प्राचीन संस्कृति

जाड़े की रात थी।

खट्टर काका अंगीठी ताप रहे थे। मैं भी उनके पास जाकर बैठ गया। खट्टर काका पुरातत्त्व के 'मूड' में थे।

प्राचीन संस्कृति पर बात छिड़ गयी।

मैंने कहा-देखिए, खट्टर काका! उन दिनों के ऋषि-मुनि कैसा सात्त्विक जीवन व्यतीत करते थे! पर्ण-कुटी में रहते थे।

ब्राह्ममुहूर्त में उठ, नदी में स्नान करते थे। बल्कल पहनते थे। कमंडलु में जल रखते थे। कुशासन पर सोते थे।

आज भी गेरुआ बस्त्र, लंबी दाढ़ी - और जटाजूट देखकर लोगों के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है।

खट्टर काका बोले -अजी, जंगल में हजाम नहीं मिलता था, इसलिए लंबी दाढ़ी। धोबी नहीं मिलता था, इसी से कषाय वस्त्र ।

तेल के अभाव में जटाजूट। वस्त्र के अभाव में बल्कल। पक्के मकान के अभाव में पर्णकुटी ।

लोटे के अभाव में कमंडलु। थाली के अभाव में पत्ता या करपात्र (हथेली) । यह सब त्याग नहीं, लाचारी थी । अप्राप्तिस्तत्र कारणम्‌!

मैं - परंतु वे लोग तो वीत-राग थे। कंद-मूल खाकर रहते थे।

खट्टर काका - और चारा ही क्या था ? कंद नहीं खाते, तो क्या गुलकंद खाते ? उन्हें गुलाब-जामुन मिलता तो गूलर-जामुन देखकर क्यों नाचने लगते ?

चरन्‌ वै मधु विंदति, चरन्‌ स्वादुमूदुम्बरम्‌ कहीं मधु मिल जाता था तो गाने लग जाते थे -

मधुश्चुतं घ्तमिव सुपूतम्‌ ?

अजी, उन दिनों चारों ओर जंगल ही जंगल था। जंगली सभ्यता में जो चीजें होती हैं, वे सब उस जमाने में थीं।

मृगछाला, व्याप्रचर्म, कुशासन, धूप, चंदन, यव, तिल, मधु, चमर, भोजपत्र । अभी भी द्वापर का दृश्य देखना हो, तो झारखंड में चले जाओ। वही धनुषवाण, वही मोरपंख, वही बॉँसुरी, वही एकवस्त्रा नारी।

यदि आज भी सभी मिल और कारखाने बंद हो जाय, तो मुनि-ही-मुनि नजर आने लगेंगे।

मैं - खड्टर काका, वे लोग कैसी कठिन तपस्या करते थे ?

खट्टर काका - अजी, पेट की समस्या तपस्या करवाती है। सो 'हर' (हल) जोतने से हो, या

हर' (महादेव) जपने से। कुदाल पकड़ने से हो, या नाक पकड़ने से । हाथ-पैर डुलाने से हो, या घंटी डुलाने से।

मैंने कहा - खट्टर काका, वे लोग अग्निहोत्री थे।

खट्टर काका हँसते हुए बोले - अग्निहोत्री तो मैं भी हूँ [सबसे बड़ा हवनकुंड है उदरकुंड । उसमें निरंतर समिधा डालता ही रहता हूँ। वैदिक प्रश्न है - कस्मै देवाय हविषा विधेम ?' मेरा उत्तर है - उदर देवाय!

