पुराण की चाशनी

खट्टर कका के तरंग लेखक : हरिमोहन झा

खट्टर काका दूधिया भंग के गुलाबी नशे में मस्त थे।

मैंने कहा-खट्टर काका, ब्रह्मस्थान पर भागवत हो रहा है। खट्टर काका बोले-तब महा अनर्थ हो रहा है। मैं सो कैसे ?

खट्टर काका - अजी, रासलीला और चीरहरण की कथाएँ सुनकर गाँव की बहू-बेटियाँ बहक जायेंगी। यहाँ यमुना नहीं है, इससे क्या ?

कमला नदी का कछार तो है!

मैं - खट्टर काका, आप तो हँसी करते हैं। ख.-नहीं जी, सच कहता हूँ।

ता वार्यमाणाः पितृमिः पतिभि तृभिस्तथा
कृष्णं गोपांगनाः रात्रौ रमयन्ति रतिप्रियाः
(ब्रह्मवैवर्त)

“घर में बाप, भाई, स्वामी मना करते ही रह जाते हैं और युवतियाँ उन्मत्त होकर रास रचाने को बाहर चली जाती हैं! कहो, यह कोई अच्छी बात हुई?"

मैं - परंतु कुछ विद्वानों का मत है कि चीरहरण और रासलीला का आध्यात्मिक तात्पर्य है ।

खट्टर काका बोले - मुझे बहलाओ मत। ये बाल धूप में नहीं पके हैं। मैं अठारहों पुराण देख चुका

अभी भी ब्रह्मवैवर्त पुराण सामने रखा है। मैं इसमें तो केवल ब्रह्म की चर्चा होगी ?

खट्टर काका बोले - हड़बड़ी तो नहीं है ? तब बैठ जाओ। चीर-हरण का वर्णन देखो। युवतियाँ यमुना जल में नंगी खड़ी होकर स्नान कर रही हैं। उनके वस्त्र घाट पर रखे हुए हैं। उन्हें लेकर कृष्ण कदंब वृक्ष पर चढ़ जाते हैं। ऊपर से कहते हैं

भो भो गोपालिकाः नग्नाः इदानीं कि करिष्यथ? "ऐ नग्नाओ! अब तुम लोग क्या करोगी ?" तब राधा सखियों को आज्ञा देती है कि चलो, इस रसिया को पकड़कर बाँधो । बस,

सर्वाः राधाज्ञया पूर्ण समुत्थाय जलात् क्रुधा
प्रजग्मुर्गोपिकाः नग्नाः योनिमाच्छाद्य पाणिना

सभी युवतियाँ हाथ से अपने गुप्तांग ढककर उन्हें पकड़ने चलती हैं। परंतु वृंदावन-विहारी तो इस फौज का सामना करने को तैयार ही थे। बोले -

युष्माकमीश्वरी राधा किं करिष्यति मेऽधुना ?

“तुम लोगों की लीडरानी राधा मेरा क्या कर लेती हैं, सो देखता हूँ!" यह सुनते ही राधा हँस पड़ती है और उनका क्रोध काम में परिणत हो जाता है।

श्रुत्वा जहास सा राधा बभूव कामपीडिता! और उसके बाद तो

नग्नाः क्रीडाभिरासक्ताः श्रीकृष्णार्पितमानसाः!

नायक-नायिकाओं की इच्छा पूरी होती है। और कथा सुननेवाली बालाओं की इच्छा भी पूर्ण हो, इसके लिए पुराणकर्ता आशीर्वाद देते हैं कि -

भक्त्या कुमारी स्तोत्रं च शृणुयात् वत्सरं यदि
श्रीकृष्णसदृशं कान्तं गुणवन्तं लभेत् ध्रुवम्!

अर्थात्, “कुमारियाँ साल-भर भक्तिपूर्वक यह स्तोत्र सुनें तो निश्चय ही कोई वैसा ही रसिया उन्हें मिल जायगा।" क्या अब भी तुम्हें शंका है ?

मैं-खट्टर काका, रासलीला का कुछ गूढ़ तात्पर्य होगा। खट्टर काका ने कहा-तब वह भी सुन लो!

