काव्य का रस

खट्टर काका कलमबाग में लाल-पीले आमों के बीच में बैठे थे।

मेरे हाथ में 'विद्यापति पदावली' देखकर बोले-क्यों जी! काव्य का रस लेने लगे हो ?

मैंने कहा-यह विद्यालय का पाठ्य ग्रंथ है। एक छात्र को पढ़ाना है।

खट्टर काका पुस्तक खोलकर पढ़ने लगे -

प्रथम बदरि फल पुनि नवरंग
दिन दिन बाढय पिड़ल अनंग
से पुनि भय गेल बीजक पोर
अब कुच बाढल श्रीफल जोर

बोले-क्यों जी, इस पद का अर्थ कैसे समझाओगे ? 'बेर' से क्रमशः 'बेल' बनने की बात! इसकी भाषा टीका ठेठे गद्य में की जाय तो अश्लील कहलायगी। कवि-कोकिल सरस पद्य में कह गये, तो 'कोमल काकली' हो गयी!

मैं - खट्टर काका, कविता की बात ही और होती है।

खट्टर काका - हाँ । निरंकुशाः कवयः! कवियों की कविता पर 'कविका' (लगाम) नहीं लगती। उन्हें 'कच कुच कटाक्ष' वर्णन करने की पूरी तरह छूट मिली हुई है।

जिन बातों से उन्हें वाहवाही मिलती है, उन्हें से औरों की तबाही हो जाय! देखो, नमक और लवण एक ही चीज है। 'लावण्यमयी' बाला कहो, तो प्रसन्न हो जायगी, 'नमकीन लड़की' कह दो तो सन्न रह जायगी! कोई दूसरा इस तरह नारंगी-अनार की बातें बोले तो गँवार कहलाएगा।

लेकिन कवि लोग तो अनार का नाम ही कुचफल रखे हुए हैं।

किसी और भाषा के कोष में ऐसा रसीला शब्द मिलेगा ?

मैंने कहा - खट्टर काका, संयोग से आपकी नजर उसी पद पर पड़ गयी। लेकिन और-और पद भी तो हैं।

खट्टर काका पृष्ठों को उलटते-पुलटते बोले-अजी, आद्योपांत तो कुचकीर्तन ही भरा है!

जहाँ से कहो, सुना दूँ। देखो, सखी नायिका को शिक्षा दे रही है

झाँपब कुच दरसाएब आध

अर्थात्, “वक्ष-स्थल को इस कौशल से ढंकना कि कुच का आधा भाग दीखता रहे।" अर्ध उरोज को देखकर नायक की कामाग्नि और अधिक प्रज्वलित हो उठती है -

आध उरज हेरि आँचर भरि
तब धरि दगधे अनंग!
सखी नायक को उपदेश देती है
गनइत मोतिम हारा
छले परसब कुच भारा

अर्थात्, “छाती पर भाला के मोती गिनने के व्याज से कुच-स्पर्श कर लीजिएगा।" नायक उतावला हो जाता है।

खनहिं चीर धर, खनहिं चिकुर गह करय चाह कुचभंगे

"कभी अंचल खींचकर, कभी चोटी पकड़कर, कुच-भंजन करना चाहता है!" नायिका परेशान है क्योंकि “उसका उदीयमान यौवन गिरि की तरह उन्नतमस्तक है!"

बाल पयोधर गिरिक सहोदर अनुपमिए अनुरागे

वह अपने उन्नत उरोजों को लाख छिपाने की चेष्टा करती है, फिर भी “वे उत्तुंग हिमगिरि बार-बार प्रकट हो ही जाते हैं।"

उनत उरोज चिर झपबए, पुनि-पुनि दरसाय
जतए जतने गोअए चाहए, हिमगिरि ने नुकाय!

इसी नोंक-झोंक में नायक को अनावृत कुचकमलों के दर्शन हो जाते हैं -

ता पुनि अपुरव देखल रे कुच युग अरविंद

उन्हें जान पड़ता है, जैसे स्वर्ण के दो कटोरे उलटाकर बैठा दिये गये हों!

तेइ उदसल कुच जोरा
पलटि बैसाओल कनक कटोरा

नायक को उन्हें देखकर वैसा ही आनंद आता है, जैसे, जन्म भर के पंगु को सुमेरु का शिखर मिल गया हो!

