजना से मुझे 'मूर्ख' बना रहे हैं। क्‍या पंडित लोग मूर्ख होते हैं ?

खट्टर काका ने विनयपूर्वक उत्तर दिया-सब पंडितों को तो मैं नहीं कहता। किंतु कुछ पर ये सात लक्षण घटित होते हैं -

दंभी लोभी तथा क्रोधी क्पण: स्त्रैण एव च

निंदकश्चाटुकारश्च पंडित: सप्तलक्षण:

कुछ पंडितों में अहंकार, लोभ, क्रोध, कृपणता, स्त्रैणता, निंदकता और चादुकारिता, ये अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।

पंडितजी रोषपूर्वक बोले - आप भी तो पंडित हैं।

खट्टर काका ने कहा-इसीलिए मुझमें भी कुछ लक्षण हैं।

मैंने पूछा - खट्टर काका, पंडित लोग इतने अहंकारी क्‍यों होते हैं ?

खट्टर काका नस लेते हुए बोले - कारण यह है कि संस्कृत व्याकरण में मैं' उत्तम पुरुष, 'तुम' मध्यम पुरुष, और बाकी सारे लोग 'अन्य' पुरुष माने जाते हैं। 'उत्तम' और 'मध्यम' के बाद तो 'अधम' ही होता है। इसी कारण और लोग उनकी दृष्टि में अधम होते हैं।

मैंने कहा-खट्टर काका, यह तो आपने अनूठी बात कही।

खट्टर काका - तब खट्टर-पुराण का एक और श्लोक सुन लो -

मधुरेषु महाप्रीति: श्रृंगाररस-चिन्तनम्‌
परोपदेशे पाण्डित्यं पण्डितस्य त्रयोगुणा:

पंडित लोग मिष्टान्न और श्रृंगार रस के अधिक प्रेमी होते हैं, परोपदेश में कुशल होते हैं।

मैं - सो क्‍यों, खट्टर काका ?

ख.- इसका भी कारण व्याकरण ही है। संस्कृत भाषा में पहले ही क्रिया का भेद कर दिया गया है। परस्मैपद और आत्मनेपद । इसी अभ्यास के कारण पंडित लोग क्रिया मात्र में परस्मे (दूसरे के लिए) और आत्मने (अपने के लिए) का भेद करते हैं।

मैंने कहा-खट्टर काका, यह भी लाख टके की बात हुई । राजा भोज जैसे गुणग्राहक रहते, तो ऐसी-ऐसी बातों पर अशर्फियाँ उहझल देते।

खट्टर काका-अजी, मुझे तो बर्फियाँ उचललनेवाले भी नहीं मिलते हैं। कोरी प्रशंसा लेकर क्या चार्टूंगा ?

मैंने कहा-खट्टर काका, तो यह भी बताइए कि पंडित लोग लोभी क्‍यों होते हैं ?

खट्टर काका बोले-अजी, जिन्हें बाल्यावस्था से ही एक-दो नहीं, दस-दस लकार कंठस्थ करा दिये जायँ, उन्हें यदि ल अक्षर का संस्कार नहीं होगा, तो क्या द अक्षर का होगा ? इसी कारण पंडित लोग लेना जानते हैं, देना नहीं।

मैंने कहा-खड्टर काका, आप तो सब चमत्कार ही बोलते हैं। तब यह भी कहिए कि पंडित लोग इतने रसिक क्‍यों होते हैं ?

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले--एक कारण तो यही कि वे गुरु से मनोरमा कुचमर्दन का पाठ पढ़कर, उसमें परीक्षा भी देते हैं। और किसी भाषा के व्याकरण में ऐसा पाठ्यग्रंथ मिलेगा ?

अप्य दीक्षित की 'बालमनोरमा' पर पं. जगननाथराज की 'मनोरमा कुचमर्दिनी' टीका।

मैंने कहा-खट्टर काका, आप तो हमेशा विनोद ही में मग्न रहते हैं । तब यह भी बताइए कि पंडित लोग अपनी बुद्धि से साचकर कुछ नया आविष्कार क्यों नहीं करते हैं ?