पुनः प्रजग्मुस्ताः मत्ताः सुन्दरं रासमंडलम्
पूर्णेन्दुचन्द्रिकायुक्तं रतियोग्यं सुनिर्जनम्
काश्चिदूचुः हरे कृष्ण स्वक्रोडेऽस्मांश्च कुर्विति
गृहीत्वा श्रीहरेः स्कंध मारुरोह च कांचन
काचिज्जग्राह मुरली बलादाकृष्य माधवम्
जहार पीतवसनं कृत्वा नग्नं च कामिनी
उवाच काचित् प्रेम्णा तं गंडयोः स्तनयोर्मम
नाना-चित्र-विचित्राभ्यां कुरु पत्रावली मिति! (ब्रह्मवैवर्त)

“पूर्णिमा की रात, यमुना का तट, एकांत स्थान, युवतियाँ निस्संकोच केलि कर रही हैं। कोई मुरलीधर की मुरली छीन लेती है, कोई पीतांबर खोल देती है, कोई गोद में बैठ जाती है, कोई कूदकर कंधे पर चढ़ जाती है, कोई कहती है कि, गाल में दाँत काटो', कोई कहती है, ‘नखक्षत करो'।"...क्या अब भी तुम्हारा संदेह दूर हुआ या नहीं ? मुझे चुप देखकर खट्टर काका बोले-तो लो, और सुनो।

काचित् कामातुरा कृष्णं बलादाकृष्य कौतुकात्
हस्ताद्वंशीं निजग्राह वसनं च चकर्ष ह
काचित् कामप्रमत्ता च नग्नं कृत्वा तु माधवम्
निजग्राह पीतवस्त्रं परिहास्य पुनर्ददौ
चुचुम्ब गंडे बिम्बोष्ठे समाश्लिष्य पुनः पुनः
सस्मितं सकटाक्षं च मुखचन्द्रं स्तनोन्नतम्
कांचित् कांचित् समाकृष्य नग्नां कृत्वा तु कामतः
काचिच्छ्रोणिं सुललितां दर्शयामास कामतः! (ब्रह्मवैवर्त)

मैं-खट्टर काका, जरा अर्थ समझाकर कहिए। खट्टर काका-अजी, क्या कहूँ? युवतियाँ कामोन्मत्ता होकर लज्जा त्याग देती हैं।

कोई उनको नग्न कर अपनी ओर खींच लेती है, कोई गाल और होंठ चूमती है, कोई अपनी छाती में सटा लेती है, कोई अपनी सखी को नंगी कर उन पर ठेल देती है, कोई स्वयं समर्पिता हो जाती है। सामूहिक संभोग-क्रीड़ा होती है। अजी, मुझे तो लगता है कि इसी रास-चक्र' से 'भैरवी-चक्र' की उत्पत्ति हुई होगी।

मैं-खट्टर काका, आप तो अद्भुत ही कहते हैं! कृष्ण तो योगीश्वर थे। खट्टर काका बोले-तब देखो कि योगीश्वर कैसे भोगीश्वर थे!

कृष्णः कररुहाघातं ददौ तासां कुचोपरि श्रोणीदेशे सुकठिने नखचित्रं चकार ह आलिंगनं नवविधं चुम्बनाष्टविधं मुदा

शृंगारं षोडशविधं चकार रसिकेश्वरः! अब इससे अधिक क्या होता है? मैंने कहा-खट्टर काका, वह प्रेम शारीरिक नहीं था। खट्टर काका बोले-तुम वैसे नहीं समझोगे। तब खोलकर सुनो।

जगाम राधया सार्धे रसिको रतिमन्दिरम्
सुष्वाप राधया सार्धं रतितल्पे मनोहरे
कृष्णो राधां समाकृष्य वासयामास वक्षसि
श्रोणीदेशे च स्तनयो नखच्छिद्रं चकार ह!
(ब्रह्मवैवर्त)

मैंने कहा-परंतु भगवान् कृष्ण तो उस समय बालक थे। वह कामक्रीड़ा नहीं, बालक्रीड़ा रही होगी।

खट्टर काका बिगड़कर बोले-मूर्खस्य नास्त्यौषधम्! एक बार तीन मूर्खराज ससुराल गये। एक जब एकांत शयनागार में नववधू की शय्या पर गये तो

नीवि-मोचनकाले हि वस्त्रमूल्य-विवेचनम् !