आँचर परसि पयोधर हेरु
जनमपंगु जनि भेटल सुमेरु!

अंततः नायक की साधना फलित हो जाती हैं।

कुचकोरक तव कर गहि लेल
पीनपयोधर नखरेख देल

मुझे चुप देखकर खट्टर काका बोले-और आगे कैसे सुनाऊँ? तुम भतीजे हो। खैर, प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्!

मैंने कहा-आपने तो सिर्फ रसपक्ष सुनाया। लेकिन विद्यापति महादेव के परमभक्त भी तो थे ?

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले-हाँ, ऐसे जबर्दस्त भक्त थे कि कामिनी के पयोधर में भी उन्हें महादेव ही सूझते थे। देखो सुरत समापि

सुतल वर नागर पानि पयोधर आपी कनक शंभु जनि पूजि पुजारी धयल सरोरुह झाँपी किंतु उतने सुकुमार महादेव को खंडित होते भी क्या देर लगती है ?

कोन कुमति कुच नखखत देल हाय हाय शंभु भगन भय गेल! मुझे चुप देखकर खट्टर काका बोले-अजी, केवल विद्यापति का ही दोष नहीं है। देव, बिहारी, मतिराम, पद्माकर, सभी ने तो यही धारा बहाई है।

रीतिकालीन काव्य समझो तो ऋतुकालीन काव्य है जिसमें रतिकालीन शृंगार की सरिता लहरा रही है । यह कुच-काव्य की धारा संस्कृत वाङ्मय की निर्झरिणी से निकली हुई है। देखो एक कवि किसी बाला से क्या कह रहे हैं -

बदरामलकानदाडिमानामपहृत्य श्रियमुन्नतौ क्रमेण
अधुना हरणे कुचौ यतेते बाले ते करिशावकुंभ लक्ष्म्याः

"हे बाले! क्रमशः बेर, आँवला, आम और अनार का दर्प चूर्ण करते हुए अब आपके उरोज हाथी के बच्चे के मस्तक से टक्कर लेने को तैयार हो रहे हैं!"

दूसरे कवि और भी ऊँची छलाँग लगाते हैं!

जम्बीरश्रिय मतिलंध्य लीलयैव
व्यानमीकृत कमनीय हेमकुंभौ
नीलांभोरुह नयनेऽधुना कुचौ ते
स्पर्धेते किल कनकाचलेन सार्द्धम्

“हे बाले! आपके स्तन जंबीरी नीबू को परास्त कर, स्वर्ण कलश को पराजित करते हुए, अब कनकाचल पर्वत से होड़ कर रहे हैं।"

तीसरे कवि को इतने पर भी संतोष नहीं होता है, तो ऐसी उड़ान मारते हैं कि स्तन को आकाश पर पहुँचा देते हैं।

अर्थात्, "ब्रह्मा ने आकाश की सृष्टि की तो वह कुछ छोटा पड़ गया।

तब दुबारा आकाश गढ़ने के लिए जो उससे भी विशाल साँचा तैयार किया, वही आपका स्तनमंडल है।"

मैंने कहा-हद हो गयी। अब इससे बढ़कर और क्या हो सकता है ?

खट्टर काका बोले-अजी, एक कवि को भगवान् के दसों अवतार स्तन में ही नजर आते हैं।

कच्छप की कठोरता और मीन की चंचलता आदि उसमें आरोपित करते हुए कहते हैं -

भाति श्री रमणावतारदशकं बाले भवत्याः स्तने!

खट्टर काका बोले-अजी, अपने यहाँ के कवि तन से अधिक स्तन को महत्त्व देते हैं। संपूर्ण भूमंडल में उन्हें स्तनमंडल सूझता है। इसलिए पहाड़ को भूस्तन कहते हैं! सोकर उठते ही सर्वप्रथम पृथ्वी की वंदना करते हैं -

समुद्रमेखले देवि पर्वतस्तनमंडले
विष्णुपनि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे!

उन्हें पर्वतों में स्तन और समुद्र में मेखला (करधनी) सूझती है। पता नहीं, विष्णुपत्नी से वे कैसा रिश्ता जोड़े हुए हैं कि स्पर्श के लिए क्षमा चाहते हैं? कहाँ तो पृथ्वी माता! और उनका ऐसा वर्णन! अजी, यहाँ के एक शृंगारी कवि सहोदरा तक के कुच-वर्णन में नहीं हिचके हैं!

