युग - लहरी

खट्टर कका के तरंग लेखक : हरिमोहन झा

सावन की श्यामल घटाएँ उमड़ रही थीं।

खट्टर काका सितार पर मलार की धुन बजा रहे थे।

मुझे देखकर बोले-आओ, आओ, कहाँ चले हो ?

मैंने कहा - 'भारतीय संस्कृति' पर एक प्रवचन हो रहा है। उसी में जा रहा हूँ।

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक मुस्कान के साथ बोले-अजी, संस्कृत को अंग्रेजी खा गयी, संवत् को ईसवी खा गयी, मंदिर को क्लब खा गया, धर्मशाला को होटल खा गया, रामलीला को सिनेमा खा गया, हाथी को मोटर खा गयी, घोड़े को साइकिल खा गयी, सेर को '

किलो' खा गया, मन को 'क्विटल' खा गया, गुरुकुल को 'कनवेंट' खा गया, पंडित को साहब

खा गया, पंडितानी को मेम खा गयी, पिता को 'पापा' खा गया, माता को 'मम्मी' खा गयी, भोज को पार्टी खा गयी, प्रणाम को 'टा टा' खा गया और तुम अभी तक भारतीय संस्कृति का नाम जप रहे हो?

आज सभ्यता की टंकार ‘टकार' पर चलती है-'टोस्ट, टी. टेरेलिन, ट्रैजिस्टर, टौपलेस और टा टा!

मैंने कहा-खट्टर काका, यह तो औरों की नकल हुई।

खट्टर काका-अजी, हर एक युग में ऐसा ही होता आया है। पंडित लोग जो 'मिर्जई' पहनते हैं, वह क्या वैदिक युग की वस्तु है? मुसलमानी अमलदारी में मिर्जा लोग पहनते थे। तंबाकू अमेरिका की चीज है।

लेकिन हम लोगों ने तमाल पत्रं परमं पवित्रम् कहकर उसे आत्मसात् कर लिया है। भविष्यपुराण में तो 'तमाखु-सेवन' पर श्लोक भी जोड़ दिया गया है! इसी तरह आज की ‘संकर' मकई भी कल 'शंकर' के नाम से जुड़ जायगी। सभ्यता वर्णसंकरी होती है। उसमें शुद्ध 'शंकरा' नहीं, संकर राग चलता है।

मैं - तब अपनी मूल संस्कृति कैसे अक्षुण्ण रखी जा सकती है ?

खट्टर काका बोले - अजी, संस्कृति क्या पिटारी में बंद कर, रखने की चीज है? 'संसार' का अर्थ ही है ‘संसृति' अर्थात् आगे सरकना ।

समय पीछे की ओर नहीं मुड़ता। गंगासागर का जल फिर गोमुखी में नहीं लौटता। आज हम बैलगाड़ी से 'हेलिकोप्टर' पर पहुँच गये हैं। अब 'मिल' की जगह चरखा नहीं चल सकेगा!

'घड़ी' की 'घड़ा' (प्राचीन घटीयंत्र) नहीं चलेगा। क्या तुम फिर से घुटनों पर चलना पसंद करोगे ?

मैं - परंतु अपना पुरातन आचार....

खट्टर काका - अजी, नया आचार नये अँचार की तरह ज्यादा चटपटा लगता है। कलमी सभ्यता बीजू से ज्यादा मीठी होती है। “तीन कनौजिया, तेरह पाक” का जमाना लद गया। अब डेढ़ चावल की खिचड़ी नहीं पकेगी।

बड़ा समाजवादी हंडा चढ़ेगा। पुरानी पगड़ियाँ, लँहगे-दुपट्टे, चुनरी-चोलियाँ, इस पछिया आँधी में उड़ जायँगी। छोटे-छोटे दिये बुझ जायेंगे। उनकी जगह बड़ा-सा कृत्रिम चाँद पृथ्वी पर चमकेगा।

मैं - फिर भी इस धर्मप्राण देश में...

ख. - अब ‘धर्मप्राण' नहीं, ‘धर्म-निरपेक्ष' कहो । मठ-मंदिरों में कल-कारखाने खुलेंगे। यज्ञ की जगह चिमनियों के धुएँ उड़ेंगे। सेतु-बाँध से भाखरा नंगल का बाँध बड़ा तीर्थ माना जायगा। ईश्वर केवल शपथ खाने के लिए रह जायेंगे!

मैं - लेकिन हमारे नैतिक सिद्धांत तो बहुत ऊँचे हैं ?