मैं - खट्टर काका, वे लोग आध्यात्रिक दृष्टि से यज्ञ करते थे।

खट्टर काका बोले - मैं समझता हूँ कि बिल्कुल भौतिक दृष्टि से करते थे। प्राग्वैदिक युग में हमारे पूर्वज अग्नि का रहस्य नहीं जानते थे। दावानल या बिजली देखकर चकित हो जाते थे। कालांतर में अंगिरा आदि ऋषियों को पता चला कि घर्षण से अग्नि उत्पन्न की जा सकती है। यह विद्या हाथ में आते ही वे खुशी से नाचने लगे। आग जीवित मांस (आम) और मृत मांस (क्रव्य), दोनों को सुपाच्य और सुस्वादु बना देती थी। इसी कारण उसे आमाद और क्रव्याद कहकर स्तुति करने लगे। पहले कच्चा जौ-तिल भक्षण कर जाते थे। अब लावा का स्वाद मिलने लगा। पहले जाड़े में ठिठुरते थे, अब आग तापने का आनंद मिलने लगा। पहले रात के अँधेरे में भय से छिपे रहते थे, अब अग्नि के प्रकाश में देखने लगे । तमसो मा ज्योतिर्गमय* गाने लगे। अग्नि की ज्वाला से जंगली पशु दूर भाग जाते थे। अतः वे लोग निश्चित हो सोने लगे। जब अग्निदेव से इतना उपकार होने लगा, तो कैसे नहीं उनका गुण गाते? इसी कारण वेद अग्निदेवता की स्तुतियों से भरा है। अग्निमीले पुरोहितम्‌...

मैंने कहा - परंतु अग्निहोत्र का रहस्य...

खट्टर काका बोले - अभी हड़बड़ी में तो नहीं हो ? तब सुनो । देखो, अग्नि के आविष्कार से हमारे पूर्वजों के हाथ में बड़ी शक्ति आ गयी। परंतु आग बनाने में बहुत परिश्रम होता था। घंटों पत्थर या लकड़ी को रगड़ना पड़ता था तब जाकर एक चिनगारी प्रकट होती थी । इसी कारण वे लोग यलपूर्वक अग्नि की रक्षा करने लगे । आग बुझ नहीं जाय, इसलिए घृत-समिधा से उसे प्रज्यलित रखने लगे। वे पत्थरों से घेरकर 'अश्मव्रज' बनाते थे। चारों ओर से मिट्टी काटकर चत्वर' बनाते थे। बीच में बड़ी-सी समिधा (सिल्ली) रख देते थे। वर्षा से अग्नि की रक्षा के लिए ऊपर तृण छा देते थे। उसी मंडप में बैठकर वे लोग अग्नि की परिचर्या करते थे। होता आह्दुति देते जाते थे। उद्गाता गीत गाकर उत्साह बढ़ाते थे। ब्रह्मा बैठकर निरीक्षण करते थे। सभी के काम बँटे थे। कोई लकड़ी काटता था। कोई . घास-फूस लाता था। कोई छप्पर छाता था।

कोई मिट्टी के बर्तन बनाकर आग में पकाता था । बेटियाँ गाय, भेड़ दूहती थीं। इस कारण दुहिता कहलाती थीं। मांस धो-पोंछ कर साफ करती थीं । इसलिए शमिता । पत्थर पर अन्न कूटा-पीसा जाता था । कोई सोमलता उखाड़कर लाते थे। कोई पीसकर रस तैयार करते थे। वेदी पर बैठकर सोमपान होता था। दूध, दही

और घी का अम्बार लग जाता था। पहले अग्निदेव को 'हवि' दी जाती थी। फिर हुतशेष बाँटा जाता था। समझो तो वह यज्ञमंडप मानव का पहला क्लब” था, जहाँ लोग एक साथ मिलकर सोमपान करते थे और आनंद से गाते थे -

संगच्छध्वमू, संवदध्वमू, सं वो मनांसि जानताम...

..सह नौ अवतु, सह नौ भुनक्तु, सहवीर्य करवावहें...

वहीं शादी-ब्याह भी रचाते थे। हवन-कुंड के चारों ओर फेरे लगते थे। लावा बाँटा जाता था। ओखल में सोम कूटा जाता था। अभी तक कहीं-कहीं इन प्राचीन प्रथाओं की झलक मिल जाती है।

मैं - खट्टर काका, उस समय जीवन का ध्येय क्‍या था ?