अनावरण के समय ही वस्त्राभूषण का दाम जोड़ने लग गये। हिसाब जोड़ते-जोड़ते रात खतम हो गयी! दूसरे साहब की बीबी गले में मौलसिरी की माला पहने हुए थी, सो नोंक-झोंक में गयी। वह सुई-डोरा लेकर रात-भर माला ही गाँथते रह गये! तीसरे हजरत को खाट कुछ ढीली मालूम पड़ी। वह रस्सियाँ खोलकर खाट बुनने लग गये और जब चारपाई तैयार हुई तब तक सुबह हो चुकी थी! ये तीनों दिग्गज थे-मल्याचार्य! मालाचार्य! खट्वाचार्य! तुमको क्या कहा जाय? बाल-क्रीड़ाचार्य ?

मैंने कहा-खट्टर काका, कुछ पुराणाचार्यों का मत है कि उस समय कृष्ण केवल नौ वर्ष के थे।

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले-हाँ । वह राधा की गोद में खेलते थे! तुम्हीं गेंद खरीद कर दे आये थे! मेरा गुस्सा मत बढ़ाओ।

मुझे चुप देखकर खट्टर काका जोश में आकर कहने लगे-तुम्हारा भ्रम दूर करना

जरूरी है। तब और देखो। स्थलक्रीड़ा के बाद कैसे जलक्रीड़ा होती है!

स्थले रतिरसं कृत्वा जगाम यमुनाजलम्
वस्त्रं जग्राह तस्याश्च सा न नग्ना बभूव ह
तां च नग्नां समाश्लिष्य निममज्ज जले हरिः
सा वेगेन समुत्थाय बलाज्जग्राह माधवम्
उत्थाय माधवः शीघ्रं तां गृहीत्वा प्रहस्य च
कृत्वा वक्षसि नग्नां च चुचुम्ब च पुनः पुनः!
(ब्रह्मवैवर्त)

अजी, ऐसा उन्मुक्त विहार होता है और फिर भी तुम्हें लगता है कि वह ‘भोग' नहीं, 'योग है!' हाय रे बुद्धि!

मैंने कहा-परंतु भगवान् कृष्ण तो 'अच्युत' थे ?

खट्टर काका डाँटते हुए बोले-'अच्युत' थे, तो फिर प्रद्युम्न का जन्म कैसे हो गया? अहीर बुझावे सो मर्द! इतना समझा गया, फिर भी ‘परंतु' लगा रहे हो! तब कान खोल कर सुन लो।

माधवो राधया सार्द्धमन्तर्धानं चकार ह
अतीव निर्जने स्थाने भृशं रेमे तया सह
विलुप्तवेशां कामार्ती नग्नां शिथिल-कुन्तलाम्
गंडयोः स्तनयोश्चित्रं चकार मधुसूदनः
एवं रेमे कौतुकेन कामात् त्रिंशत् दिवानिशि
तथापि मानसं पूर्ण न किंचित् तु बभूव ह! (ब्रह्मवैवर्त)

लगातार तीस दिन तीस रात तक रमण होता रहा, फिर भी दोनों का मन नहीं भरा। वह दृश्य देखने के लिए आकाश में देवी-देवताओं का मेला लग गया! देवगण विस्मय-विमुग्ध हो गये। देवियाँ सौतिया डाह से जलने लगीं। पुराणकार उस पर टिप्पणी करते हैं

न कामिनीनां कामश्च शृंगारेण निवर्त्तते
अधिकं वर्द्धते शश्वत् यथाग्निघृतधारया

"जैसे घी की धारा से अग्नि की ज्वाला शांत नहीं होती है, उसी तरह संभोग से कामिनी की कभी तृप्ति नहीं होती है।" ...अब भी तुम्हारा भ्रम दूर हुआ कि नहीं? मैंने क्षुब्ध

होते हुए कहा-खट्टर काका, पुराण-कर्ता ने राधा-कृष्ण का ऐसा नग्न चित्रण क्यों किया है ?