ख.- हाँ । सिद्धांत तो बहुत उच्च हैं। वसुधैव कुटुम्बकम्! लेकिन जब सिद्धांत पर बात आती है, तो कुटुम्ब में कुटम्मस शुरू हो जाती है। जन-सामान्य में समान वितरण' तो नहीं होता; विशिष्ट जनों में सामान वितरण हो जाते हैं। वितरण के नाम पर वित्त-रण होने लगते हैं। अभी सत्याग्रह के स्थान में सत्ताग्रह चल रहा है।

जो छक्का-पंजा जानते हैं, वे ही सत्ता हथिया रहे हैं। लिंग, वचन और क्रिया के सम्यक् प्रयोग केवल व्याकरण ही में सीमित रह गये हैं। कारि-वि चला गया। उसके स्थान में निर्वाचन का

अधिकार आ गया। आज जो अधिकार की गद्दी पर बैठते हैं, उन्हें अधिकतर धिक्कार ही प्राप्त होते हैं!

मैं - खट्टर काका, जनतंत्र के विषय में आपका क्या मत है ?

खट्टर काका बोले-अजी, जिस तंत्र में एक विद्वान से दो मूों का मत अधिक मूल्यवान माना जाय, उसे मूर्ख ही पसंद कर सकते हैं, क्योंकि उन्हीं की संख्या अधिक है। बहुमत वाले मतवाले बन जाते हैं और गुणी-जन गौण पड़ जाते हैं। वैशेषिक का सूत्र है-द्रव्याश्रितो गुणः। अर्थात् गुण द्रव्य पर आश्रित रहता है।

यही बात समाज पर भी लागू है। क्योंकि गुणी व्यक्ति भी धनियों और बनियों पर आश्रित रहते हैं। इसलिए जनतंत्र वस्तुतः धनतंत्र बनकर रह जाता है। सुजनतंत्र नहीं होकर स्वजनतंत्र हो जाता है। कहीं-कहीं श्वजनतंत्र भी!

मैं - फिर भी लोकतंत्र...

ख. - लोकतंत्र क्यों कहते हो ? थोकतंत्र कहो। पर्दे की ओट में नोट की बदौलत वोट की लड़ाइयाँ जीती जाती हैं। कभी-कभी लाठी की चोट पर भी। इसलिए ठोकतंत्र भी कह सकते हो।

मैं - परंतु यह प्रजातंत्र....

ख. - प्रजातंत्र मुट्ठी भर लोगों के लिए मजातंत्र है, शेष के लिए सजातंत्र । भाषण की अधिकता है, राशन की कमी । जब शासन कुशासन की तरह चुभता रहे, तब अनुशासन कैसे रहेगा? रामराज या ग्रामराज के बदले बढ़ता हुआ दामराज चल रहा है। सस्ती के साथ मस्ती गयी। अब इस महँगाई में बहार कैसे गायी जायगी? कभी-कभी चीनी के अभाव में 'गौडीय' संप्रदाय की शरण लेनी पड़ती है। अभी वल्लभाचार्य भी रहते तो अपना मधुराष्टक भूल जाते। क्योंकि चौराधिपतेरखिल मधुरम्! जंगली

युग थी-“जिसकी लाठी, उसकी भैंस" आधुनिक समाज का नारा है-"जो जोते, उसकी जमीन!" यदि कहीं इसी दिशा में और अधिक प्रगति हुई तो जो पालकी ढोएँगे, उन्हीं की दुलहन हो जायगी! भूदान के समान भार्यादान का अभियान भी शुरू हो जायगा! भूमिपतियों की तरह पतियों की हालत भी नाजुक हो जायगी!

मैंने कहा-खट्टर काका, अभी आजादी हुई ही के दिन की है ?

खट्टर काका हँस पड़े। बोले-अब वह बच्ची नहीं; चौबीस साल की युवती है। लेकिन ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, 'बंदियों' की संख्या में वृद्धि होती जाती है।

'चकबंदी', 'हदबंदी', 'नसबंदी', 'नशाबंदी', 'दलबंदी', 'कामबंदी'! मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की! हम अपनी बुद्धि को दोष नहीं देकर, परिस्थिति को दोष देते हैं!

निंदति कंचुकि मेव प्रायः शुष्कस्तनी नारी!

मैंने कहा-खट्टर काका, अभी जीविका की समस्या जटिल है।

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले-किसी ने ऊँट से कहा, "तुम्हारी गर्दन टेढ़ी है।" ऊँट ने जवाब दिया, "मेरा कौन-सा अंग सीधा नजर आता है ?" अजी, अभी कौन-सी समस्या की कहावत टेढ़ी नहीं है ?