खट्टर काका - यह तो वैदिक मंत्रों से ही पता लग जाता है।

जीवेम शरद: शतम्‌, पश्येम शरदः शतम्‌, श्रणुयाम शरद: शतम्‌र”
गोत्र नो वर्द्धवामू, दातारों नोप्रभिवर्द्धन्ताम्‌...

“खूब जियें, खूब देखें-सुनें। खूब वंश बढ़े, दाता लोग बढ़ें। धन-धान्य और संतति बढ़े। गायें खूब दूध दें। बैल खूब जोतें। समय पर वर्षा हो।” बस, और क्या चाहिए? अभी तक दूर्वक्षत मंत्र में ये ही सब आशीर्वाद दिये जाते हैं।

..-वीग्ध्री धेनुर्वोढानड्वान्‌...निकामे निकामे नः पर्यन्यों वर्षतु, फलवत्यों न: ओषधय: पच्यन्ताम्‌, योग क्षेमो नः कल्पता.. मैं - खट्टर काका, दूर्वक्षत का क्‍या अभिप्राय है ?

खट्टर काका - अजी, गौ-मैंस के लिए दूर्वा (अर्थात्‌ दूब) और अपने लिए अक्षत (अर्थात्‌ चावल) रहे, यही दूर्वाक्षत का अभिप्राय है।

मैं - खट्टर काका, उन लोगों का जीवन कितना सुखी था!

खट्टर काका - अजी, वैदिक युग के लोग मस्त थे। खाओ, पीओ, मौज करो। परंतु बाद के उपनिषद्‌ वाले ऋषि मनहूस निकले। ऐसे अभागे, कि इंद्रियों से ही युद्ध ठान दिया! अजी, माना कि इंद्रियाँ घोड़े के समान चंचल हैं, परंतु इसका यह मतलब तो नहीं कि इन्हें भूखों मार दो।

तब रथ कैसे चलेगा ? सिर्फ लगाम ही हाथ में रखने से क्या फायदा ? स्मृतिकार भी आये, तो वही निषेध का चाबुक लिए हुए। जो विषय उन्हें प्राष्य नहीं थे, उन्हें त्याज्य कहने लगे। खट्टे अंगूर कौन खाय ? अजी, सोचकर देखो तो असमर्थता ही निवृत्तिमार्ग की जननी है।

मैंने पूछा-खट्टर काका, सत्ययुग के लोग तो देव-तुल्य होते थे।

खट्टर काका बोले-वे लोग भी हर्मी लोगों की तरह होते थे । मनुष्य की मूल-प्रवृत्तियाँ नहीं बदलती हैं। केवल परिस्थितियाँ बदलती हैं।

उस समय लोग कम थे। जो अन्न-फल उपजता था, उसे ही नहीं खा सकते थे। अत्रि को एक हजार गौएँ, वशिष्ठ को दो हजार! अब इतना दूध, दही, घी क्या हो ? इसी कारण अतिथि देवो भव! जो बचता था, सो होम कर दिया जाता था।

जब सबकुछ जरूरत से ज्यादा ही था, तब लोग चोरी क्‍यों करते ? परंतु अब जनसंख्या बहुत बढ़ गयी है। भूमि उतनी ही है, किंतु खानेवालों की संख्या सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही है। इसी से हाय-हाय मची हुई है।

मैंने कहा-खट्टर काका, यह कलियुग का प्रभाव है। खट्टर काका बोले - अजी, 'एक बीमार, सौ अनार', तो 'सत्ययुग” हुआ। सौ बीमार, एक अनार', तो 'कलियुग' हुआ।

पहले भी कभी अकाल पड़ता था, तब कलियुग के धर्म प्रकट हो जाते थे। एक बार अश्व॒त्थामा को दूध नहीं मिला, तब चौरेठा घोलकर पिलाया गया। अभी देश में करोड़ों अश्वत्थामा मौजूद हैं।

अगर आज भी भोक्ताओं से भोज्य पदार्थ अधिक हो जाय, तो फिर सत्ययुग की झलक मिल जायगी। मैंने पूछा-खट्टर काका, तब प्राचीन और नवीन युग में धर्ममूलक भेद नहीं है ?