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले-अजी, प्रारंभ से ही लघुकौमुदी में-

अहं वरदराज भट्गचार्य,, अहं वरदराज भट्गचार्य:'

रटते-रटते उनमें कुछ उसी प्रकार का संस्कार बन जाता है।

मैंने कहा-खट्टर काका, इन्हीं बातों से लोग आपको 'पंडित-पछाड़' कहते हैं।

खट्टर काका हँसकर बोले - अजी, ससुराल के पंडितजी हैं, तो इतना भी नहीं कहूँ? पंडितजी बोले--तब आप शास्त्रार्थ कर लीजिए ।

खट्टर काका ने कहा-शास्त्रार्थ पंडितों को मैं खूब जानता हूँ । एक-से-एक अजीबोगरीब बातों को लेकर आप लोग बहस करते हैं। “घट में घटत्व समवेत है; घट फूट गया, तो घटत्व कहाँ गया?” घट-पट की लड़ाइयों में ऐसी खटपट होती है, कि झटपट कोई बीच में पड़कर लटपट नहीं छुड़ाए, तो चित-पट हो जायँ!

पंडितजी गर्वोक्तिपूर्वक बोले--अवच्छेदकता के शास्त्रार्थ में कौन हमारे सामने टिक सकता है ?

पलायध्व॑ पत्रायध्वं भो भो ताकिकदिग्गजा:
सिंहभट्टः समायाति सिद्धान्तगजकेसरी!

खट्टर काका हँस पड़े। बोले - एक राजा के दरबार में तीन बाँके पहलवान गये। पहले ने अपना नाम बताया-अरिदल्गंजन सिंह! दूसरे ने मूँछ पर ताव देते हुए कहा-अरिदलभुजबलभंजन सिंह! तीसरे ने ताल ठोकते हुए कहा -

अरिदिलपलीपीनपयोधरमंडलमानविमर्दन सिंह! आप लोग इसी प्रकार के वाग्वीर हैं। जो असली वीर हैं, वे बोलते नहीं, कर दिखाते हैं। 'शूर समर करनी करहिं, कहि न जनावहिं आपु जो असली पंडित हैं, वे संसार में एक-से-एक अभिनव आविष्कार करते जा रहे हैं, और आप हजारों वर्षो से, घटोघट: और नीलोघट: के परिष्कार में लगे हुए हैं। घट से ऊपर नहीं उठ सके हैं। उसी में अवच्छेदकता की लच्छेदार राबड़ी घोंटते रहते हैं!

आप 'धट' को सीधे 'घट' नहीं कहकर 'टत्वावच्छेदकावच्छिन्न ही कहेंगे, तो इससे क्या भिन्‍नता आ जायगी? वह वागाडंबर शरद्‌ ऋतु का शुष्क मेघाडम्बर मात्र है, जिसमें निरा गर्जन ही होकर रह जाता है। हाँ, शास्त्रार्थ के नाम पर कुछ “अर्थ! (द्रव्य) अवश्य बरस जाता है।

मैंने पूछा-खट्टर काका, असली और नकली पंडित की पहचान क्‍या है ?

वरदराज भट्टचार्य की लघु सिद्धांत कौमुदी का मंगलाचरण श्लोक है -

नत्वा सरस्वर्ती देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम्‌
पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धांतकौमुदीम्‌

इसकी व्याख्या करते हुए पंडित लोग विद्यार्थियों को रटाते हैं -“अहं वरदराज भट्टाचार्य: -” मैथिली में बैल को 'बड़द” कहा जाता है। इसी को लेकर श्लेष किया गया है।

खट्टर काका बोले-असली पंडित विद्या के पीछे रहते हैं, नकली पंडित रा के पीछे । असली पंडित गुण की खोज में रहते हैं, नकली पंडित द्रव्य की खोज में ।

असली पंडित ज्ञान का विस्तार करते हैं; नकली, अपनी तोंद का। असली पंडित मूर्खता का संहार करते हैं, नकली पंडित केवल मिष्टान्न का।

इतने ही में ठकुरानी साहिबा की हवेली से टोकरी भर मिठाइयाँ पहुँच गयी वाद-विवाद का जो सिलसिला चला था, वह 'मधुरेण समापयेत्‌' हो गया।