पहले समस्या गढ़कर पूर्ति की जाती थी। अब आपूर्ति ही एक समस्या बन गयी है । 'समाधान' कोष ही में रह गया है। इस समय सिद्धार्थ भी रहते तो 'द्वादश-निदान' क्या, 'अष्टादश निदान' से भी कोई अर्थ सिद्ध नहीं होता।

मैं - परंतु इतनी योजनाएँ जो बन रही हैं ?

ख. - जितनी योजनाएँ बनती हैं, सुविधाएँ उतने ही योजन दूर चली जाती हैं! विकास पदाधिकारी अपना विकास कर रहे हैं। उत्पादन' का शब्द मात्र सुनाई पड़ता है। ‘लाइफ' को ‘फाइल' खा गयी! कर-भार से जनता की कमर टूट रही है।

केवल सुंदरियों के रूप - या

यौवन पर टैक्स लगना बाकी है। मूल्यवृद्धि, शुल्कवृद्धि, करवृद्धि से जनता की जो कष्टवृद्धि हो रही है, उसे देखनेवाला कोई नहीं। फिर भी सरकार आत्म-प्रशंसा का ढोल पीट रही है।

निजयौवनमुग्धायाः स्वहस्तकुचमर्दनम् ।

मैं - लेकिन यह सब देखने के लिए तो बड़े-बड़े सरकारी अफसर तैनात हैं ?

खट्टर काका बोले-अजी, अफसर लोग अजगर होते हैं। देखते नहीं हो, कितनी समानता है! दोनों चार वर्णों के, मात्राहीन।

दोनों स्वरादि हैं, अर्थात् आदि में फुफकार का स्वर छोड़ते हैं! रकारांत हैं, अर्थात् अंत में रगड़ मारते हैं! दोनों भारी-भरकम, आलसी, आरामतलब।

दोनों कुंडली मारकर बैठे रहते हैं, मुँह बाये हुए, शिकार की ताक में। जो दायरे के अंदर आया, सो पेट में गया!

मैं तभी तो हड़ताल' और 'घेराव' होने लगे हैं। क्या प्राचीन युग में भी यह सब होता था ?

ख.-पहले कभी विशेष परिस्थिति में हट्टताल होता था। अर्थात् हाट में ताला लग जाता था। अब तो हड़ताल को हरताल ही समझो। कब किस समय किस बात पर 'हर' का तांडव-ताल प्रारंभ हो जायगा, उसका ठिकाना नहीं। मर्यादाओं पर हरताल फिर रही है।

द्वापर में एक बार गोपियों ने रथ के चारों ओर लेटकर 'अक्रूर' का घेराव किया था। अब तो क्रूर से क्रूर हाकिम भी घेराव में पड़कर सभी भाव-विभाव और अनुभाव भूल जाते हैं।

मैंने पूछा - खट्टर काका, पहले के लोग ज्यादा मौज से रहते थे ?

खट्टर काका बोले-अजी, आराम के साधन आज जितने उपलब्ध हैं, उतने कभी नहीं थे। यदि रामचन्द्रजी के समय में स्टीमर चलती होती, तो लंका पहुँचने के लिए उतना भगीरथ-प्रयास क्यों करना पड़ता? यदि पृथ्वीराज के समय में स्कूटर रहती, तो संयुक्ता को घोड़े की पीठ पर चढ़ाकर क्यों भगाते ?

अगर मलकाओं के जमाने में मोटर का मजा रहता, तो वे पालकी गाड़ी में बैठकर क्यों चलती ? वे कठपुतली का नाच-भर देखकर रह गयीं; सिनेमा नहीं देख सकीं। यदि उन दिनों आइसक्रीम की मशीन रहती तो नूरजहाँ की खातिर गुलमर्ग से दिल्ली तक ऊँटों का काफिला बर्फ लादकर क्यों चलता ?

वाजिद अली शाह जैसे ऐयाश नवाब जिंदगी में एक रसगुल्ला नहीं चख सके, क्योंकि तब तक ईजाद ही नहीं हुआ था। पहले खाजा ही राजा था और बालूशाही की बादशाही थी!

आज एक मेहतरानी भी रेल में चढ़ती और रेडियो सुनती है, जो उन दिनों की महारानी को मुअस्सर नहीं था। आज की व्योम-विहारिणी जिस शान से बे-गम होकर उड़ती है, उस तरह आसमान में उड़ना किस बेगम को नसीब हुआ ?

मैंने पूछा-खट्टर काका, इतने सुख-साधनों के बावजूद भी आज लोग दुखी क्यों हैं ?