खट्टर काका - धर्ममूलक नहीं, अर्थमूलक भेद है। इसी आर्थिक आधार पर समाज के नैतिक आदर्श बनते हैं। मैं तो समझता हूँ कि अर्थ ही धर्म का मूल है। यदि अर्थ न हो, तो किसी आदर्श का कोई अर्थ नहीं।

मैं - सो कैसे, खट्टर काका ?

खट्टर काका-देखो, सबसे बड़ा धर्म है दान और दया। दो मुट्ठी है, तो एक मुट्ठी दो। जिसे रहेगा ही नहीं, वह देगा क्या ? इसी कारण मैं कहता हूँ कि धर्म का मूल अर्थ है। मैं-परंतु दूसरे-दूसरे धर्म भी तो हैं ?

खट्टर काका - हाँ , हैं। पर विचार कर देखो, तो अर्थ के बिना किसी धर्म का मूल्य नहीं गौ, गंगा, सभी आदर्श इसी भित्ति पर टिके हैं।

गौ की कृपा से दूध-दही और खेती में सहायता, इसलिए वह माता! गंगा के प्रसाद से सिंचाई और वाणिज्य, इसी कारण वह भी मैया! सभी में आर्थिक तात्पर्य भरा है।

मैं - परंतु, अपने यहाँ तो अर्थ को तुच्छ माना गया है! खट्टर काका बोले - अजी, उसी तुच्छ अर्थ के कारण तो इतना अनर्थ होता आया है। मनुष्य कहाँ बदला है! संपत्ति की महिमा सब दिनों से है।

इसी के कारण पहले भी कुरुक्षेत्र मचता था, आज भी मचता है। सोना-चाँदी में झूठ को भी सच बनाने की शक्ति है।

हिरणमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌

यह बात पहले भी थी, आज भी है। मैंने कहा-खट्टर काका, तब सत्ययुग और कलियुग में क्‍या अंतर है ?

खट्टर काका बोले-देखो, कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृत॑ संपदूयते चरन्‌ ?

मैं इसका मतलब यों लगाता हूँ। सत्ययुग में हमारे पूर्वज स्वच्छंद विचरते थे ।

यायावरों की तरह । त्रेता में थोड़ी स्थिरता आने लगी। राजा जनक प्रभृति हल जोतने लगे। मिट्टी से अन्नरूपी सीता निकलने लगी। लोग घर बनाकर रहने लगे।

एक स्थान में पैर जमने लगा। द्वापर में लोग और सुभ्यस्त हुए। सुख के साधन बढ़े। लोग आराम में आकर ऊँघने लगे। और, कलियुग में तो विलासिताओं की सीमा ही नहीं! लोग निश्चित होकर सो रहे हैं। इसी तरह सभ्यता का क्रमिक विकास हुआ है।

मैंने कहा-खट्टर काका, ऐसा विकास तो कभी नहीं हुआ था। आज हम रेल में सोये-सोये हजारों मील चले जाते हैं। पर उन दिनों तो जंगल के रास्तों से पैदल चलना पड़ता था।

खट्टर काका बोले-हाँ । उन दिनों वन के कुश पाँव में अंकुश की तरह गड़ते थे। इसीलिए चतुर शास्त्रकारों ने फतवा दिया--कुश उखाड़ते जाओ।' वैसे कोई नहीं भी उखाड़ता। इसलिए श्लोक बना दिया -

कुशाग्रे बसते रुद्र: कुशमध्ये तु केशवः
कुशमूले वसेत्‌ ब्रह्मा, कुशान्‌ मे देहि मेदिनि! (कृत्यमंजरी)

