उस दिन होली थी।
खट्टर काका दो बार पी चुके थे और तीसरी बार छान रहे थे।
मुझे देखकर बोले-आओ, आओ, अभी केसरिया भंग छन रही है। तुम भी पी लो।
मैं - खट्टर काका, मैं तो नहीं पीता।
खट्टर काका गहरे नशे में थे। बोले-अजी, अपना सनातन वैदिक धर्म क्यों छोड़ते हो ?
मैंने पूछा-यह वैदिक धर्म कैसे है ?
खट्टर काका - वेद पढ़ो, तब समझोगे कि हम लोगों के पूर्वज कैसे पीते थे! वेद में सोमरस के स्तुति-गान भरे हैं।
कहीं-कहीं तो ऐसा प्रवाह छूटा है कि सबकुछ उसी में डूब गया है!
मैं - परंतु सोमरस भंग ही है, इसका क्या प्रमाण ?
खट्टर काका - प्रमाण एक-दो नहीं, अनेकों हैं। देखो, उसे सोंटा-कुंडी में घोंटा जाता था। लोढा लेकर पीसा जाता था। कपड़े से छाना जाता था।
दूध या पानी में घोला जाता था। 4 रंग-बिरंग के मसाले पड़ते थे। वह तीन रंगों में बनाया जाता था-हरा, सफेद और पीला। अर्थात् सादा, दूधिया और केसरिया।
मैं - परंतु कुछ लोग सोमरस का अर्थ ज्ञान अथवा चंद्रमा की किरण भी तो लगाते हैं ?
खट्टर काका - उन लोगों की बुद्धि में ही भंग पड़ गयी होगी! कुछ लोग वैदिक मंत्रों में अश्व से अन्नकण और गौ से चावल समझते हैं। 'घृतस्य धारा' का अर्थ ज्ञान की वाणी करते हैं! लेकिन मैं तो मोटी बात समझता हूँ।
यदि ‘सोमरस' का अर्थ ज्ञान है, तो वह मूसल से कैसे कूटा जाता था ? यदि चंद्रमा की किरण है, तो लोढे से कैसे पीसा जाता था ?
मैं तो सोम भंग ही है?खट्टर काका - इसमें क्या संदेह? ऋग्वेद में अध्याय के अध्याय तो इसी के वर्णन से भरे हैं। कहीं छानने का वर्णन । ' कहीं घोलने का वर्णन । ऋषि-देवताओं को इसमें अपूर्व आनंद मिलता था।
देखो, देवताओं के राजा इंद्र इतना पीते थे कि मत्त हो जाते हैं। ऐसे पीते हैं कि दाढ़ी-मूंछ तक रस से भीग जाती है! दाढ़ी से चूते हुए रस को झाड़ते हैं!
पीत्वा पीत्वा पुनःपीत्वा यावत् पतति भूतले! मैं-परंतु यदि सोमरस वास्तव में भंग था, तो ऋषिगण वैसा गंभीर तत्त्व...
ख. - अजी, गाढ़ी छानने से ही तो गंभीर तत्त्व सूझता है। तभी तो द्रष्टाओं ने गूढ़तम विषयों का उद्घाटन किया है। मानव के आदिग्रंथ में आदि रस (शृंगार रस) लबालब भरा हुआ है। वैदिक संभोग की तुलना विश्व-साहित्य में नहीं मिलेगी।
मैंने चकित होते हुए पूछा-ऐं ? वेद में संभोग-वर्णन!
खट्टर काका बोले-अजी, संभोग कुछ ऐसा-वैसा? सोमरस के प्रवाह में रस की सहस्रधारा फूट पड़ी है! इसी से तो मैं कहता हूँ कि विद्यार्थी और ब्रह्मचारी को वेद नहीं पढ़ना चाहिए!
मैंने कहा-खट्टर काका, आपकी तो बातें ही अद्भुत होती हैं। वेद में कहीं संभोग की चर्चा हो!
खट्टर काका कुंडी में सोंटे से भंग की पत्तियाँ कूटते हुए मुस्कुरा उठे। बोले-तब सुन लो। इसी प्रकार ऊखल में सोमरस की पत्तियाँ कूटी जा रही हैं। मूसल की चोट पड़ रही है। यह देखकर ऋचाकार उत्प्रेक्षा करते हैं -
यत्र द्वाविव जघनाधिषवरण्या उलूखल सुतानामवेद्विन्दु जल्गुलः (ऋग्वेद) मैंने कहा-खट्टर काका, इसका अर्थ क्या हुआ ?