कुच-प्रत्यासत्या हृदय मपि ते चंडि कठिनम्!

ऐसी कुचासक्ति और कहाँ मिलेगी ? मैं परंतु अपने यहाँ भक्तिकाव्य भी तो कम नहीं है ?

खट्टर काका बोले-अजी, समझो तो शृंगार और भक्ति में चोली-दामन का रिश्ता है। सिर्फ रंग का फर्क है। एक शोख, दूसरा जोगिया। जिस तरह अंगूर सूखकर किशमिश बन जाता है, उसी तरह 'शृंगार' सूखकर भक्ति' बन जाता है। शृंगार ताजा अंगूर का रस है। भक्ति कूपीपक्व द्राक्षासव है।

शृंगारी कवि प्याले में भरते हैं, भक्त कवि गंगाजली में । शृंगार की वारुणी में एक तुलसी दल रख देते हैं, भक्ति बन जाती है।

इसीलिए लैला-मजनूँ का इश्क भट्टी की शराब और राधाकृष्ण का प्रेम मंदिर का चरणामृत माना जाता है!

यहाँ के कवि दो ही राग जानते हैं। युवावस्था में शृंगार की स्वच्छंद सरिता सरसाते हैं, वार्धक्य में वैराग्य की वैतरणी बहाते हैं। लेकिन उसमें भी उन्हें 'तारिणी' चाहिए! 'तरुणी' के बिना काम नहीं चल सकता। चोला छूटे, लेकिन चोली नहीं!

मैं - खट्टर काका, अपने यहाँ रसिकता बहुत अधिक है।

खट्टर काका बोले-इसीलिए शृंगार काव्य की अमराई में रसाल फलों की शोभा देखते ही बनती है! उन्हीं पर कवि-कोकिलों की कूक उठती आयी है! बगीचे की मेंड़ पर जो वैराग्य की बाड़ है, उसमें भी मेहँदी की भीनी-भीनी खुशबू है!

कुचौ मांसग्रंथी कनककलशौ इत्युपमितौ! विरक्त कवि कसम खाते हैं कि अब से कुचों को 'कनक-कलश' नहीं कहेंगे! “सत्तर चूहे खाकर बिल्ली चली हज को!"

मैंने पूछा-तो क्या भक्ति में भी शृंगार रस निहित है ?

खट्टर काका बोले-उसी तरह निहित है, जैसे सूखे नारियल के भीतर छलकता हुआ जल! शृंगारी कवि प्रेयसी की आराधना करते हैं, भक्त कवि श्रेयसी का।

एक भोग्या के रूप में, दूसरे, पूज्या के रूप में। एक नारी को देवी बना देते हैं, दूसरे, देवी को नारी बना देते हैं। देखो, गौरी का ध्यान किस प्रकार करते हैं।

मुखे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता
स्फुरत् कांची शाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरी नगपतिकिशोरीमविरतम्

“मुँह में पान, आँखों में काजल, ललाट में कुंकुम की बिंदी, गले में मोतियों की माला, स्थूल कटि प्रदेश में सुनहली रेशमी साड़ी। " ऐसी किशोरी के रूप में गौरी का ध्यान करते हैं। इतने पर भी मन नहीं भरता, तो और आगे जोड़ देते हैं -

विराजन्मंदार-द्रुम-कुसुम-हार स्तनतटी!

अर्थात्, “आपके स्तन मंदार (आक) के फूलों की माला से सुशोभित हो रहे हैं!"

और यह स्तोत्र है, भक्तराज शंकराचार्य द्वारा विरचित, जो आनंदलहरी के नाम से प्रसिद्ध है!

अजी, सभी भक्तों का यही हाल है। जिन देवी की स्तुति करने लगते हैं, उनका चरण पकड़ते-पकड़ते कटि और कुच पर पहुँच जाते हैं। देखो, त्रिपुर-सुंदरी की स्तुति कैसे की गयी है!

स्मरेत् प्रथम पुष्पिणीम्
रुधिर बिंदु नीलाम्बराम्
घनस्तन भरोन्नताम्
त्रिपुर सुंदरी माश्रये!

