ब्रह्मानंद

खट्टर कका के तरंग लेखक : हरिमोहन झा

आषाढ़ का महीना था। रिमझिम वर्षा हो रही थी।

खट्टर काका मेरे यहाँ आर्द्रा का भोज खा रहे थे।

प्रेमपूर्वक खीर में आम का रस गाड़ते हुए बोले-वाह!

लगता है जैसे सुजाता की खीर और अंबपाली के आम, दोनों एक साथ मिल गये हों! निर्वाण का आनंद आ गया! रसो वै सः!

मैंने कहा-खट्टर काका, वह रस तो आध्यात्मिक है ?

खट्टर काका आनंद-लहरी में थे। बोले-अजी, सभी रस एक हैं। चाहे वेदांत का रस हो, या बेदाना अनार का!

व्रजयौवति का हो, या कृष्णभोग आम का! काव्यरस और द्राक्षारस में, गंगाजल और गुलाबजल में, पंचामृत और अधरामृत में, मैं कोई भेद नहीं मानता।

जो रसकण कामिनी पुष्प के पराग में जाकर मधु बनता है, वही कोमल कामिनी के अधर पर जाकर अमृत बन जाता है।

अरुणाई पर आते हुए कश्मीरी सेब और तरुणाई पर आते हुए कश्मीरी गाल में अंतर ही क्या है ? कच्ची नाशपाती और मुग्धा नायिका, दोनों में एक ही तत्त्व है।

सद्यः विकसित बेला और सद्यः विकसित बाला में भेद ही क्या

है ? रस मूलतः एक ही है। चाहे वह उमड़ते हुए पयोधर से बरसे या उभड़ते हुए से।

वही रस कहीं सरोज बनकर भ्रमर को लुभाता है, कहीं उरोज बनकर रसिक को। चाँदनी छिटक गयी, चंद्रकला खिल उठी, चंद्रमुखी मुस्कुरा उठी! बात तो एक ही है।

कलकंठी खिलखिला उठी, शेफालिका के फूल झड़ गये, चाशनी में बुंदिया पड़ गयी! तीनों में भेद ही क्या ?

मैंने कहा-अहा! अलंकार की वर्षा हो गयी! परंतु खट्टर काका, अपने यहाँ के द्रष्टा कहते हैं कि विषयानंद क्षणिक हैं, अतएव त्याज्य हैं। खट्टर काका बोले-अजी, यह सब कहने की बातें हैं।

द्रष्टा लोग स्वयं फूल

और चंदन क्यों चाहते थे ? दूध और फल क्यों लेते थे ? सभी भोजन-पान तो अंततोगत्वा मल-मूत्र में परिणत हो जाते हैं।

तब क्या सभी मक्खन-मलाई उठाकर पहले ही शौचागार में फेंक देना चाहिए ? मूत्र से लेकर पुत्र तक, सभी तो अस्थायी हैं।

तब जीवन में कौन-सा आनंद का सूत्र रह जायगा ?

मैं - उनका आशय यह है कि सांसारिक सुखों में दुःख मिला रहता है, इसलिए उनका त्याग करना चाहिए।

खट्टर काका सरसों की चटनी का आस्वादन करते हुए बोले-इसका करारा जवाब चार्वाक दे गये हैं।

त्याज्यं सुखं विषयसंगमजन्म पुंसां,
दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणैषा
ब्रीहीन जिहासति सितोत्तम तंडुलाढ् यान्
को नाम भो स्तुषकणोपहितान् हितार्थी!

अजी, जीवन में सुख-दुःख दोनों रहते हैं। लेकिन कौन बुद्धिमान भूसा छुड़ाने के डर से धान फेंक देता है? क्या काँटों के डर से कोई मछली खाना छोड़ देता है ?

मच्छरों और मेहमानों के डर से मकान बनाना बंद कर देता है ? सिल पर भंग रगड़नी पड़ती है, तो क्या इसलिए ठंढाई का आनंद लेना छोड़ दिया जाय ?