खट्टर काका बोले - "जैसे कोई विवृत-जघना युवती अपनी दोनों जंघाओं को फैलाए हुई हो और उसमें...तुम भतीजे हो। ज्यादा खोलकर कैसे कहूँ ?"
मैंने कहा - खट्टर काका, आप तो ऐसी बात कह देते हैं कि मेरी बोलती ही बंद हो जाती है!
खट्टर काका ने लोटे के मुँह पर अंगोछा लगाकर उस पर भंग का गोला रखा और ऊपर से जल ढालते हुए अँगुलियों से घोलने लगे। पुनः मुस्कुराते हुए बोले-देखो, इसी तरह अँगुलियों को चलते देखकर एक ऋषि गायत्री छंद में कहते हैं
अभित्वा योषणो दश, जारं न कन्यानूषत, मृज्यसे सोम सातये
मैंने पूछा-इसका अर्थ क्या हुआ ?
खट्टर काका - मंत्रकार उपमा देते हैं कि कामातुरा कन्या अपने जार (यार) को बुलाने के लिए इसी प्रकार अँगुलियों से इशारा करती है।
मैं तो वैदिक युग में भी व्यभिचार होता था? खट्टर काका बोले-केवल होता ही नहीं था। ऋषियों को उसमें रस भी मिलता था।
खट्टर काका कलश में भंग ढालते-ढालते फिर मुस्कुरा उठे। बोले-देखो, इसी प्रकार कलश में रस ढलते देख एक ऋषि लहर में आकर कहते हैं
मर्य इव युवतिभिः समर्षति सोमः
कलशे शतयाम्ना पथा
“कलश में अनेक धारों से रस का फुहारा छूट रहा है। जैसे, युवतियों में..." मैंने कहा-खट्टर काका, तपस्वी ऋषियों से ऐसी उपमाएँ कैसे दी गयीं ?
खट्टर काका बोले-ऋषि लोगों को यह उपमा इतनी रसीली लगती हैं, कि उन्होंने बार-बार इसे दुहराया है। देखो, दूसरा मंत्र लो
सरज्जारो न योषणां, वरो न योनिमासदम्
अर्थात्, “यह रस उसी प्रकार कलश में जा रहा है, जैसे युवतियों में जार का..."
मैंने कहा-हे भगवान्! वेद में जार का वर्णन!
खट्टर काका बोले-अजी, उन दिनों जार का कितना महत्त्व था, यह इस गायत्री छंद से समझ लो
अभिगावो अनूषत, योषा जारमिव प्रियम् अगन्नाजिं यथाहितम्
अर्थात्, “हे सोम! मैं उसी प्रकार आपको ग्रहण करता हूँ, जैसे स्त्री अपने जार को!"
वेद में हजार बार जार की चर्चा आयी है। ऐसा लगता है, जैसे उन दिनों पति से ज्यादा जार ही का बाजार गर्म था!
मैंने कहा-खट्टर काका, इन सब मंत्रों से तो यही सिद्ध होता है कि वैदिक युग में स्त्रियों को बहुत
अधिक खट्टर काका बोले-इसमें क्या संदेह? वैदिक नारियाँ पूर्णतः स्वच्छंद थीं। कहीं कुमारी जार को बुलाती थी। कहीं विवाहिता जार की प्रार्थना करती थी। जार प्रेयसी के साथ किस प्रकार रमण करता था, और युवती को युवा जार मिलने पर किस प्रकार तृप्ति होती थी इसका वर्णन भी वेद में आया है!मैंने कहा-तब तो वैदिक समाज में जारज संतानें भी होती रही होगी?
खट्टर काका ने कहा-एक-दो नहीं; अनेकों। उर्वशी के पेट से वशिष्ठ का जन्म हुआ। दीर्घतमा की गर्भिणी माता ने बृहस्पति से संभोग कर वर्णसंकर संतान को उत्पन्न किया। पुरुकुत्स की स्त्री ने सप्तर्षि की कृपा से त्रसदस्यु नाम का पुत्र प्राप्त किया।
कितनी स्त्रियाँ गुप्त रूप से प्रसव करती थीं। कहाँ तक कहूँ? यदि व्यभिचार के सभी थी।
प्रसंगों को गिनाने लग जाऊँ तो पाँचवाँ वेद बन जाय! इसी कारण तो मैं वेदों की भाषा-टीका घर में नहीं रखता। यदि रखू, तो स्त्रियाँ बहक जाएँगी। मैं तो समझता हूँ कि इसी कारण स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं दिया गया है।
न स्त्रीशूद्रौ वेदमधीयाताम्!