खट्टर काका बोले-ऐसा नहीं करते तो श्रोताओं को रस कैसे मिलता? कथावाचक को पैसे कैसे मिलते? कामिनी पर ही तो कंचन बरसता है। इसलिए देवी-देवताओं के नाम पर खुलकर संभोग का वर्णन किया गया है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, किसी को नहीं छोड़ा गया है।

मैंने पूछा-तो क्या शिव-पार्वती का भी ऐसा ही वर्णन किया गया है ?

खट्टर काका बोले-जैसे 'श्री कृष्णजन्मखंड' में राधा की दुर्दशा की गयी है, उसी तरह 'गणपतिखंड' में पार्वती की। देखो,

तां गृहीत्वा महादेवो जगाम निर्जनं वनम्
शय्यां रतिकरी कृत्वा पुष्पचंदन-चर्चिताम्
स रेमे नर्मदा-तीरे पुष्पोद्याने तया सह
सहस्रवर्ष-पर्यन्तं देवमानेन नारद!
तयोर्बभूव शृंगारं विपरीतरतादिकम्
रतौ रतश्च निश्चेष्टो न योगी विरराम ह!
(ब्रह्मवैवर्त)

सहस्र वर्षों तक लगातार शिव-पार्वती का संभोग होता रहा, फिर भी शिवजी स्खलित नहीं हुए। तब विष्णु भगवान् को चिंता हुई और उन्होंने ब्रह्मा को आदेश दिया -

येनोपायेन तद्वीर्यं भूमौ पतति निश्चितम्
तत् कुरुष्व प्रयलेन सार्द्ध देवगणेन च

“आप फौरन देवताओं के साथ जाइए और ऐसा उपाय कीजिए कि शिवजी की धातु भूमि पर स्खलित हो जाय । तब इंद्र, सूर्य, चंद्र, पवन आदि देवता वहाँ जाकर शिवजी की स्तुति करने लगे, जिससे शिवजी की रति-समाधि भंग हो गयी।"

विजहौ सुख-संभोगं कंठलग्नां च पार्वतीम्
उत्तिष्ठतो महेशस्य त्रस्तस्य लज्जितस्य च
भूमौ पपात तद्वीर्यं ततः स्कंदो बभूव ह!

“शिवजी ने लज्जित होकर पार्वती को छोड़ दिया और जैसे ही उठने लगे कि भूमि पर स्खलन हो गया। उसी से कार्तिकेय का जन्म हुआ।" देवतागण पार्वती के भय से भागे। तथापि पार्वती ने शाप दे ही दियाअद्य प्रभृति ते देवा व्यर्थवीर्या भवन्तु

वै! (“आज से देवताओं का वीर्य व्यर्थ हो जाय!') मैंने पूछा-पार्वती ने शाप क्यों दिया ?

खट्टर काका बोले-केवल 'वात्स्यायन भाष्य' पढ़ने से काम नहीं चलेगा। वात्स्यायनसूत्र भी पढ़ो। देखो, पार्वती स्वयं ही यह रहस्य अपने मुँह से खोलकर महादेव को कहती हैं

रतिभंगो दुःखमेकं द्वितीयं वीर्यपातनम्
रतिभंगेन यद् दुःखं तत्समं नास्ति च स्त्रियाः
(ब्रह्मवैवर्त)

अर्थात्, “यदि संभोग-क्रिया के बीच में ही बाधा पड़ जाय अथवा पुरुष अन्यत्र स्खलित हो जाय तो स्त्री के लिए इससे बढ़कर दूसरा दुःख नहीं हो सकता।"

तब महादेवजी बहुत प्रकार से उन्हें मनाते हैं और दूसरे संभोग की रचना होती है। परंतु

रेतः पतनकाले च स विष्णुर्निजमायया
विधाय विप्ररूपं तु आजगाम रतेगृहम्

(ब्रह्मवैवर्त) जहाँ फिर स्खलित होने का समय आया कि विष्णु भगवान् विप्र का रूप धारण कर पहुँच गये और बोले कि “मैं सात शाम का भूखा हूँ, पारण कराओ।" यह सुनकर पार्वती झट उठकर खड़ी हो गयीं और

पपात वीर्यं शय्यायां न योनौ प्रकृतेस्तदा! (ब्रह्मवैवर्त)

जो धातु शय्या पर गिर पड़ी, उसी से गणेशजी का जन्म हुआ!