नीविमोचन में भी कुछ श्रम पड़ता है, तो क्या विवाह नहीं किया जाय ? तब पुरुषार्थ ही क्या रह जायगा ?

मैंने कहा - खट्टर काका, उनका तात्पर्य यह है कि जिस सुख का परिणाम दुःख हो, उसे छोड़ देना चाहिए।

खट्टर काका ने छूटते ही उत्तर दिया - तब तो स्त्री को प्रसव-वेदना के भय से गर्भ नहीं धारण करना चाहिए ?

तुम तो ऐसा रास्ता बताते हो कि सृष्टि ही लुप्त हो जाय!

मैं - खट्टर काका, उनका आशय है कि आपात-मधुर परिणाम-विष सुखों का त्याग कर देना चाहिए।

जैसे शहद का चींटा उसमें मिठास के लोभ से जाकर मर मिटता है, यह मूर्खता है।

खट्टर काका मुस्कुराते बोले–लेकिन चींटे की ओर से यह भी तो वकालत की जा सकती है कि वह सच्चे प्रेमी की तरह शहद पर शहीद हो गया। तितली हरजाई की

तरह फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर उड़ जाती है।

चींटा वेदांती की तरह अनुभव करता है- नाल्पे सुखमस्ति । वह माधुर्य में खो जाता है।

देर तक थोड़ा-थोड़ा धुंधुंआने की अपेक्षा एक क्षण का धधकना अच्छा समझता है।

मुहूर्तज्वलनं श्रेयः न च धूमायितं चिरम्! मैं-परंतु, अपने यहाँ प्रेय और श्रेय में भेद किया गया है। ख.-यही भेद तो स्पष्ट नहीं है। 'श्रेय' क्या है ?

मैं-श्रेय है ब्रह्मोपासना।

खट्टर काका भभाकर हँस पड़े। बोले-अजी, ब्रह्मोपासना का असली अर्थ है आत्मोपासना।

अयमात्मा ब्रह्म इसका अर्थ है कि यह आत्मा ही ब्रह्म है।

एकोऽहं द्वितीयो नास्ति इसका अभिप्राय कि अपने सिवा दूसरा कोई नहीं। अर्थात् मैं ही सबकुछ हूँ। अहं ब्रह्मास्मि।

सर्वं ब्रह्ममयं जगत् का तात्पर्य

सर्वं स्वार्थमयं जगत् अर्थात् स्वार्थ के लिए ही यह सारा संसार है।

याज्ञवल्क्य यही तत्त्व अपनी स्त्री मैत्रेयी को समझा गये हैं न वा अरे!

सर्वस्य कामाय सर्वं प्रिय भवति आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति (बृहदारण्यक ) "स्त्री-पुत्र, धन, धान्य, देवी-देवता, सभी कुछ अपने ही लिए प्रिय होते हैं।

" मैं यही बात तुम्हारी काकी को ठेठ बोली में कहूँ, तो लोग स्वार्थी कहेंगे।

यह संस्कृत में बोल गये, तो ऋषि कहलाए!

मैंने कहा-खट्टर काका, वेदांती तो स्वार्थ को छोड़ परमार्थ पर जाने की शिक्षा देते हैं ?

खट्टर काका मुस्कुरा उठे। बोले-वेदांती तो स्व और पर में कोई भेद मानते ही नहीं।

तब स्वार्थ क्या और परार्थ क्या? 'स्वपुरुष' और 'परपुरुष' में भी कोई अंतर नहीं रह जाता। परपुरुष और परब्रह्म एक ही हैं। यदि स्त्रियाँ भी वेदांतिनी बन जायँ, तो कैसा अनर्थ हो!

मैंने कहा-खट्टर काका, वेदांत और योग में जो इतने यम नियम आसन के विधान हैं ?

खट्टर काका खीर में मलाई सानते बोले-अजी, छूछा 'यम' तो यम का सहोदर है। असल में समझो तो चौरासी भोगासनों की नकल पर चौरासी योगासन बने हैं।

सुरतयोग के अनुकरण पर समाधियोग की कल्पना हुई है। लेकिन जिसे पद्मिनी उपलब्ध है, वह पद्मासन क्यों लगावेगा ?