"प्रथम पुष्पिता होने के कारण जिनका वस्त्र रक्तरंजित हो गया है, वैसी पीनोन्नतस्तनी

त्रिपुर-सुंदरी का आश्रय मैं ग्रहण करता हूँ!"

आजन्म ब्रह्मचारिणी सरस्वती की भी वंदना करते हैं तो वीणा को उनके बायें स्तन पर टिका देते हैं!

वामकुचनिहित वीणाम्
वरदां संगीत मातृकां वंदे!

भगवती का भजन भी करेंगे तो

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते
जितकनकाचल मौलिपदोर्जित
निर्झर निर्जर कुंभ-कुचे!

अजी, बिना 'कुच' के ये लोग ध्यान ही नहीं कर सकते हैं! इन्हें कुंभ के समान कुच ध्यान करने के लिए चाहिए! अगर भक्ति ही करनी है, तो आनाभिपतितस्तनी का ध्यान क्यों नहीं करते ? इन्हें सुस्तनी चाहिए! वह लात भी मारे तो उसी की स्तुति करेंगे!

लंबकुचालिंगनतः लकुचकुचापादताडनं श्रेयः!

मैंने कहा-खट्टर काका, हो सकता है, निर्विकार भाव से ऐसे ध्यान किये गये हों! खट्टर काका बोले-तब देखो, कालतंत्र में काली का ध्यान कैसे किया गया है!

घोरदंष्ट्रा करालास्या पीनोन्नतपयोधरा
महाकालेन च समं विपरीतरतातुरा!

क्या यह 'विपरीत रति' भी निर्विकार भाव से है ?

मैं - आप तो ऐसा दृष्टांत दे देते हैं कि चुप ही रह जाना पड़ता है। किंतु भक्ति-मार्ग का तत्त्व सूक्ष्म होता है।

खट्टर काका - अजी, मुझे तो 'सूक्ष्म' के बदले 'स्थूल' ही नजर आता है। खूब हलुआ मोहनभोग खाकर शरीर की पुष्टि कीजिए और प्रेम से कीर्तन करते रहिए

गोपीपीनपयोधरमर्दनचंचलकरयुगशाली!

भक्तिमार्ग जैसा आनंद और कहाँ है ?

मैं-परंतु भजगोविन्दम् स्तोत्र में तो 'स्तन' की भर्त्सना की गयी है! खट्टर काका व्यंग्य के स्वर में बोले–हाँ, कहा गया है

नारीस्तनभर नाभिनिवेशम्
मिथ्या माया मोहावेशम्
एतन्मांसवसादि विकारम्
मनसि विचारय वारंवारंम्

भज गोविन्दं मूढमते!

लेकिन मैं तो इसका दूसरा ही अर्थ समझता हूँ। “नारी का स्तन मांस-चर्बी का पिंड मात्र है। माया के कारण उसी मुट्ठी भर मांस पर 'रोमांस' चलता है।

अतएव मन में बारंबार उस स्तन पर विचार करते रहो, दार्शनिक विश्लेषण का आनंद लेते रहो। और जो मूढ़मति हैं, वे गोविन्द को भजते रहें!" मैं-खट्टर काका, धन्य हैं! ऐसा अर्थ आज तक किसी को नहीं सूझा होगा!

खट्टर काका - जो केवल ‘गोविन्द' को भजते हैं, उन्हें थोड़े ही सूझेगा ? जो 'राधा-गोविन्द' को भजते हैं, वे समझ सकते हैं।

मैंने कहा - खट्टर काका, राधा-कृष्ण का प्रेम तो बहुत उच्च कोटि का है।

खट्टर काका बोले-इसमें क्या संदेह ? तभी तो राधा के भक्त उनसे ढीठ सहेलियों की तरह ठिठोलियाँ करते हैं! देखो, एक कवि क्या कहते हैं!

देहि मत्कंदुकं राधे परिधान निगूहितम्
इति विख्सयन् नीवीं तस्याः कृष्णो मुदेऽस्तु नः!

राधा के साथ कृष्ण की छीना-झपटी हो रही है कि छिपायी हुई गेंद दे दो!

युवती का पयोधर क्या हुआ, कवि लोगों का खिलौना हो गया! कोई गेंद बनाकर खेलता है, कोई बाट बनाकर तौलता है! देखो, एक कवि कहते हैं

नीतं नव नवनीतं कियदिति पृष्टो यशोदया कृष्णः
इयदिति गुरुजन-संसदि करधृत राधा-पयोधरः पातु!