खट्टर काका मुझे स्तंभित देखकर मुस्कुराते हुए बोले-इस कथा में एक और गूढ़ तात्पर्य है। अगर संभोग के समय भी भूखा ब्राह्मण आ जाय तो चटपट उठकर पहले भोजन कराना चाहिए, तब और कुछ! धन्य थे ये पेटू देवता!

मैंने कहा-खट्टर काका, पुराण में कैसी-कैसी बातें हैं!

खट्टर काका बोले-अजी, बातें तो ऐसी-ऐसी हैं, जैसे पीकर लिखी गयी हों! बेचारे ब्रह्मा की तो और भी अधिक दुर्गति की गयी है!

मैं-ऐं! ब्रह्मवैवर्त में ब्रह्मा की दुर्दशा ?

खट्टर काका बोले-तब वह भी सुन लो। एक बार मोहिनी ने यौवन मद से मत्त होकर ब्रह्मा से संभोग की याचना की। वृद्ध ब्रह्मा अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए बोले कि किसी रसिक युवा को पकड़ो। बार-बार उकसाने पर भी ब्रह्मा तैयार नहीं हो सके। तब मोहिनी ने उन्हें धिक्कारा कि

इंगितेनैव नारीणां सद्यो मत्तं भवेन्मनः करोत्याकृष्य संभोगं यः स एवोत्तमो विभो ज्ञात्वा स्फुटमभिप्रायं नार्या संप्रेषितो हि यः पश्चात् करोति संभोगं पुरुषः स च मध्यमः पुनः पुनः प्रेरितस्य स्त्रिया कामार्त्तया च यः तया न लिप्तो रहसि स क्लीवो न पुमानहो!

(ब्रह्मवैवर्त) अर्थात्, “उत्तम पुरुष वह है जो बिना कहे ही, नारी की इच्छा जान, उसे खींचकर संभोग कर ले । मध्यम पुरुष वह है जो नारी के कहने पर संभोग करे । और; जो बार-बार कामातुरा नारी के उकसाने पर भी संभोग नहीं करे, वह पुरुष नहीं, नपुंसक है!"

परंतु इतना कहने पर भी ब्रह्मा को उत्तेजना नहीं हुई । तब मोहिनी ने क्रोध से उन्मत्त होकर शाप दिया

अये ब्रह्मन् जगन्नाथ वेदकर्ता त्वमेव च
स्वकन्यायां स्पृहासक्तः कथं हससि नर्तकीम्
दासीतुल्यां विनीतां च दैवेन शरणागताम्
यतो हससि गर्वेण ततोऽपूज्यो भवाऽचिरम्!
(ब्रह्मवैवर्त)

अर्थात्, “हे ब्रह्मा! अपनी कन्या के साथ तो विचार ही नहीं रहा और आप हमारे सामने धर्मात्मा बन रहे हैं! जाइए, आप अपूज्य हो गये।" अब ब्रह्मा के चारों मुँह मलिन हो गए। दौड़े विष्णुलोक गये। वहाँ भगवान् भी उन्हें ही डाँटने लगे

यदि कामवती दैवात् कामिनी समुपस्थिता
स्वयं रहसि कामार्त्ता न सा त्याज्या जितेन्द्रियैः
ध्रुवं भवेत् सोऽपराधी तस्या अद्यावमानतः
(ब्रह्मवैवर्त)

“यदि संयोगवश कोई कामातुरा एकांत में आकर स्वयं उपस्थित हो जाये तो उसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जो कामार्त्ता स्त्री का ऐसा अपमान करता है, वह निश्चय ही अपराधी है।" लक्ष्मी भी ब्रह्मा पर बरस पड़ीं

ब्रह्मा कथं न जग्राह वेश्यां स्वयमुपस्थिताम्
उपस्थिताया स्त्यागे च महान् दोषो हि योषितः

(ब्रह्मवैवर्त)