जिसे कामिनी का अष्टांग प्राप्त है, वह योग के अष्टांग मार्ग को साष्टांग क्यों नहीं कर देगा ?

पतंजलि को तिलांजलि क्यों नहीं दे देगा ? जिसे बिल्वस्तनी मिली है, वह बेलपत्र क्यों खोंटेगा ? काम के अभाव में ही निष्काम सूझता है।

वियोग से योग का प्रादुर्भाव होता है। रति का द्वार अवरुद्ध होने पर उपरति का द्वार खुलता है। अभावे शालिचूर्णवा! यह सनातन नियम है। जिसे असली घी मिलेगा, वह नकली के पीछे क्यों दौड़ेगा ?

यदि सा वनिता हृदये मिलित

क्व जपः क्व तपः क्व समाधिविधिः! जिन्हें वह वनिता नहीं मिलती है, वे ‘माया' या 'प्रकृति' सुंदरी की कल्पना कर अपना शौक पूरा करते हैं!

सांख्यवाले कहते हैंप्रकृतेः सुकुमारतरं न किंचिदस्तीति मे मतिर्भवति

(सांख्यकारिका) मैं-खट्टर काका, आपने सांख्य की प्रकृति को स्त्री बना दिया ?

खट्टर काका बोले-अजी, मुझे तो सांख्य की प्रकृति बिल्कुल स्त्री ही जैसी लगती है। दोनों सृष्टि करनेवाली, दोनों रिझाने में प्रवीण, दोनों अनादि काल से पुरुषों को आकर्षण-पाश में बाँधे हुए! दोनों ही साम्यावस्था पुरुष से संयोग होने पर भंग हो जाती हैं। तभी तो कहा गया

हैयोषितः प्रकृतेरंशाः पुमांसः पुरुषस्य च।

(ब्रह्मवैवर्त, गणेशखंड)

मैं - परंतु प्रकृति तो त्रिगुणात्मिका होती ही है। सत्त्व, रज, तम...

खट्टर काका-ये तीनों गुण तो स्त्री में भी रहते ही हैं। प्रेम में सत्त्व गुण, कलह में रजोगुण और रूठने पर तमोगुण प्रकट होते हैं। नारी के नेत्रों में भी तीनों गुण हैं अमिय हलाहल मद भरे, श्वेत श्याम रतनार!

श्वेत, सत्त्वगुण; श्याम तमोगुण, लाल रजो गुण। नारी के ये तीनों गुण क्रमशः अमृत-तत्त्व, विष-तत्त्व और मद-तत्त्व हैं ।

समय-समय पर हर्ष, विषाद और मोह उत्पन्न करते हैं। यही त्रिगुणात्मिका प्रकृति का रहस्य है। समझे ?

मैं - धन्य हैं, खट्टर काका! आपने सांख्य की प्रकृति को साड़ी पहनाकर स्त्री बना दिया!

खट्टर काका विहँसकर बोले – मैं क्या बनाऊँगा ? सांख्यकार ने ही प्रकृति को पेशवाज पहनाकर नर्तकी बना दिया है।

रंगस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् ।

(सांख्यकारिका)

खट्टर काका आम चाभते हुए बोले-प्रकृति वेश्या की तरह नये-नये रूप धारण कर छमकती है। पुरुष जनखे की तरह निर्विकार देखता रहता है।

इसीलिए तो पुरुष को 'द्रष्टा' मात्र कहा गया है, कर्ता नहीं। अंध-पंगु न्याय का तात्पर्य यह है कि स्त्री अंध अर्थात् कामांध होती है, और पुरुष पंगु अर्थात् लाचार होता है।

जब प्रकृति पुरुष पर चढ़ती है तो चित् चित हो जाते हैं। अजी, वृद्ध

दर्शनकारों ने अपना ही अनुभव प्रतीक रूप में व्यक्त किया है। समझो तो सांख्य में विपरीत रति की भावना निहित है।

मैं - ऐं! सांख्य में विपरीत रति! आप क्या कह रहे हैं ? खट्टर काका!