भादों में जब सबसे घना जंगल रहता था, तभी कुशोत्पाटन का दिन बनाया गया। बिना मजदूरी के, केवल पुण्य के लोभ से सामूहिक रूप से कुश उखाड़ा जाने लगा । उपनयन विवाह, श्राद्ध, यज्ञ, पूजा, सभी में कुश का व्यवहार चला दिया गया।

पवित्री, त्रिकुशा मोढ़ा, कुशासन आदि बनाने के लिए लोग कुश उखाड़ने लगे । जिस घर में कुश नहीं, वहाँ कुशल नहीं । वही व्यक्ति कुशल कहलाता था, जो कुश कानने में प्रवीण हो । कुशं लुनातीति कुशल:! कुशल पूछने का अर्थ था कि घर में पर्याप्त कुश है न ?

बिना पैसे के हर साल कुशों का उन्मूलन होने लग गया। अजी, शास्त्रकार लोग चाणक्य के प्रपितामह थे! मैंने कहा-खट्टर काका, ऋषियों ने कैसा गंभीर दार्शनिक चिंतन किया है ?

खट्टर काका अंगीठी की आग कुरेदते हुए बोले--अजी, कपिल, कणाद, गौतम आदि दंद्धि ब्राह्मण थे । उन्हें पद-पद पर कष्ट का अनुभव होता था।

जंगलों में कुश-काँटे गड़ते थे। जाड़ा-गर्मी, दोनों का प्रकोप सहन करना पड़ता था। तभी तो तितिक्षा पर इतना जोर दे गये हैं। वर्षा में पर्णकुटी चूती थी। सॉप-कीड़े घुस आते थे। जंगली भालू-बंदरों का उपद्रव! बाघ-सिंह का भय ।

मिला तो फलाहार, नहीं तो निराहार । पेट-पीठ में सट जाता था। उस पर रात में निशाचरों का उत्पात! उनके दुःखों का अंत नहीं था। ऐसी परिस्थिति में यदि दुःखम्‌ दुःखम्‌ नहीं कहते, तो क्या कहते ?

वैसी पृष्ठभूमि में दुखःवाद नहीं निकलता, तो और क्‍या निकलता ? उन लोगों ने ऐसी उदासी का स्वर फूँका कि अभी तक लोग वही विरहा आलाप रहे हैं - यह संसार विराना है।' कामिनी और कांचन दुर्लभ रहने के कारण सबसे ज्यादा चोट उन्हीं दोनों पर की गयी है।

संसार विषवृक्षस्य दे फलें कांचनं कुचौ! मैं - खड्टर काका, महर्षियों की दिव्य दृष्टि के कारण ही तो वेदांत जैसे दर्शन की उत्पत्ति हुई।

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले-मुझे तो लगता है कि मंद दृष्टि के कारण ही वेदांत दर्शन की उत्पत्ति हुई है।

मुझे चकित देखकर खट्टर काका बोले-अजी, वृद्ध ऋषि-गण अँधेरे मुँह जंगल-मैदान जाते थे। रास्ते में कभी-कभी रस्सी को साँप समझकर डर जाते थे। उसी भ्रम के आधार पर समझने लगे कि सारा संसार ही भ्रम है।

और वही भ्रम वेदांत के नाम से संभ्रम पा गया। उनके दृष्टि-दोष से हो, या हमारे अदृष्ट दोष से हो, वही भ्रान्तदर्शन हमारा प्रधान दर्शन बन गया। रज्जौ यथाछभ्रम:! इसी भ्रमवाद से ब्रह्मवाद' की उत्पत्ति हो गयी!

मैं - खट्टर काका, आप जो न सिद्ध कर दें! कहाँ रस्सी, कहाँ दर्शनशास्त्र!