मैंने कहा-खट्टर काका, आप तो सब अद्भुत ही बोलते हैं। मैं तो समझता था कि उस समय ब्रह्मचर्य का डंका बजता रहा होगा।
खट्टर काका हँसकर बोले-अब तो समझ गये कि किस नगाड़े पर चोट पड़ती थी!
देखो, सोम की तरंग में एक ऋषि कहाँ तक बहक जाते हैंशेफो रोमण्वन्तौ भेदौ वारिन्मंडूक इच्छतीन्द्रायेन्दो परिस्रव । अब इससे अधिक खुल्लमखुल्ला और क्या होगा? मैंने कहा-खट्टर काका, इसका अर्थ क्या हुआ?
खट्टर काका - मतलब यह कि "शेफ (काम-दंड) रोमाच्छादित...विविर में प्रवेश करने के हेतु इच्छुक है। हे सोम! तुम चू जाओ।" अब तुम्ही कहो, सिवा मदकची के ऐसा कौन बोल सकता है ?
मैंने क्षुब्ध होते हुए कहा-खट्टर काका, मैं तो यही समझता था कि ऋषिगण तत्त्वदर्शी थे और ऋषिकाएँ भी तत्त्वदर्शिनी होती थीं।
खट्टर काका केसरिया भंग पीकर बोले-ऋषिकाएँ तो ऐसे-ऐसे मंत्रों की रचना कर गयी हैं कि गणिकाएँ भी उनके सामने पानी भरें! देखो, घोषा नाम की एक ब्रह्मचारिणी कहती है ।
को वा शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा वृणुते! अर्थात्, “जैसे विधवा स्त्री शयनकाल में अपने देवर को बुला लेती है, उसी प्रकार मैं भी यज्ञ में आपको सादर बुला रही हूँ।"
मैंने कहा-बाप रे बाप! कुमारी के मुँह से ऐसी निर्लज्जतापूर्ण बात ?
खट्टर काका बोले-तुम इतने ही में चकरा गये! देखो, अंगिरा ऋषि की कन्या शश्वती देवी एक युवा पुरुष (आसंग) के नग्न अंग को देखकर किस प्रकार उन्मत्त हो जाती है।
अन्वस्य स्थुरं ददृश पुरस्तादनस्थ ऊरूरवरम्बमाणः
शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं विभर्षि!
अर्थात्, “दोनों जंघाओं के मध्य में लटके हुए, पुष्ट, लंबायमान...देखकर शश्वती ने कहा-'वाह! यह तो बहुत सुंदर भोग करने योग्य...धारण किये
मैंने स्तब्ध होते हुए कहा-खट्टर काका, हद हो गयी। ऐसा तो वह बोले जो पीकर उन्मत्ता हो गयी हो!
खट्टर काका बोले-अजी, वे सब मदमत्ता तो थी ही। तभी तो बोलने में वेश्याओं के भी कान काट गयी हैं! सूर्या नाम की एक ब्रह्मचारिणी कहती है हो'!"
यस्यां बीजं मनुष्या वपन्ति, या न ऊरू उशती विश्रया, ते यस्यामुशन्त प्रहराम शेफम्
मैंने कहा - इसका अर्थ समझ में नहीं आया।
खट्टर काका -'ऊरू' का अर्थ दोनों जंघाएँ। 'विश्रय' का अर्थ फैलाना। 'शेफ' का अर्थ जननेन्द्रिय । 'प्रहराम' का अर्थ चोट मारना...अब तुम स्वयं अर्थ लगा लो। यदि फिर भी समझ में न आवे, तो किसी वैदिक से पूछ लेना।
मैंने कहा-खट्टर काका, मुझे नहीं मालूम था कि वेद में इतनी अश्लीलता भरी होगी।
खट्टर काका बोले-अश्लीलता देखनी हो, तो ऋग्वेद के दशवें मंडल में देखो कि इंद्र और इंद्राणी किस प्रकार मत्त होकर काम-क्रीड़ा करते हैं! इंद्राणी ताल ठोककर कहती है
वृषभो न तिग्मशृंगोऽन्तप॒थेषु रोरुवत्!