खट्टर काका-ठीक कह रहा हूँ। इस देश के कवि रसिक-शिरोमणि होते हैं।

इस कारण काव्य में अधिकतर विपरीत रति का ही वर्णन मिलेगा। सांख्य में भी वही बात समझो। इसी कारण प्रकृति को सक्रिय, और पुरुष को निष्क्रिय कहा गया है।

मैं - खट्टर काका, आप तो गजब का अर्थ लगा रहे हैं । परंतु प्रकृति के सारे क्रिया-कलाप तो इसी कारण होते हैं कि अंत में पुरुष को मोक्ष मिल जाय।

खट्टर काका-हाँ, सो तो अंत में होता ही है। सांख्यकारिका में कहा है-पुरुषविमोक्ष निमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य । मोक्ष 'मुच्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'छोड़ना' ।

जब प्रकृति सारी क्रियाएँ करके छोड़ देती है, तब पुरुष का मोचन होता है। इस स्थिति में आत्मज्ञान, आत्मग्लानि, किंवा काम-राहित्य होना स्वाभाविक ही है। पुरुष पुनः कैवल्यावस्था में आ जाता है, यानी एकाकी रह जाता है।

मैं - खट्टर काका, आप तो हर बात में परिहास ही करते हैं।

खट्टर काका मुस्कुरा उठे। बोले-सो जो समझो। लेकिन मैं पूछता हूँ कि यदि सांख्य प्रमाण, तो व्यभिचार में क्या दोष है? मैथुन प्रकृति का कार्य है, या पुरुष का ?

मैं - प्रकृति का। पुरुष तो निर्लिप्त रहता है।

ख. - तब प्रकृति का एक परिणाम दूसरे परिणाम से मिलकर तीसरे परिणाम की सृष्टि करता है। इसमें पुरुष के बाप का, बाप तो है ही नहीं, पुरुष का क्या बिगड़ता है ?

मैं - खट्टर काका, अभी आप प्रवाह में हैं।

खट्टर काका-तभी तो कहता हूँ कि जिस तरह सांख्य का पुरुष मौगा (स्त्रैण) है, उसी तरह वेदांत का ब्रह्म नपुंसक है। एक को प्रकृति पटकती है, दूसरे को माया पछाड़ती है।

मैं-खट्टर काका, ऋषिगण तो विषय-भोग को हेय समझते थे।

खट्टर काका मलाई में आम का रस सानते हुए बोले-यही तो भ्रम है। वे लोग ऊपर से भोग की भर्त्सना करते थे, पर भीतर से उसी के लिए व्याकुल रहते थे। वैदिक ऋषि सीधे थे। खुल्लमखुल्ला भोगवाद का ढोल पीटते थे। परंतु उपनिषद् के ऋषि अधिक गहरे थे। इसी कारण डूबकर पानी पीते थे।

मैं-उपनिषद् के ऋषि तो ब्रह्मवादी थे।

खट्टर काका व्यंग्य के स्वर में बोले-हाँ! तभी तो उपनिषदों में संभोग का वैसा वर्णन कर गये हैं!

मैं - ऐं! उपनिषदों में संभोग? खट्टर काका, आप ब्रह्मानंद को विषयानंद से मिला रहे हैं!

खट्टर काका बोले - मैं क्यों मिलाऊँगा जी? उन्हीं लोगों ने मिलाया है जिन लोगों को ब्रह्मानंद में भी स्त्री-संभोग सूझता था!