खट्टर काका बोले - अजी, रस्सी को देखकर ही न्याय, सांख्य, वेदांत आदि दर्शन बने हैं। उसी के आधार पर त्रिगुण की कल्पना की गयी है, उभयतः पाशारज्जु की रचना की गयी है, भव-बंधन का जाल रचा गया है।

मैं - तो क्‍या कर्मफल का सिद्धांत भी कल्पित ही है ?

खट्टर काका बोले-देखो, सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार ही दर्शन बनता है। इस कृषिप्रधान और ऋषि-प्रधान देश में खेती के अनुभव पर कर्म-फल का सिद्धांत गढ़ा गया है। जैसा बोओगे, वैसा काटोगे। जैसे भुना हुआ बीज अंकुरित नहीं होता, उसी तरह निष्काम कर्म फलित नहीं होता। इसी प्रकार कुम्हार को देखकर ब्रह्मांड-कुलाल की कल्पना हुई। घूमते हुए चाक को देखकर भव-चक्र की कल्पना हुई। लोहार की निहाई देखकर कूटस्थ-ब्रह्म की कल्पना की गयी। किसी ठगनेवाली युवती को देखकर माया - की कल्पना की गयी।

मैं - परंतु दार्शनिक विचारों में जो इतने गूढ़ तत्त्व भरे हुए हैं ?

खट्टर काका बोले-सभी तत्त्वों का सार यही कि “संसार में कुछ सार नहीं है, अतः संसार छोड़ दो ।” अजी, किसी वस्तु का सार उसमें प्रवेश करने पर ही मिलता है। कन्यायाः रूपलावण्यं जामाता वेत्ति नो पिता! कन्या में क्या सार है, सो दामाद ही जान सकता है। सास-श्वशुर क्या समझेंगे ? यहाँ के दार्शनिकों ने संसार का सुख समझा ही नहीं। जैसे, आजकल के कुछ दामाद पूरी विदाई नहीं मिलने पर रूठकर ससुराल से भागते हैं, उसी तरह ये लोग भी संसार से भागते थे। अजी, एक थे निरसन गोसाईं। उनकी स्त्री कहीं भाग गयी। तब लंगोट लगाकर सभी नारियों को सालियाँ बनाकर गालियाँ देने लग गये। निवृत्तिमार्गवाले दार्शनिक निरसन गोसाई के समान थे।

मैं - परंतु वेद-वेदांत में तो लोक-कल्याण की भावना है ?

खट्टर काका बोले-अजी, दोनों में स्वार्थ की पूजा है । वेद वाले सीधे कहते हैं - यज्ञार्थ पशव: सृष्टा: । वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति! अर्थात्‌ मांस-भक्षण में दोष नहीं है वेदांतवाले अमरत्व का मुलम्मा चढ़ा देते हैं -

अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराण: न हन्यते हन्यमाने शरीरे! अर्थात्‌, “शरीर काट देने पर भी आत्मा का हनन नहीं होता ।” वेदवाले अनेक देवताओं की पूजा करते थे।

वेदांतवाले सबसे बड़ा देवता अयमात्मा अर्थात्‌ अपने को समझने लगे। वेद में जो स्वार्थवाद था, उसे इन लोगों ने अंत पर, यानी पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। के मैं तो वेदांतः का यही अर्थ समझता हूँ।

मैंने कहा-परंतु ब्रह्मज्ञान और वैराग्य के इतने उपदेश... खट्टर काका बोले-देखो, दरिद्र ऋषियों को जब किसी धनाढ्य व्यक्ति को देखकर संताप होता था, तो वे कहने लगते थे ।

समलोष्टाश्मकांचन:

सोना क्या है, मिट्टी का ढेला है! दुःख में मन को समझाते थे, सुख-दुःख दोनों बराबर है ।

सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभी जयाजयौ

जब स्वाभिमान पर ठेस लगती थी, तो स्थितप्रज्ञ के लक्षण गढ़ने लगते थे - दुःखेष्वनुद्विग्गमना: सुखेषु विगतस्पृहः (गीता)

अपनी हीनता का एहसास होता था, तो अहं ब्रह्माईस्मि कहकर अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति करते थे। जब इच्छाएँ पूरी नहीं होती थीं, तब कहते थे कि सभी इच्छाओं को तलाक देने में ही शांति है!