यशोदाजी माखन चोर से पूछती हैं-“कितना मक्खन चुराया ?" वह राधा का पयोधर बताकर कहते हैं-“बस इतना-सा!" और यह काम गुरुजनों के सामने होता है! एक तीसरे भक्त और आगे बढ़ जाते हैं

राधे त्वमधिक धन्या हरिरपि धन्यो भवतारकोऽपि
मज्जति मदनसमुद्रे तव कुचकलशावलम्बनं कुरुते!

अर्थात्, “हे राधे! भगवान् दूसरों को तो भवसागर पार कराते हैं, परंतु जब वह स्वयं काम के समुद्र में डूबने लगते हैं, तब आपके कुच-कलशों को पकड़कर ही पार उतरते हैं।” पता नहीं, ये भक्त लोग स्वयं कैसे पार उतरते होंगे!

मैंने कहा-खट्टर काका, कवियों ने ऐसी बातें क्यों लिखी हैं ?

खट्टर काका बोले-अजी, कवि लोगों के मन में जितना गुबार भरा था, वह सब राधा के नाम पर निकाल दिया है।

और केवल राधा ही क्यों? कवियों को तो 'लाइसेंस' मिली हुई है। उनके लिए जैसी राधा, वैसी लक्ष्मी, वैसी पार्वती! देख लो, लक्ष्मीनारायण के एक भक्त किस प्रकार उनका ध्यान करते हैं!

कचकुचचिबुकाग्रे पाणिषु व्यापितेषु
प्रथम जलधि-पुत्री-संगमेऽनंगधाम्नि
ग्रथित निविडनीवी ग्रन्थिनिर्मोचनार्थ
चतुरधिक कराशः पातु न श्चक्रपाणिः!

“लक्ष्मी के साथ चतुर्भुज भगवान् का प्रथम संगम हो रहा है। उनके चारों हाथ फँसे हुए हैं। दो लक्ष्मी के स्तनों में, एक केश में, एक ठोढ़ी में।" अब नीवी (साड़ी की गाँठ)होते खोलें तो कैसे ?

इस काम के लिए 'ऐडिशनल हैंड' (अतिरिक्त हाथ) चाहनेवाले विष्णु भगवान् हम लोगों की रक्षा करें!

मैंने कहा-ऐसे भक्तों से भगवान् ही रक्षा करें।

खट्टर काका बोले-भगवान् तो भक्तों से हारे ही रहते हैं। देखो, एक दूसरे भक्त कहाँ तक पहुँच जाते हैं!

पद्मायाः स्तनहेमसमनि मणिश्रेणी समाकर्षके
किंचित् कंचुक-संधि-सन्निधिगते शौरेः करे तस्करे
सद्यो जागृहि जागृहीति बलयध्यानै धुवं गर्जता
कामेन प्रतिबोधिताः प्रहरिकाः रोमांकुराः पान्तु नः!

अर्थात्, “लक्ष्मी की कंचुकी में भगवान् का हाथ घुस रहा है। यह देखकर कामदेव अपने प्रहरियों को जगा रहे हैं—'उठो, उठो, घर में चोर घुस रहा है। ' प्रहरीगण जागकर खड़े हो गये हैं। वे ही खड़े रोमांकुर हम लोगों की रक्षा करें!"

क्षुब्ध हुए कहा-हद हो गई, खट्टर काका! शिव-पार्वती के भक्त कभी ऐसा नहीं कह सकते हैं।

खट्टर काका बोले-तब सुन लो । पार्वती के भक्त लक्ष्मी के भक्तों से एक डग पीछे रहनेवाले नहीं हैं! साधारण लोग चरणों में प्रणाम करते हैं। पार्वती के एक भक्त उनके स्तनों में ही प्रणाम अर्पित करते हैं!

गिरिजायाः स्तनौ वंदे भवभूति सिताननौ
तपस्वी कां गतोऽवस्थामिति स्मेराननाविव

दूसरे भक्त उनके दोनों उन्मुक्त स्तनों की जयजयकार मनाते हैं!

अंक निलीनगजानन शंकाकुल बाहुलेयहृतवसनौ
सस्मितहरकरकलितौ हिमगिरितनयास्तनौ जयतः!