बृहदारण्यक उपनिषद् में देखो - यथा प्रियया स्त्रिया संपरिष्वक्तो न बाह्यं किंचन वेद नान्तरमेव

अर्थात्, जैसे प्रेयसी के आलिंगनपाश में बँध जाने पर बाहर-भीतर का कोई ज्ञान नहीं रह जाता!..यज्ञ और वेदपाठ, सभी में उन्हें संभोग ही सूझता है! देखो, उपमा कैसे देते हैं

योषा वा अग्निर्गौतमस्तस्य उपस्थ एव समिल्लोमानि
धूमोयोनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेंगाराः अभिनन्दा
विस्फुलिंगाः । तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति
तस्या आहुत्यै पुरुषः संभवति...

मैं - इसका अर्थ ?

खट्टर काका-भावार्थ यह कि आग स्त्री है, शिला जननेन्द्रिय है, धुआँ रोआँ है, ज्वाला स्त्री का गुप्तांग है, चिनगारी आनंदकण है, आहुति वीर्य है,...ज्यादा खोलकर कैसे कहूँ ?

मैं - यह सब क्या सचमुच उपनिषद् में लिखा है ?

खट्टर काका-तब क्या मैं अपनी ओर से बनाकर कह रहा हूँ ? उपनिषदों में सबसे मुख्य हैं बृहदारण्यक और छांदोग्य, और दोनों में यह विद्यमान है।

मैं - खट्टर काका, इसका कारण ?

खट्टर काका-अजी, ऋषि लोग पुराने रसिक थे। यज्ञ की उपमा तो देख ही चुके हो। अब वेदपाठ की कैसी उपमा देते हैं सो भी देख लो।

उपमंत्रयते स हिंकारः। ज्ञपयते सः प्रस्तावः।
स्त्रियः सह शेते स उद्गीथः प्रतिस्त्री सहशेते सः प्रतिहारः

सामगान की विधि में भी उन्हें भोग की बातें सूझती हैं! 'हिंकार' का अर्थ आमंत्रण, 'प्रस्ताव' का अर्थ कामयाचना! 'उद्गीथ' का अर्थ सहशयन! और प्रतिहार का अर्थ शांकर भाष्य में यों समझाया गया है

न कांचन स्त्रियस्वात्मतल्प प्राप्तां परिहरेत् समागमार्थिनीम

अर्थात्, “जो स्त्री शय्या पर समागम के लिए आ जाय, उसे नहीं छोड़ना चाहिए।" देखो, बृहदारण्यक में लिखा है

यस्य जाया वै जारः स्यात् तं चेद्विष्यादाय पात्रेऽग्निमुपसमाधाय...

किसी की स्त्री हो, किसी के साथ शयन करे, जरा-सा घी आग में डाल दो, किस्सा खत्म! व्यभिचार क्या हुआ। एक खेल हो गया!

मुझे मुँह ताकते देखकर खट्टर काका बोले-समझो तो अहं ब्रह्मास्मि, यही महावाक्य सारे अनर्थ की जड़ है। अद्वैतवादियों ने 'सजातीय', 'विजातीय' और 'स्वगत', सभी प्रकार के भेद उठा दिये। इसी अभेद की आड़ में गुरु और शिष्या तक में सभी भेद मिट गये!

अहं भैरवः त्वं भैरवी!
कृष्णोऽहं भवती राधा चावयोरस्तु संगम!

इस प्रकार भैरवीचक्र, रासचक्र आदि नामों से तरह-तरह के खेल चलने लगे। भवबंधन से मुक्ति मिली या नहीं, सो तो वे ही जानें, लेकिन कंचुकी और नीवी के बंधन अवश्य खुले । एकांत भक्ति के नाम पर एकांत भोग होने लगे।

मैंने पूछा-खट्टर काका, भक्ति के नाम पर ऐसे-ऐसे संप्रदाय क्यों चल पड़े ?