विहाय कामान्‌ यः सवनि पुमांश्चरति नि:स्पृहः
निर्ममों निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति (गीता )

अजी, यह सब क्‍या है? हारे को हरि नाम! मैंने कहा-खट्टर काका, वे लोग स्वेच्छया अपरिग्रह को श्रेयस्कर जानकर वरण करते थे।

खट्टर काका बोले - गलत । उन दिनों भी जो ऋषि भाग्यशाली होते थे, वे आजकल के महंतों की तरह महलों में रहकर खीर खाते थे और दरिद्र ऋषि उनसे खार खाते थे। देखो, छांदोग्य उपनिषद्‌ ! में ऐसे वैभवशाली आचार्यों को “महाशालः महाश्रोत्रियः कहा गया है। मुंडकोपनिषद्‌” में शौनको ह वै महाशाल: का उल्लेख है।

कठोपनिषद्‌ में भी यमाचार्य नचिकेता को महल, हाथी-घोड़े और सुंदरियों का प्रलोभन देते हैं। कुछ आचार्यों को चेले-चेलियों से इतनी आमदनी हो जाती थी, कि वे राजा की तरह विलासमय जीवन बिताते थे। छांदोग्य* में रैक्व नामक ऋषि की कथा देखो। उनके पास राजा जनश्रुति बहुत-सा द्रव्य और छः सौ गायें लेकर पहुँचे। ऋषि ने भेंट कबूल नहीं की। तब राजा और अधिक सोना, मणि, एक हजार गौएँ, गाँव की जमींदारी का पद्म और अपनी सुंदरी

कन्या को लेकर फिर उनकी सेवा में उपस्थित हुए। इस बार ऋषि ने कन्या का मुख

देखते ही सारा उपहार स्वीकार कर लिया।
तस्याह मुख मुखोद्ग॒ह्णन्‌ उवाच आजहारेमाः

उनका सारा अध्यात्म आधिभौतिक आँच में पिघल गया! मुझे मुँह ताकते देख खट्टर काका बोले - अजी, उस युग में भी बाबा लोग मुँह बाये रहते थे। ऊपर से विराग का जोगिया राग आलापते थे और भीतर की रगों में अनुराग की रागिणी वसंत-बहार का रंग भरती थी।

माथा मुँड़ा लेने पर भी छत्र-चमर का सर्प ऊपर छत्र काढ़े रहता धा। बे-दाँत' की अवस्था में वेदांत सूझने लगता है। फिर भी रसना तो रस लेने के लिए रहती ही है। तृष्णा के दशन कभी नहीं टूटते। जिह्ना जैसी अनस्थि (हड्डी-रहित) इंद्रियाँ दुर्निवार होती हैं।

वेदांत के दम” का कया दम है कि उनके कदम रोक सके! अहम्‌ को जीतने का अहंकार एक वहम मात्र है। फिर भी हम शतादब्दियों से सोहम्‌! दासोह्हम्‌! सदा सोहम्‌ की आध्यात्मिक शहनाई बजाते आ रहे हैं। मैंने कहा-खट्टर काका, कल स्वामी आत्मानंद का भाषण होगा ।

अध्यातवाद पर। वह कहते हैं कि भौतिकवादी संस्कृति ही सारे अनर्थ की. जड़ है। खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले - हाँ । यह भीतिक 'लाउडस्पीकर' पर गला फाड़-फाड़ कर, भौतिक फ्रिज' का ठंढा पानी पी-पीकर, भौतिकवाद को कोसेंगे।