तीसरे भक्तराज पार्वती से क्या कहते हैं सो देखो

हरक्रोध ज्वालावलिभिरवलीढेन वपुषा
गभीरे ते नाभीसरसि कृतझम्पो मतसिजः
समुत्तस्थौ तस्मादचलतनये धूमलतिका
जनस्तां जानीते तव जननि रोमावलि रिति!

अर्थात्, “हे जननी! महादेव की क्रोध-ज्वाला में जलता हुआ कामदेव आपकी नाभि की गहराई में कूद पड़ा। उससे जो धुआँ निकला, वही आपकी रोमावली है!"

मैंने कान पर हाथ रखते हुए कहा-शिव शिव! 'जननी' संबोधन करते हुए रोमावली का वर्णन! मुझे तो रोमांच हो रहा है।

खट्टर काका बोले-तुम इतना ही सुनकर घबरा गये ? शंकराचार्य “भगवती भुजंग स्तोत्र' में भवानी की नाभि, नीवी और नितंब का वर्णन करते हुए रोमावली का भजन करते हैं।

सुशोणाम्बराबद्धनीवीं विराजन महारत्नकांची कलापं नितम्बम्
स्फुरदक्षिणावर्तं नाभिं च तिस्रोवली रम्य ते रोमराजिं भजेऽहम् !

मैं - खट्टर काका, आप तो ऐसा उदाहरण दे देते हैं कि कुछ जवाब ही नहीं सूझता।

खट्टर काका बोले-अजी, इस भूमि के कण-कण में रसिकता व्याप्त है। रोमावली के वर्णन में यहाँ जितनी उत्प्रेक्षाएँ की गयी हैं, उतनी संसार-भर के साहित्य में नहीं मिलेंगी। देखो, एक कवि कहते हैं ।

लिखतः कामदेवस्य शासनं यौवनश्रियः
गलितेव मसीधारा रोमाली नाभि-गोलकात्!

अर्थात्, “कामदेव युवती की नाभि में रोशनाई रखकर यौवन का पट्टा लिख रहे थे, उस वक्त जो रोशनाई गिरकर नीचे फैल गयी, वही रोमावली बन गयी!" दूसरे साहब को वहाँ चींटियाँ नजर आती हैं!

पयोधरस्तावदयं समुन्नतो
रसस्य वृष्टिः सविधे भविष्यति
अतः समुद्गच्छति नाभिरंध्रतो
विसारि रोमालि पिपीलिकावलिः!

अर्थात्, ‘ऊपर पयोधर से वर्षा होगी,' ऐसा जानकर नाभि रूपी विवर से काली-काली चीटियों की कतारें चल पड़ी हैं! तीसरे हजरत और दूर की कौड़ी लाते हैं

तन्वंग्याः गजकुंभपीनकठिनोत्तुंगौ वहन्त्या स्तनौ
मध्यः क्षामतरोऽपि यन्न झटिति प्राप्नोति भंग द्विधा
तन्मन्ये निपुणेन रोमलतिकोझेदापदेशादसौ
निःस्पन्दस्फुट लोहशृंखलिकया संधानितो वेधसा!

अर्थात्, “पीन पयोधरों के भार से कोमलांगी नायिका का क्षीण कटि-प्रदेश बीच से टूटकर दो खंड नहीं हो जाय, इसलिए निपुण विधाता ने अपने हाथ से कमर में लोहे की श्रृंखला पहना दी है, वही रोमावली है! चौथे भक्त को वहाँ तीर्थ-राज प्रयाग के दर्शन हो जाते हैं!

उत्तुंगस्तन पर्वतादवतरद् गंगेव हारावली
रोमाली नवनील नीरजरुचिः सेयं कलिंदात्मजा
जातं तीर्थमिदं सुपुण्यजनकं यत्रानयोः संगमः
चंद्रो मज्जति लांछनापहृतये नूनं नखांकच्छलात

अर्थात्, “स्तन-प्रदेश से जो हार लटक रहा है, वह हिमालय पर्वत से निकली हुई गंगा है। नीचे की रोमावली यमुना की धारा है। दोनों का संगम तीर्थराज है!"

अब पाँचवें सवार का कमाल देखो। उन्हें रोमावली में तर्पण के तिल दृष्टिगोचर होते हैं!