खट्टर काका मालदह आम चाभते हुए बोले-अजी, सभी संप्रदाय भोग के लिए बने हैं। चतुर्थी संप्रदाने । यही सभी संबंधों और कर्मों का आधार है। चिरपिपासु मनुष्य सदा से रस-कलश की ओर लपकता आया है और मोहिनी माया अपना अमृत-कलश छलकाती हुई उसे नचाती आयी है।

किसी को मदिरा में रस मिलता है, किसी को मदिराक्षी में। किसी को कंचन में, किसी को कंचनी में। किसी को तुलसी-माला में, किसी को वैजयंती-माला में। किसी को गौरी में, किसी को श्यामा में। किसी को कुमारी कन्या में, किसी को कन्या -कुमारी में ।

किसी को भैरवी (देवी) के ध्यान में, किसी को भैरवी (रागिणी) की तान में। किसी को कविता के पद में, किसी को कामिनी के पद में। किसी को गीता के संदेश में, किसी को छेने के संदेश में।

दधि मधुरं मधु मधुरं द्राक्षा मधुरा सितापि मधुरैव

तस्य तदेव हि मधुरं यस्य मनो यत्र संलग्नम्

मैंने पूछा-खट्टर काका, आपको सबसे अधिक आनंद किसमें मिलता है? खट्टर काका बोले-देखो,

काव्येन हन्यते शास्त्र, काव्यं गीतेन हन्यते

गीतं भोगविलासेन क्षुधया सोऽपि हन्यते

शास्त्रानंद प्रिय है। उससे भी प्रिय है काव्यानंद। संगीत का आनंद उससे भी बढ़कर है। उससे भी प्रबल है विषयानंद । शास्त्र, काव्य-संगीत, सबको पछाड़ देती है कामिनी। किंतु एक चीज ऐसी है जो उसको भी पछाड़नेवाली है। वह है क्षुधा । इसलिए भोजनानंद को मैं सबसे प्रबल मानता हूँ।

मैं - खट्टर काका, आप षट्रस के अधिक प्रेमी हैं या नवरस के ? खट्टर काका मुस्कुराते बोले-मुझे षट्रस में ही नवरस मिल जाते हैं। मधुर शृंगार

का, अम्ल हास्य का, कटु रौद्र का, तिक्त बीभत्स का, लवण करुण का, चटपटा अद्भुत का, और कषाय शांत रस का प्रतीक है।

जो रस गोनू झा के चुटकुले में है, वही इमली की खटमिट्टी में। जो रस वीर काव्य में है, वही लाल मिर्च में। अभी दही-बड़ा खाया, उसमें अद्भुत रस मिल गया। षट्स भोजन में सभी रस मिल जाते हैं!

तब तक खट्टर काका के आगे ढेर से रसगुल्ले आ गये।

खट्टर काका उल्लसित होकर बोल उठे-बस, बस, बस ।

अब साकार सगुण ब्रह्म का साक्षात्कार हो गया! मेरे लिए तो यही आनंद ब्रह्म है!

अखंडमंडलाकारं माधुर्यरसपूरितम्

आनन्दंब्रह्म साकारं रसगोलं भजाम्यहम्!

मैंने कहा-खट्टर काका, आप जीवन का आनंद लेना जानते हैं।

खट्टर काका एक रसगुल्ला मुँह में रखते हुए बोले-अजी, विश्व में चारों ओर रस का समुद्र लहरा रहा है। सर्वं रसमयं जगत्! मैं भी अपना लोटा भर लेता हूँ और आनंद-विनोद में मस्त रहता हूँ।

बेकार लड़ाई-झगड़ा कर रस को विष बनाने से क्या फायदा ? जिंदगी में हँसना चाहिए, फँसना नहीं।

यह दुनिया दार्शनिकों के लिए भूलभुलैया है, वैज्ञानिकों के लिए प्रयोगशाला है, कवियों के लिए मधुशाला है, लड़ाकुओं के लिए अखाड़ा है, व्यापारियों के लिए सट्टाबाजार है, अपराधियों के लिए कठघरा है, मनहूसों के लिए श्मशान है और मेरे लिए सदाबहार महफिल है।

मैं समझता हूँ कि बारात में आया हूँ। जनवासे का मजा ले रहा हूँ। एक दिन तो विदा होना ही है। जब तक जीता हूँ, रस पीता हूँ, रस बोलता हूँ। मेरा सिद्धांत है -

यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्

रसं पीत्वा रसं वदेत्!