और, उनके आध्यात्मिक अनुयायी उनका वक्तव्य भौतिक टेलीग्राम' के द्वारा भौतिक प्रेस' में छपने के लिए भेज देंगे कि भातिकता का बहिष्कार करो! अजी, सच पूछा तो ये आत्मानंद लोग 'मोटरानंद', 'मालानंद', मुद्रानंद', 'मोदकानंद', और 'मदनानंद' होते हैं।

इन्हीं पंचमकारों में मग्न रहते हैं। परमानंद-सरोवर से मोती चुनते रहते हैं, इसलिए परमहंस कहलाते हैं। उनके अंधभक्त भोंपू बजाते हैं और शिष्याएँ अंगुष्ठोदक पीती हैं। परंतु ये सिद्ध महात्मा प्रायशः एकांत में महातमा सिद्ध होते हैं । कषाय वस्त्र का रंग मनः कषाय (काम, क्रोध, लोभ, मोह) से और गहरा हो जाता है। ऐसे ही बगुलाभगतों पर वाल्मीकीय रामायण में छींटा कसा गया है -

पश्य लक्ष्मण पंपायां वकः परमधार्मिक:
शने: शने: पद धर्त्ते जीवानां वधशंकया!

बिडालवैष्णव और नीलवर्ण श्रुगाल हर युग में होते आये हैं और संस्कृतिपुष्कर की मछलियाँ उनके चरणों पर लोटती आयी हैं। रक्षको यत्र भक्षकः!

मैंने कहा-खट्टर काका, स्वामीजी ऋग्वेद में 'अनश्व रथ” शब्द से सिद्ध करते हैं कि प्राचीन युग में भी हवाई जहाज था।

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले-अजी, सिद्ध करनेवाले तो ऐसे-ऐसे होते हैं कि तस्मे श्री गुरवे नमः के नाम पर तस्मई (खीर) भी चेलों से वसूल कर लेते हैं! मेरे एक दोस्त समझते हैं कि कृष्ण भगवान्‌ चाय पीते थे! क्योंकि गीता में एक जगह लिखा है - यथा संहरत्ते चायम्‌!

इसी तरह कोई शोधकर्त्ता वेद के ओम से ओमलेट भी निकाल लेंगे!

मैंने कहा-खट्टर काका, एक बात कहना तो मैं भूल ही गया। कल गाँव में विराट्‌ यज्ञ हो रहा है। अखंड हवन होगा। बीस टिन घी आया है।

खट्टर काका अपना सर पीटते बोले-हाय रे बुद्धि! खाने के लिए घी नहीं, और जलाने के लिए घी! अजी, जब सलाई नहीं थी, तब हमारे पूर्वज घृत की आहति दे-देकर अग्नि को प्रज्यलित रखते थे। अब, जब एक तीली रगड़ देने से आग पैदा हो जाती है, तब टिन-के-टिन घी बरबाद करने से क्या फायदा? साँप सरककर कहाँ-से-कहाँ चला गया, और हम लोग लकीर पीटते चले जा रहे हैं!

मैं - खट्टर काका, कुछ लोग कहते हैं कि धुएँ से वर्षा होती है, इसलिए यज्ञ किया जाता है।

खट्टर काका बोले - अगर धुएँ से ही वर्षा होता, तो आज देश में लाखों चिमनियाँ और इंजिनें रात-दिन धुआँ उगलती रहती हैं । फिर और धुआँ पैदा करने की क्या जरूरत ?

मैं - तो आप यह बात लोगों को समझाते क्‍यों नहीं ?

खट्टर काका बोले - अजी, मुझे ही कया पड़ी है कि लोगों से झगड़ा मोल लेता फिरूँ? जहाँ इतने कट्टर हैं, वहाँ एक खट्टर क्‍या कर लेंगे?

भाई, खूब घी जलाओ। चार्वाक कह गये हैं--ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्‌।

तुम लोग ऋणं कृत्वा घृतं दहेत्‌ करते जाओ। घी नहीं जलाओगे तो संस्कृति कैसे बचेगी!