अर्थात्, “जिस प्रकार टेढ़ी सींगवाला साँड़ मस्त होकर डकरता हुआ रमण करता है, उसी प्रकार तुम भी मुझसे करो।" उसके बाद जो संभोग का नग्न चित्रण है, वह काश्मीरी कोकशास्त्र को मात करता है।
मैंने टोका-खट्टर काका!
परंतु उनके प्रवाह को रोकना असंभव था। वह अपनी तरंग में कहने लगे-युवती लोमशा का संभोग-वर्णन पढ़ोगे तो दंग रह जाओगे। लोमशा यौवन के मद में मत्त होकर अपने सारे आवरणों को उतार फेंकती है और राजा स्वनय को कहती है कि
उपोप मे परामृश मामेदभ्राणिमन्यथा
सर्वाहमस्मि रोमशा गान्धारीणामवाविका
अर्थात्, “आप मेरे पास आइए और बेधड़क पकड़िए। देखिए, भेंड़ के रोओं की तरह कितने बड़े-बड़े...!"
अब इससे ज्यादा निर्लज्जता की बात किसी युवती के मुँह से क्या निकल सकती है ? और, इसके बाद जो उद्दाम काम-क्रीड़ा होती है, वह कहने-सुनने योग्य नहीं! लोमशा इस प्रकार उन्हें आवेष्टित कर लेती है कि वह उसी समय गद्गद होकर उसे रतिमल्लता की सर्टिफिकेट दे देते हैं।
अगाधिता परिगाधिता या कशीकेव जंगहे
ददाति मह्यं यादुरी याशूनां भोज्या शता
अर्थात्, “यह युवती नेवले की तरह समूची देह से लिपटकर इस तरह रमण करती है कि रस से शराबोर कर देती है!" मैंने क्षुब्ध होते
हुए कहा-खट्टर काका, आप भंग के नशे में तो यह सब नहीं कह रहे हैं ?खट्टर काका बोले-नशे में तो थे वे लोग, जो सहोदर भाई-बहन और पिता-पुत्री में 2 संभोग-वार्ता का वर्णन कर गये हैं! जब प्रजापति द्वारा अपनी कन्या में सिंचन करने की बात पढ़ोगे-पिता दुहितुर्गर्भमाधात् तो रोमांच हो जायगा! ऐसी-ऐसी अश्लील बातें हैं कि अभी भंग की तरंग में भी मेरे मुँह से नहीं निकल सकतीं।
मैंने कहा-खट्टर काका, तब वेद और वाममार्ग में भेद ही क्या रह गया ?
खट्टर काका बोले-अजी, मुझे तो लगता है कि वेदों से ही वाममार्ग की उत्पत्ति हुई होगी। वाममार्गी क्या पंचमकार कहीं और जगह से लाये हैं? देखो, कालीतंत्र में लिखा
मद्यं मांसं च मस्त्यश्च मुद्रा मैथुनमेव च
एते पंचमकाराः स्युः मोक्षदाः हि युगे युगे
मद्य, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन इन पाँच मकारों को ही वे लोग मोक्ष के साधन मानते हैं।
ज्ञान-संकलनी तंत्र में लिखा है-पाशमुक्तः सदाशिवः! जो लोकलाज या समाज के बंधनों को तोड़कर मुक्त हो जाय, वही ‘सदाशिव' या 'जीवन्मुक्त' है!
जिस तरह वेद में सोम' का महत्त्व है, उसी तरह वाममार्ग में 'मद्य' का ।देखो मातृका-तंत्र में कहा गया है
मद्यपानं विना देवि तत्त्वज्ञानं न लभ्यते
अतएव हि विप्रस्तु मद्यपानं समाचरेत्
अर्थात्, “बिना मद्यपान के तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए ब्राह्मण को मद्य अवश्य ही पीना चाहिए।" कामाख्या-तंत्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि
कालिका-तारिणी-दीक्षां गृहीत्वा मद्यसेवनम्
न करोति शुनीमूत्रसमं तस्य हि तर्पणम् !
अर्थात्, “कालिका वा तारिणी की दीक्षा लेकर जो मद्यपान नहीं करे, उसके तर्पण का जल कुतिया के मूत्र समान है!"
सबसे अधिक जोर पंचम मकार (मैथुन) पर दिया गया है। कुलार्णव तंत्र में कहा गया है
पंचमं देवि सर्वेषु मम प्राणप्रियं भवेत्
पंचमेन विना देवि चंडीमंत्रं कथं जपेत्!
बिना मैथुन के चंडीमंत्र जपा ही नहीं जा सकता! और, जप की विधि कैसी निराली है, सो उत्पत्ति-तंत्र में देख लो!