ख.-क्योंकि, राजा सगर की संतानों से भी अधिक संतान-सागर लहरा रहा है । जैसे-जैसे जनसंख्या में वृद्धि होती जाती है, उसी अनुपात में हृदय की कमी होती जाती है। पहले लोग भर पेट' खिलाते थे, अब 'प्लेट भर' खिलाते हैं।

पहले डब्बू से घी परोसा जाता था, अब चम्मच से दही परोसा जाता है! पहले कहा जाता था ।

विना गोरसं को रसो भोजनानाम्! "बिना गोरस (दूध, दही, घी) के भोजन क्या?" अब बड़े-बड़े होटलों में भी इसका अर्थ बदल गया है।

विना गोरसं 'कोरसो' भोजनानाम्! यानी, गोरस के अभाव में अब भोजन-काल में कोरस (समवेत संगीत) चलता है! तभी तो इस डालडा युग में एक मील' (खाना) पचाने के लिए दो मील चलना पड़ता है!

मैं - खट्टर काका, पहले के लोग विशाल हृदय होते थे।

ख.-तभी तो इतने बड़े दालान बनवाते थे कि सैकड़ों बाराती ठहर सकें। अब तो माशूक की कमर की तरह कमरे का घेरा भी तंग होता जा रहा है। उसमें सविस्तर मेहमान कैसे समायँगे? समझो तो परिवार-नियंत्रण से ज्यादा अतिथि-नियंत्रण ही चल रहा है।

इस युग को दावत' से जैसे 'अदावत' हो गयी! शादी में भी नाशादी हाथ लगती है।

उपहार लेकर जाइए, उपाहार लेकर आइए! पता नहीं, किस अभागे ने यह उपसर्ग जोड़ दिया! पति-पत्नी के प्रसंग में, और आहार-विहार के प्रकरण में, कहीं 'उप' लगे! यह 'उप' देखकर चुप रह जाना पड़ता है!

खट्टर काका नस लेते बोले-अजी, विशालता लुप्त हो रही है। कविता ही के क्षेत्र में देखो। पहले ऐसे महाकाव्य बनते थे जो पुश्त-दर-पुश्त चलते थे। अब की कविता जुगनू की तरह चमककर घुप अँधेरे में विलीन हो जाती है।

बड़ी से छोटी की ज्यादा कद्र होती है। कंचुकी और इलायची की तरह। बड़ी घड़ी दीवाल में लटकी रहती है, छोटी कलाई पकड़े रहती है।

यही बात प्रेमिका पर भी लागू होती है। यह 'अणु' युग है। महत्' का महत्त्व गया। पहले 'आजीवन' प्रेम चलता या, अब 'आयौवन' प्रेम चलता है। अब तो प्यार सट्टा बाजार का सौदा हो गया!

मैं - खट्टर काका, अपनी संस्कृति तेजी से बदल रही है ।

खट्टर काका बोले - अजी, संस्कृति का अर्थ ही बदल गया है। सांस्कृतिक कार्य के मानी हो गये हैं नाच! सुसंस्कृत वेशभूषा का अर्थ नर्तकी की पोशाक! जो संसार की कुल-ललनाएँ कर रही हैं, वही अपने यहाँ की कुल-ललनाएँ भी करने लगी हैं।

अब कन्याएँ बाबा को 'बॉल' और चाचा को 'चा चा चा' डांस दिखा रही हैं। कोहबर की बहुएँ 'कोब्रागर्ल' बनकर 'केबरे' की करामात दिखला रही हैं। पहले की नारी रानी बनती थी, अब उलटकर नीरा बन रही हैं ।

रूपवती लूपवती हो रही है। स्तनंधया से स्तनधन्या होना चाहती है। जो मधुश्रावणी व्रत रखती थी, वह स्वयं मधुस्राविणी बन रही है। जो नागपंचमी पूजा करती थी, वह स्वयं नागिन बन रही है। जो विषहरा को पूजती थी, वह स्वयं विषकन्या बन रही है।

मैं - खट्टर काका, ऐसा परिवर्तन कैसे हो गया ?

ख.- कालभैरवी सबको नचा रही है। काल-भेद से ताल बदलते रहते हैं। कभी-कभी नाच फिर उसी विंदु पर आ जाता है। देखो, आज अजंता, एलोरा की मूर्तियाँ सजीव होकर नगरों में विचरण कर रही हैं। जो नारी शताब्दियों से अवगुंठित थी, अब वह अकुंठित होकर सब ओर से खुल रही है!