गौर मुग्ध वनितावरांगके
रेजुरुत्थिततनूरुहांकुराः
तर्पणस्य मदनस्य वेधसा
स्वर्णशक्तिनिहितास्तिला इव!

अर्थात्, “गोरी मुग्धा नायिका के वरांग में ये काले-काले रोमांकुर क्या हैं, विधाता ने कामदेव का तर्पण करने के लिए काले-काले तिल छींट दिये हैं!"

अजी, 'रोम' के वर्णन में यहाँ जितनी बुद्धि लगायी गयी है, उतनी 'व्योम' में लगायी जाती, तो हम लोग भी ‘सोम ग्रह' पर पहुँच गये होते। परंतु हम लोग तो 'लोम' के जंगल में उलझे रह गये! यहाँ के कवि हार और मेखला के बीच लटके रह गये! कुचविहार से कटिहार तक उनकी दौड़ रही। कंचनजंघा में सारी शक्ति चुक गयी। 'विपरीत रति' का ऐसा खुला वर्णन और किसी साहित्य में मिलेगा ?

स्तनौ नितम्बौ परिदोलयन्ती
वेगैः श्वसन्ती समदं हसन्ती
पुंवत् रमन्ती समरे जयन्ती
पुण्येन लभ्या हि मधु क्षरन्ती!

कामिनी के पुरुषायित रस को वे महान् पुण्य का प्रसाद समझकर ग्रहण करते हैं! मैंने पूछा-खट्टर काका, यहाँ के कवियों में ऐसी रसिकता कैसे आ गयी ?

खट्टर काका बोले-अजी, केवल कवियों का दोष नहीं है। वे लोग दरबारी थे और रसिक राजाओं की फरमाइश पूरी करते थे। एक सुभाषित हैं -

अर्थो गिरामपिहितः पिहितश्च कश्चित्
सौभाग्यमेति मरहट्ट वधूकुचाभः
नांध्रीपयोधर इवातितरां निगूढः
नो गुर्जरीस्तन इवातितरां प्रकाशः!

“काव्य का अर्थ महाराष्ट्र-वधू के कुच की तरह अर्द्धव्यंजित रहना चाहिए। उसे न तो आंध्रबाला के पयोधर की तरह बिल्कुल गुप्त रहना चाहिए, न गुर्जर युवती के स्तन की तरह बिलकुल प्रकट।" परंतु यहाँ के शृंगारी कवियों ने कविता-कामिनी की कंचुकी कौन कहे, साया तक उतार लिया है! क्योंकि वे सामंतों का साया पकड़े हुए थे। इसलिए उन्हें खुश करने के लिए ‘सीमंतिनी के 'नखशिख' वर्णन को ‘सीमांत' पर पहुँचा दिया!

तब तक हवा के झोंके में कई लाल-पीले आम चू पड़े। खट्टर काका बोले-अच्छा भाई, काव्य का रस बहुत हो चुका। अब आम का रसास्वादन करो।

मैंने कहा - खट्टर काका, मैं अभी जामुन खाकर आ रहा हूँ।

खट्टर काका बोले-अजी, फलसम्राट् आम के आगे जामुन की क्या बिसात ? देखो, एक कवि ने उत्प्रेक्षा का कैसा सुंदर चमत्कार दिखलाया है!

त्रपाश्यामा जंबूः स्फुटितहृदयं दाडिमफलम्
समाधत्ते शूलं हृदयपरितापं च पनसः
भयादन्तस्तोयं तरुशिखरजं लांगलिफलम्
समुद्भूते चूते जगति फलराजे प्रभवति!

"आम को देखकर जामुन का चेहरा स्याह पड़ गया, अनार की छाती फट गयी, कटहल के हृदय में शूल

पैठ गया, नारियल के पेट में पानी भर गया!" मैंने कहा-खट्टर काका, आपको देखकर भी तो बहुतों की यही हालत हो जाती है।

पंडित पनाह माँगते हैं, ज्योतिषी जल-भुन जाते हैं, तांत्रिक तिलमिला उठते हैं, वैदिक विक्षुब्ध हो जाते हैं, कर्मकांडी कतराते हैं, पुरोहित तिरोहित हो जाते हैं।

खट्टर. काका मुस्कुराते बोले-अरे! अब तुम भी काव्य करने लगे!