कुलाचारपरो वीरः कुलपूजापरायणः
भगलिंगसमायोगात् आकृष्य जपमाचरेत्!
अर्थात्, रतिबंध के आसन में संलग्न होकर उसी अवस्था में जप करना चाहिए! इसी को वे कुलाचार या कुलपूजा कहते हैं! सार-सर्वस्व में कहा गया है
नग्नां परस्त्रियं वीक्ष्य यो जपेदयुतं नरः
स भवेत् सर्वविद्यानां पारगः सर्ववेदवित्!
अर्थात् “नग्ना परस्त्री को देखते हुए जो दस सहस्र बार जप करे, सो सभी विद्याओं में पारंगत हो जाय!" कुल-सर्वस्व में लिखा है
ऋतुमत्याः भगं पश्यन् यो जपेदयुतं नरः
अनुकूला हि तद्वाणी गद्यपद्यमयी भवेत्!
अर्थात्, “जो ऋतुमती के गुह्यांग को देखते हुए दस सहस्र जप करे, उसकी गद्य-पद्यमय वाणी मनोनुकूल बन जाती है!"
मैंने पूछा-खट्टर काका, वाममार्गियों में जाति-पाँति का कोई विचार नहीं है? खट्टर काका बोले-नहीं जी,
संप्राप्ते भैरवी-क्षेत्रे सर्वेवर्णाः द्विजोत्तमाः! जो भैरवी-क्षेत्र में पहुँच जायँ, वे सभी ब्राह्मण माने जाते हैं। वहाँ आनेवाली कुल स्त्रियाँ 'कुल-स्त्री' समझी जाती हैं। उत्पत्ति तंत्र में लिखा है
कुलस्त्री सेवनं कुर्यात् सर्वथा परमेश्वरि
रमेत युवती कन्यां कामोन्मत्त विलासिनीम्।
अर्थात्, “कुल-स्त्री का उन्मुक्त भोग करना चाहिए। विशेषतः कामोन्मत्ता विलासिनी युवती कन्या का।” गुप्तसाधन तंत्र में लिखा है
नटी कापालिका वेश्या रजकी नापितांगना
ब्राह्मणी शूद्रकन्या च तथा गोपालकन्यका
मालाकारस्य कन्या च नवकन्याः प्रकीर्तिताः
अर्थात्, “नटी, संन्यासिनी, वेश्या, धोबिन, नाइन, ब्राह्मणी, शूद्रा, ग्वालिन, मालिन, ये नव कन्याएँ गुप्त साधना के लिए अधिक उपयुक्त हैं।" रुद्रयामल तंत्र में तो यहाँ तक लिखा है कि
चांडाली तु स्वयं काशी प्रयागश्चर्मकारिणी
अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता रजकी मथुरा मता!
अर्थात्, “चांडाली काशी है, चमाइन प्रयाग है, कंजरी अयोध्या है, धोबिन मथुरा है!” इनके समागम से तीर्थ के फल प्राप्त हो जाते हैं!
ज्ञानार्णव तंत्र में योग का अर्थ यों बताया है
प्रकृतिः परमेशानि वीर्य पुरुष उच्यते
तयोर्योगः महेशानि योग एव न संशयः!
अर्थात्, “प्रकृति (स्त्री) और पुरुष (वीर्य) का संयोग होना ही 'योग' है!" पूजा का रहस्य यों समझाया गया है
सीत्कारो मंत्ररूपस्तु वचनं स्तवनं भवेत्
मर्दनं तर्पणं विद्धि वीर्यपातः विसर्जनम्!
अर्थात्, “संभोग के समय के सीत्कार-वचन ही असली मंत्र-स्तोत्र हैं, मर्दन ही तर्पण है, और वीर्यपात ही विसर्जन है! " कुलार्णव तंत्र में कहा गया है
मद्यमांसविहीनं तु न कुर्यात् पूजनं शिवे
न तुष्यामि वरारोहे भगलिंगामृतं विना!