“जब वेश्या ने स्वयं मुँह खोलकर संभोग की याचना की, तब ब्रह्मा ने क्यों नहीं उसकी इच्छा पूरी की? यह नारी का महान् अपमान हुआ।" बस, चट ब्रह्मा को शाप दे बैठी

तव मंत्रं न गृह्णन्ति केऽपि वेश्याभिशापतः
त्वदन्य-देव-पूजायां तव पूजा भविष्यति ।

जाओ, अब वेश्या के शाप से तुम अपूज्य हो गये। कोई तुम्हारा मंत्र नहीं लेगा। मैंने क्षुब्ध

होते हुए कहा-वृद्ध प्रजापति की ऐसी फजीहत! खट्टर काका बोले-अजी, बेचारे की इससे भी अधिक छीछालेदर की गयी है। स्वयं अपनी कन्या के साथ लांछन लगाया गया है!

तां संभोक्तुं मनश्चक्रे सा दुद्राव भिया सती!

नारियाँ ब्रह्मा को धिक्कारती हैं

त्वं स्वयं वेदकर्ता च कन्यां संभोक्तुमिच्छसि
अस्माकं दूरतो दूरं गच्छ कामार्त्तमानस!

बेचारे ब्रह्मा ग्लानिवश आत्महत्या करने को प्रस्तुत हो जाते हैं।

ब्रह्मा शरीरं संत्यक्तुंब्रीडया च समुद्यतः! मैंने कहा-खट्टर काका, ब्रह्मवैवर्त पुराण में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की यह दुर्दशा! हद हो गयी! खट्टर काका बोले-ब्रह्मपुराण में भी तो ब्रह्मा की वैसी ही दुर्दशा की गयी है! देखो

तामदर्शमहं तत्र होमं कुर्वन् हरान्तिके
दृष्टेऽगुष्ठे दुष्टबुद्धया वीर्यं सुस्राव मे तदा
लज्जया कलुषीभूतः स्कन्नं वीर्यमचूर्णयम्
मद्वीर्यात् चूर्णितात् सूक्ष्मात् बाल्यखिल्यास्तुजज्ञिरे!

सारांश यह कि एक बार ब्रह्मा महादेव के साथ होम कर रहे थे। उसी समय गौरी पर दृष्टि पड़ जाने से वह स्खलित हो गये। ब्रह्मा ने लज्जित होकर निःसृत धातु को चुटकी से मसल दिया। उसी से बाल्यखिल्य मुनि का जन्म हुआ।

मैंने कहा-खट्टर काका, ऐसी अश्लील बातें पुराणों में कैसे आ गयीं? ये प्रक्षिप्त मालूम होती हैं।

खट्टर काका बोले-प्रक्षिप्त हों, या विक्षिप्त । लिखनेवालों ने देवताओं की मिट्टी पलीद कर दी है। पौराणिक देवता क्या हुए, मक्खन के पुतले हुए, जो जरा-सा आँच पाते ही पिघल जाते हैं! जहाँ देखिए-वीर्यं स प्रमुमोच ह! तद्वीर्यं प्रपपात ह! जैसे, वह धातु नहीं, दोने का दुग्धामृत प्रसाद हो! जरा-सा छू गया, चू गया!

मैंने कहा-खट्टर काका पुराणों में ऐसा निर्लज्जतापूर्ण वर्णन क्यों है ?

खट्टर काका बोले-पुराणकर्ता व्यास ने अपने ही अनुभव पर लिखा है। वह भी तो घृताची को देखते ही घी की तरह पिघल गये थे!

बहुशो गृह्यमाणं च घृताच्यां मोहितं मनः अरण्यामेव सहसा तस्य वीर्यमथाऽपतत्! (देवीभागवत )

इसलिए उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे देवताओं से लेकर दैत्य तक का उसी प्रकार निःसंकोच स्खलन कराया है।

यावद् ददर्श चार्वंगी पार्वती दनुजेश्वरः
तावत् स वीर्यं मुमुचे जडांगश्च तथाऽभवत् (शिवपुराण)

स्त्री तक के विषय में उन्हें यह कहते हुए संकोच नहीं हुआ कि दृश्यं तु पुरुषं दृष्ट्वा योनिः प्रक्लिद्यते स्त्रियाः! (सांबपुराण)

क्या ये ही बातें शालीनतापूर्वक नहीं कहीं जा सकती थीं? मैंने पूछा-पुराणों में इतने व्यभिचार-प्रसंग भरने की जरूरत ही क्या थी? खट्टर काका बोले-इस शंका का उत्तर एक आलोचक दे गये हैं

पौराणिकानां व्यभिचारदोषो
नाशंकनीयः कृतिभिः कदाचित्
पुराणकर्ता व्यभिचारजातः
तस्यापि पुत्रः व्यभिचारजातः!