नग्नोदरी नग्नपृष्ठा नग्नवक्षःस्थला तथा
अर्धोन्मुक्तस्तनद्वार युग्मसंधि निदर्शना

नवीन युग-संधि का उद्घाटन इसी 'युग्म-संधि' के अनावरण से हो रहा है। जीवन दर्शन' 'यौवनदर्शन' में परिणत हो गया है। 'अभार-प्रदर्शन' से अधिक ‘उभार-प्रदर्शन' ही शिष्टाचार का अंग बन गया है। आज की कुछ मुक्ताएँ उदारता के उस विंदु पर पहुँच गयी हैं, कि दो मुट्टी मांस छोड़कर शेष को बंधनमुक्त कर रही हैं। आधुनिक वीरांगनाएँ घाटियों के बीच में ले जाकर गला काटती हैं!

मेरे मुँह पर विस्मय का भाव देखकर खट्टर काका हँसते हुए बोले-घबराओ मत। मेरा मतलब कंचुकी से है। झाँकी-दर्शन के लिए उसका गला काटा जाता है। वह 'लो कट' क्या, जो ‘लोकेट' के नीचे नहीं चला जाय! इस युग की ललनाएँ उदार-हृदया बनकर पुरुषों को जीतने में बाजी मार रही हैं। जो सुंदरी अपनी खुली पीठ नहीं दिखाती, वह मानो रण में पीठ दिखाती है। नाभि-कूप को सार्वजनिक रस-पान के लिए उन्मुक्त कर दिया जाता है। ये नाभि-दर्शनाएँ नवयुग की अग्रदूतिका हैं।

मुझे मुँह ताकते हुए देखकर खट्टर काका बोले-देखो, आधुनिक महर्षि हैं मार्क्स और फ्रायड! एक संस्कृति को उदर-केंद्रित मानते हैं। दूसरे उस केंद्र को कुछ और नीचे ले जाते हैं। दोनों के बीच मध्यविंदु है नाभि। वह अर्थ और काम का संधि-स्थल है। इसलिए मैं नाभि-दर्शनाओं को प्रतीकात्मक रूप में देखता हूँ।

मैंने कहा - खट्टर काका, आजकल फैशन का युग है।

खट्टर काका बोले-अजी, 'फैशन' और 'पैशन' किस युग में नहीं होते? सिर्फ उनकी अदाएँ बदलती रहती हैं। आज नवयुग का सेहरा आधुनिकाओं के सर पर है, इसलिए वे उन्नतमस्तक होकर शान से चलती हैं मुमताजमहल ताज लगाती थी। आज की मुमताजें ताज की जगह सर पर ताजमहल खड़ा कर लेती हैं। अब कुच-कुंभ की तरह कच-कुंभ की उपमा भी चल जायगी। उनके दर्शन से भक्तों को कुंभ-स्नान का फल मिल जाएगा!

मैं - खट्टर काका, पहले के प्रेम में और आज के प्रेम में क्या फर्क है ?

खट्टर काका - पहले का प्रेम कोयले के ताव की तरह देर से सुलगता था, देर तक ठहरता था। आज का 'प्यार' गैस की तरह भक्-से धधक उठता है और फक्-से बुझ जाता है। आधुनिक संस्कृति क्षणवादिनी है। वह सेकंडों पर चलती है। 'पुश बटन' (बटन दबा दो) का जमाना है। पहले का प्रेम चरम कोटि का होता था, अब चर्म कोटि का है। आज के रोमियो कोरा रोमांस नहीं चाहते; वे रोम-मांस चाहते हैं। इसलिए कृत्रिम प्रसाधनों की बाढ़ आ गयी है।

नायलन के बाल और रबड़ के कुच-नितंब लगाये जाते हैं। वे यौवन को बैसाखियों पर टेके रहते है। नवयौवन उलटने पर भी नवयौवन बना रहता है। असली पर नकली हावी हो रहा है। पदम सुंदरी से अधिक छद्म-सुंदरी का बोलबाला है। वेदांत का सर्वं मिथ्या समझो तो इसी युग में सबसे अधिक चरितार्थ हो रहा है। केवल बहिरंग देखकर सत्य का ज्ञान नहीं हो सकता। इसीलिए सौंदर्य-प्रतियोगिता के अखाड़े में नागिनें कंचुकी को केंचुल की तरह उतार फेंकती हैं। जिनके विंदु परीक्षा में सर्वोच्च होते हैं, उनको विश्व सुंदरी का मुकुट पहना दिया जाता है।

मैंने कहा-खट्टर काका, अपनी संस्कृति का मूलमंत्र था आत्म-संयम।

खट्टर काका बोले-संयम-नियम तो अब यमलोक का टिकट कटा रहे हैं। आज के मनःशास्त्री कहते हैं कि आत्म-दमन बेवकूफी है; उससे व्यक्तित्व कुंठित होता है। इसलिए अब इंद्रिय-निरोध के बदले गर्भ-निरोध चल रहा है। पहले पुत्रजन्म पर ढोल पीटते थे, अब सर पीटते हैं। जन्म-निरोध का महाल पहले मोक्षवादियों के जिम्मे था।

अब सरकार ने यह पोर्टफोलियो छीनकर अपने हाथ में ले लिया है। पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि गर्भ-निवासः का स्रोत ही बंद हो रहा है। न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी!