अर्थात्, “मद्य-मांस के बिना शिव की पूजा नहीं करनी चाहिए। भग-लिंगामृत प्रसाद के बिना मैं (शिव) संतुष्ट नहीं होता।"
मैंने कहा-हद हो गयी, खट्टर काका। इतना तो चार्वाक में भी नहीं है।
खट्टर काका बोले-अजी, वे लोग चार्वाक के चचा थे। अगस्त्य मुनि लोपामुद्रा को उपदेश देते हैं कि मनुष्य को जीवन भर खूब भोग करना चाहिए। यही बात चार्वाक बोले तो नास्तिक कहलाए और अगस्त्य बोले तो ऋषि कहलाए! अजी, मैं भंग की तरंग में कितनी बातें बोल जाता हूँ तो लोग हँसी में उड़ा देते हैं। और वे लोग सोमरस के प्रवाह में बोल गये तो वेदवाक्य हो गया!...कुछ अनर्गल तो नहीं बोल गया हूँ ?
मैंने कहा-खट्टर काका, होली के दिन सब माफ रहता है।
खट्टर काका बोले-हाँ, होली के दिन अश्लील वचनों में दोष नहीं लगता। इसका कारण जानते हो? धर्मसिंधु में लिखा है
होलिकां त्रिः परिक्रम्य शब्दर्लिंगभगांकितैः
तैः शब्दैश्च तु सा पापा राक्षसी तृप्तिमाप्नुयात्!
नितांत अश्लील वचनों से होलिका राक्षसी को तृप्ति मिलती है। श्यामा-चंद्रिका में कहा गया है।
लिंगनाम सदानंदो भगनाम सदा रतिः
लिंगगीतिर्महाप्रीतिः भगगीतिर्महासुखम्!
इसलिए होली के दिन गालियाँ बकने की प्रथा चली आ रही है। मुझे तो ऐसा लगता है कि होली के दिनों में ही कुछ लोगों ने भँड़ौआ छंद बनाकर गाये होंगे। कलौ वेदांतिनः सर्वे फाल्गुने बालका इव!
मैंने कहा-खट्टर काका, कुछ भाष्यकार अश्लील शब्दों के आध्यात्मिक अर्थ लगाते हैं। खट्टर काका बोले-तब यह मंत्र सुन
लोयावदंगीनं हास्तिनं गार्दभं च यत्
यावनश्वस्य वाजिनस्तावत् ते वर्धतां पसः
अर्थात्, “कामदंड बढ़कर वैसा स्थूल हो जाय जैसा हाथी, घोड़े या गधे का...।" क्या यहाँ 'गधा' भी आध्यात्मिक है? अजी, गर्दभेष्टि और अश्वमेध के नाम पर ऐसे भद्दे मजाक किये गये हैं कि चार्वाक तक इन लोगों को भाँड़ कह गये हैं!
अश्वस्यात्र हि लिंगं तु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम्
त्रयो वेदस्य कर्तारः भंडधूर्तनिशाचराः!
तब तक काकी मालपुए लेकर पहुँच गयीं।
खट्टर काका उल्लसित होकर बोले-लो, होलिका का प्रसाद पाओ। मिष्टान्न ही तो हमारी वैदिक संस्कृति का प्राण है। देखो, वैदिक युग से ही हम लोग माधुर्योपासक हैं। हमारे पूर्वज गाते आये हैंमधुमती रोषधी व आपो मधुमन्नो भवन्तु!
संपूर्ण विश्व को ही वे माधुर्य से ओतप्रोत कर देना चाहते थे।
मधुवाता ऋतायते! मधु क्षरंति सिंधवः!
माध्वीनः सन्तु ओषधीः! मधुनक्त मुतोषसो!
मधुमत् पार्थिवं रजः! मधुधौरस्तु नः पिता!
मधुमान् अस्तु सूर्यः! मधुमान् नो वनस्पतिः!
माध्वीवो भवंतु नः!
अजी, इतना माधुर्य-प्रेम और किस देश में होगा? यहाँ मरने के बाद भी ओम् मधु मधु मधु कहकर पितरों को तृप्त कराया जाता है! हाँ, अब मधुरेण समापयेत्! मुझे प्रसाद पाते देख खट्टर काका सस्वर वेद-पाठ करने लगे
जिह्वया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्
मधुवन्मे निक्रमणं मधुमन्मे परायणम्
वाचा ददामि मधुमत् भूयासं मधुसंदृशम्!
फिर बोले- इसका भाव समझे? यावज्जीवन जिह्वा पर मधुर रहे! मीठा खाते रहें और मीठा बोलते रहें। मिठास लेते रहें, मिठास देते रहें। यही वेद का सबसे मधुर मंत्र है।
यह कहते-कहते खट्टर काका की आँखें झिपने लगीं। काकी ने कहा-अब इनको आप छोड़ दीजिए। मैं सँभाल लूंगी। यह कहकर वह खट्टर काका को भीतर ले गयीं।