पुराणकर्ता व्यास और उनके पुत्र शुकदेव दोनों का जन्म तो व्यभिचार से ही हुआ था। तब व्यभिचार-पुराण कैसे नहीं गढ़े जाते ?

मैंने कहा-खट्टर काका, कहीं आप व्यास-गद्दी लगाकर पुराण बाँचने लग जाते, तो अनर्थ हो जाता! फिर व्यास-पराशर के प्रति लोगों के मन में क्या आस्था रह जाती ?

खट्टर काका नस लेते हुए बोले-अजी, कहाँ के व्यास और कहाँ के पराशर! शृंगारी कवियों को किसी बहाने संभोग-वर्णन करना था, सो उन्होंने किया है । इस तरह खुल्लमखुल्ला अश्लील वर्णनों से उन्होंने अपनी काम-तृष्णा शांत की है। देवी-देवताओं के नाम पर मानसिक व्यभिचार किये हैं। इसलिए पुराणों में एक-से-एक उत्तेजक नग्न चित्रण भरे हैं। उनमें यौन वासनाओं का समुद्र लहरा रहा है। कहने-सुननेवालों को धर्म के नाम पर कुछ मजा मिल जाता है। जैसे, पुरी-भुवनेश्वर के मंदिरों में नग्न मूर्तियाँ देखकर ।

धार्मिक तीर्थों की महिमा दिखाने के लिए तो और भी जघन्य पापों की कहानियाँ गढ़ी गयी हैं।

मातृयोनि परित्यज्य विहरेत् सर्वयोनिषु!

वाम मार्ग की इस चरम सीमा का भी उल्लंघन कर दिया गया है!

ब्रह्मपुराण में मही नामक तरुणी विधवा का अपने युवा पुत्र से संभोग का वर्णन है!

मेने न पुत्रमात्मीयं स चापि न मातरम्
तयोः समागमश्चासीत् विधिना मातृपुत्रयोः!

और वह महापाप कटता है कैसे, तो गौतमी तीर्थ में स्नान करने

यह सब पंडों का 'प्रॉपगंडा' है, पुजारियों का हथकंडा है! पंडा, पंडित, पुजारी, पुरोहित और पौराणिक, ये पाँचों ‘पकार' परस्पर प्रीति कर प्रपंचपंजिका प्रस्तुत किये हुए हैं! भंडा फूट जाय, तो फिर हंडा कैसे चढ़ेगा ?

इतने ही में घड़ी-घंटा की ध्वनि होने लगी। खट्टर काका बोले-देखो, कथा आरंभ हो रही है। मत्स्य-पुराण में कहा गया है

परदाररतो वापि परापकृतिकारकः संशुद्धो मुक्तिमाप्नोति कृष्णनामानुकीर्तनात्!

"कृष्ण-कीर्तन से व्यभिचार आदि समस्त दोष कट जाते हैं; परस्त्रीगामी भी परम पद प्राप्त कर लेता है!"

जो चाहें, बहती गंगा में हाथ धो लें! अच्छा भाई, तुम्हें देर हो रही है। जाकर कथा का पुण्य लूटो। नहीं तो कथावाचक धिक्कारते हुए कहने लगेंगे -

येषां श्रीकृष्ण-लीला-ललित-रस-कथा सादरौ नैव कर्णो
येषामाभीर - कन्या - गुण - गण - कथने नानुरक्ता रसज्ञा
येषां-श्रीमद्यशोदा - सुत - पद - कमले नास्ति भक्ति नराणाम्
धिक् तान् धिक् तान् धिगेतान् कथयति सततं कीर्तनस्थो मृदंगः!