मैंने कहा-इतने दिनों से आपका चेला हूँ, तो इतना भी नहीं हो ? अच्छा, खट्टर काका, नयी कविता के संबंध में आपकी क्या राय है।

खट्टर काका बोले-अब कविता रही कहाँ ? अकविता हो गयी! सर्वहारा युग ने उसके अलंकार छीन लिये! 'सीत्कार' की जगह चीत्कार रह गया! पहले की कविता पीनपयोधरा होती थी, अब पिन-पयोधरा होती है। केलिकामिनी की तरह मिनी पर आ रही है।

मिनी कविता का एक नमूना देखो उसने टी मुझे दी मैंने पी ही ही ही।

अगली पीढ़ी में शायद केवल अंतिम चरण रह जायगा-ही ही ही! मैंने कहा-खट्टर काका, आजकल तो प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का युग है। खट्टर काका बोले-हाँ। एक नमूना देखो।

चाँद साला बुर्जुआ है!
चाँदी के टुकड़े कै कर रहा है!
वही आसमान के तारे हैं!

जब ऐसे-ऐसे बहादुर दादुर टर्रा रहे हैं, तो इस असमय में रसमय कोकिल की कूक कैसे सुनाई पड़ेगी? पहले की कविता-कामिनी मधुच्छंदा अलंकारमयी नायिका की तरह रसवर्षिणी होती थी।

आज की कविताएँ सर्कस की छोकरियों की तरह हवा में उछलती हुई कलाबाजियाँ दिखा रही हैं। उनमें प्रकृत रस खोजना वैसा ही है, जैसे प्लैंस्टिक निर्मित स्तनों में दूध खोजना! अब 'कमल' प्रभृति उपमानों का अपमान हो रहा है। 'कैक्टस' जैसे नये प्रतीकों का बाजार गर्म है।

आजकल के कवि और बनियाँ दोनों एक से हो गये हैं! दोनों अर्थ को छिपाकर रखते हैं! दोनों के भाव दिनानुदिन आसमान छू रहे हैं! अश्लील पदों की श्लीपद-वृद्धि हो रही है! रुपये की तरह चंद्रमा का अवमूल्यन हो गया।

वह 'मामा' से 'साला' बन रहा है। अतियथार्थवादी कविता में मोती से अधिक घोंघे का और स्तन से ऊपर घेघे का स्थान है! आजकल वायुविकार के कारण जो शब्द निकल जाते हैं, वे भी 'अकविता' के नाम से 'आर्ट पेपर' पर छप जाते हैं।

ऐसे ही अकवियों का इलाज बतलाते हुए किसी आलोचक ने राय दी है कि “कोठरी बंद कर गौ का घृत सेवन करो, जिससे वायु का शमन हो!"

काव्यं करोषि किमु ते सुहृदो न सन्ति
ये त्वामुदीर्णपवनं न निवारयन्ति
गव्यं घृतं पिब निवात गृहं प्रविश्य
वाताधिका हि पुरुषाः कवयो भवन्ति!

यहाँ कपयो भवंति पाठांतर भी किया जा सकता है! मैं - खट्टर काका, कविता कैसी होनी चाहिए ? खट्टर काका बोले -

सरसा सालंकारा सुपदन्यासा सुवर्णमयमूर्तिः
यमकश्लेषानन्दैः आर्या भार्या वशीकुरुते

कविता या कामिनी, वही वशीभूत करती है, जो रसमयी, अलंकृता, कोमल पद-विन्यास वाली, सुंदर वर्णवाली, और यमक-श्लेष (पक्षांतर में, घनालिंगन) द्वारा आनंद प्रदान करनेवाली होती है ।

तया कवितया किं वा तया वनितया च किम्
माधुर्यरसदानेन यया नाप्लावितं मनः!

वह कविता क्या और वह वनिता क्या, जो माधुर्य में मन को आप्लावित नहीं कर दे! वह सद्यःप्रीतिकरी होती है। जैसे यह मधुकुपिया आम।

खट्टर काका एक गमकता हुआ पका आम उठाकर मेरे हाथ में देते हुए बोले-अहा! देखो, इसमें क्या रस है, क्या सौरभ है, क्या मिठास है! कविता ऐसी ही होनी चाहिए।