खट्टर काका मुस्कुरा उठे । बोले-इस 'बेसरी-पेसरी' के युग में अब 'नर-केसरी' कैसे पैदा होंगे ?

मैंने पूछा - खट्टर काका, यह सब परिवर्तन कैसे हो गया ?

खट्टर काका बोले-अजी, कविता की तरह संस्कृति की भी दो वृत्तियाँ होती हैं, परुषा और कोमला।

अभी कोमला वृत्ति है । कोमलांगिनी षोडशियों की षोडशोपचार पूजा हो रही है। युग-युग की वंदिनी आज युग द्वारा वंदिता हो रही है।

यत्र नायेस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः जो जितने बड़े शहर हैं, उनमें उतने ही अधिक देवता रमण करते हैं!

नानारूपधरा देव्यः विचरन्ति महीतले!

महानगरियों की नागरियाँ रस-रंग की गगरियाँ छलकाती चलती हैं। उनमें अनेक स्वाधीनपतिका हैं। यदि आज शृंगारी कवि होते, तो नायिका-भेद के अंतर्गत बहुत-सी नवीन नायिकाओं का समावेश कर देते । परकीया की तरह पार्कीया (पार्कों में घूमनेवाली)! अभिसारिका की तरह सह-सारिका (साथ चहकनेवाली मैना)! वासकसज्जा की तरह आपण-सज्जा (सुसज्जित विक्रय बाला)! स्वयंदूतिका की तरह स्वयंघोतिका (अपने को

झलझल प्रकाशित करनेवाली)! विप्रलब्धा की तरह क्षिप्रलब्धा (तुरत सेवा में हाजिर हो जानेवाली)! स्वयंवरा की तरह स्वयंभरा (अपना भरण-पोषण करनेवाली)! प्रोषितपतिका की तरह पोषितपतिका (पति को पोसनेवाली)! पहले पति पत्नी की माँग भरते थे, अब पलियाँ कमाकर पति की माँग पूरती हैं।

पहले पत्नी पति की पद-पूजा (चरण-पूजा) करती थी, अब पति पत्नी की पद-पूजा (पदवी की पूजा) करने लगे हैं। पहले अप्सराएँ नाचती थीं, अब वे अफसराएँ बनकर औरों को नचाती हैं।

मैं-खट्टर काका, महिलाओं की इतनी प्रगति तो कभी नहीं हुई थी?

ख.-इसमें क्या संदेह ? न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति का फतवा देनेवाले भारत-भाग्य-विधाता यदि आज जीवित रहते तो देश की भाग्य-विधायिकाओं के आगे घुटने टेक देते। आज की वीणा-पुस्तक-धारिणी सरस्वतियों को देखकर कुचभरतांतां नमामि शिवकान्ताम् पाठ करने लग जाते!

यदि प्राचीन काल के रसिक कवि इस युग में पदार्पण करते तो पद-पद पर युग-देवियों के पद पर प्रशस्ति की पदावली अर्पित करते चलते! अफसरा की स्तुति करते

उच्चासने ! उच्चपदे ! उच्चयौवनगर्विते !
उच्चाधिकार संयुक्ते ! उच्चमस्ते ! नमोस्तुते !

'नर्स' को देखकर कहते

शुभ्रवस्त्रा महाश्वेता बाला मुकुट-मंडिता
नाडी-स्पर्शकरी नारी धन्येयं परिचारिका!

'लेडी डाक्टर' को देखकर वर्णन करते ग्रीवालंबित हृदयंत्र मालान्चित पयोधरा
उरः परीक्षिका देवी सद्यःप्राणप्रदायिका!

एन.सी.सी. की बंदूक-धारिणी वीरांगनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर देते!

'पैंट' बूट युता' प्रौढा 'कोटवस्त्र'स्तनोन्नता
'हंटर'-धारिणी हस्ते हस्तिनी 'मर्द'मर्दिनी!

आज की ब्रह्मवादिनी गार्गियों से हार मानते -

दीक्षिका ब्रह्मविद्यायां योगाभ्यास निरीक्षिका
आसनशिक्षिका बाला ब्रह्मचर्यपरीक्षिका!

'एयर होस्टेस' (विमान-बाला) और 'रिसेशनिस्ट गर्ल' (स्वागत-बाला) की अदाओं पर फिदा होकर कहते

सत्कारनिपुणा बाला रंजितोष्ठी स्मितानना
चित्रिताम्बरसंयुक्ता मधुपात्रप्रदायिका!

आधुनिक विषकन्याओं की मोहिनी माया पर मुग्ध होकर मरने लगते!

गायिका रंगमंचेषु मधुशालासु पायिका
नायिका प्रीतिगोष्ठीनां प्रवासे सुख-शायिका

नृत्ये सहचरी बाला कृत्ये गुप्तचरी तथा सर्वस्वहारिका बाला मारिका सुकुमारिका!

मैंने कहा-सिनेमा की अभिनेत्रियों को देखकर तो वे लोग और भी चकित हो जाते!

खट्टर काका बोले-इसमें क्या संदेह? पूरा सिनेमा-स्तोत्र ही बना देते। मेरे एक भजनानंदी मित्र गाते हैं -

सत्ययुग में रंभा और उर्वशी तिलोत्तमा जो
देवताओं को भी दिव्य रूप से लुभाती है
त्रेता में मेनका शकुंतलादि रूपों में भी जो
मुनियों को मोहती,सम्राटों को रिझाती है
द्वापर में राधा आदि गोपियों के रूप धर
उँगली के इशारे भगवान् को नचाती है
शक्ति वही नित्य नव नूतन वेष धारण कर

कलियुग में चित्रपट की तारिका कहाती है!

अब तो चित्र-तारिका ही भव-तारिका की तरह पूजी जाती है। दुर्गा से दुर्गा खोटे, गीता से गीतावाली और इंद्राणी से इंद्राणी रहमान की ज्यादा चर्चा होती है। नूतन साधना को छोड़कर कोई प्राचीन साधना के पथ पर जाना नहीं चाहता। अब तो हर एक चित्त-पट पर चित्रपट अंकित है। कबीरदास भी रहते, तो अपना दोहा यों बदल देते -

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित हुआ न कोय
ढाई अक्षर फिल्म का पढ़े सो पंडित होय!

संस्कृत के स्तोत्रकार रहते तो नवीन देवी-स्तुति पाठ करते!

वैजयंती च माला च वनमाला च मल्लिका
मधुबाला सुबाला च प्रीतिबाला तथैव च
राजश्रीश्च जयश्रीश्च पद्मश्रीः नर्गिसस्तथा
वहीदा च फरीदा च सईदा च जुबेदका
लीला प्रमीला शर्मीला शालिनी मालिनी तथा
रेहाना सुलताना च शाहिदा जाहिदा तथा
कविता सविता चैव बबिता ललिता लता
गीता रीता च सुप्रीता नंदिता च निवेदिता
सुप्रिया च सुरेखा च सुचित्रा च सुलोचना
श्यामा शशिकला शांता शेफाली शोभना शुभा
पद्मिनी प्रतिमा पद्मा पूर्णिमा च प्रियंवदा
मीना नीना सकीना च निम्मी सिम्मी तथैव च
अनेकनामरूपास्तु तारिकाः भव-तारिकाः
तासां स्मरणमात्रेण स्वर्गानंदः प्रजायते

इदं स्तोत्रं महापुण्यं पठ्यते भक्तिपूर्वकम्
रसोद्गमो भवेत् तत्र वर्षन्ति मधुविंदवः!

मैंने कहा-खट्टर काका, सचमुच मधुवर्षा हो गयी।

खट्टर काका बोले–महामाया नाना प्रकार के मोहक रूप धारण कर नृत्य कर रही हैं। कहीं अभिनेत्री बनकर अदाएँ दिखाती हैं, कहीं राजनेत्री बनकर । कहीं मार्गनेत्री बनकर, कहीं मृगनेत्री बनकर । कहीं योगमाया बनकर, कहीं भोगमाया बनकर । वह रस की चाशनी चखा रही है। पुरुष चींटों की तरह उसमें चिपके हुए हैं। वह ऐसा पिलाती है कि जिलाती भी है, मारती भी है!

न जाने संसारः किममृतयमः किं विषमयः!

मैंने कहा - खट्टर काका, कुछ लोगों का कहना है कि पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से स्वेच्छाचार बढ़ रहा है।

खट्टर काका बोले-यह सब बकवास है। अहल्या कौन मेम थी? कब लंडन गयी थी? किस 'नाइट क्लब' में रही थी ?

मगर (वाल्मीकीय रामायण में) देखो, किस तरह ठसक के साथ इंद्र से कहती है

कृतार्थास्मि सुरश्रेष्ठ गच्छ शीघ्रमितः प्रभो
आत्मानं मां च देवेश सर्वथा रक्ष गौतमात्!

“हे देवराज! मैं कृतार्थ हो गयी। अब जल्द यहाँ से चले जाइए, जिससे गौतम को कुछ पता नहीं चले और हम दोनों बच जायँ!" इंद्र भी धन्यवाद देते हुए कहते हैं -

सुश्रोणि परितुष्टोऽस्मि गमिष्यामि यथाऽगतः

"हे सुंदरी! मैं भी पूर्ण संतुष्ट हूँ। जैसे आया हूँ, वैसे ही जा रहा हूँ।" यह ‘डायलाग' (वार्तालाप) आज के हीरो-हीरोइन' (नायक-नायिका) का नहीं, हजारों

पुराना है। जब 'हीरो' के परदादों के परदादे भी पैदा नहीं हुए थे! पर अत्याधुनिक सोसाइटी में भी इससे बढ़कर और हो ही क्या सकता है? अहल्यावाद, कुंतीवाद और पांचालीवाद अनादि काल से चले आ रहे हैं। इन्हें इस युग की देन समझना भूल है। ‘सती-प्रथा' बंद हो गयी, इसका अर्थ यह नहीं, कि सती की परंपरा लुप्त हो गयी! सावित्रियाँ आज भी हैं, कमी सत्यवानों की है। आज की पत्नी पहले की पतिव्रता से अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वह 'सहधर्मिणी' ही नहीं, 'सहकर्मिणी' भी होती है। वह सच्चे अर्थ में 'अर्धांगिनी' बनकर ‘अर्धांग-पीड़ित' समाज को पूर्णांग बना रही है। वह अनुचरी से सहचरी बन गयी है। पैर दबानेवाली नहीं, हाथ बटानेवाली हो गयी है। वह पति की सखी, सचिव, शिष्या ही नहीं, अब गुरुआनी भी बन रही है। उसकी योग्यता देखकर गार्गी का गर्व खर्व हो जाता, मैत्रेयी का मान अंतर्धान हो जाता।

मैंने कहा-खट्टर काका, तब आप आधुनिक देवियों के हार्दिक प्रशंसक हैं? खट्टर काका बोले-अवश्य।

एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवांकः!

चंद्रमा की तरह चंद्रमुखियों के दोष भी उनके सुंदर गुणों में छिप जाते हैं। यदि आज कालिदास रहते तो अपनी कूची में नया रंग भरते । शकुंतला 'कोर्ट' में खड़ी होकर बहस करती। मुआवजा लेकर रहती। या पिस्तौल लेकर दुष्यंत को मजा चखा देती। विरहिणी यक्षिणी हेलिकॉप्टर से उड़कर यक्ष के पास पहुँच जाती।अथवा ‘फोन' से 'फ्लाइंग किस' (हवाई चुंबन) भेजती।

पर्वत-कन्या एक आसन से अविचल बैठकर वर्षा की बूंदों को पयोधरोत्सेघनिपात चूर्णिताः बहीं बनाती। वह पर्वतारोहण में पी.एच.डी. कर लेती। सभी मुनि-कन्याएँ कॉलेज-कन्याएँ बन जातीं।

वे बल्कल-वसना से छल-छल-वसना जातीं और तपोवनी जूड़ा बनाकर कमंडलाकार ‘पर्स' हाथ में लेकर चलतीं। आखिर ये आधुनिकाएँ भी तो उन्हीं चपला चकिता चंचलाक्षिणी वनकन्याओं के नवीनतम संस्करण हैं! मैं मुक्तकंठ से स्वच्छंद मुक्तकों में इन स्वच्छंद मुक्ताओं की वंदना करता हूँ! खट्टर काका आनंद-मग्न होकर झूमते हुए सितार पर गाने लगे

हे क्रान्तिकारिके।
हे युगसुधारिके!
उन्मुक्तसारिके!
स्वच्छंदचारिके!

सबलां सफलां स्वावलम्बिनीम्
प्रणयरतां परिणय - विलम्बिनीम
काव्य - नाट्य - संगीत - मोदिनीम्
क्रीड़ा-कौतुक - रस - विनोदिनीम
स्तूपाकृति कचपाश धारिणीम
रंजिताधरां चमत्कारिणीम्
पारदर्शि - परिधान - दर्शिनीम
चंचलांचलां मनःकर्षिणीम्
प्रकटित यौवन - कोर - शोभिनीम्
सौरभ - लोलुप मधुप - लोभिनीम्
अगणित रसिक-समाज - हर्षिणीम्
मधुगंधां मधुकलश - वर्षिणीम्

वंदे त्वां हे युग-कुमारिके!
आदिशक्ति नवरूप-धारिके!
चिर छलनामयि मनोहारिके!
वंदे त्वां मायावतारिके!