महर्षि मण्डुकी तथा उनकी पत्नी इतारा निःसंतान थे।
संतान प्राप्ति की इच्छा से उन्होंने कठोर तपस्या की।
परिणामस्वरूप उन्हें संतान की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने महिदास रखा।
महिदास असाधारण संतान था।
वह सदा चुपचाप रहता था और 'ओऽम् नमो वासुदेवाय' के अतिरिक्त और कुछ नहीं बोलता था।
महर्षि ने उसे शिक्षित करने का बहुत प्रयास किया पर सब व्यर्थ रहा।
तंग आकर उन्होंने महिदास पर ध्यान देना बंद कर दिया।
चिंतित माँ इतारा ने उसे समझाया, “पुत्र, यदि तुम इसी प्रकार रहोगे तो लोग तुम्हारे विषय में बातें करेंगे...
तुम अयोग्य पुत्र कहलाओगे।"
महिदास ने उत्तर दिया, “माता, मैंने पूर्व जन्म में सीखा था कि आनंद का जीवन व्यर्थ है...।
मात्र विष्णु भगवान का नाम ही 'मोक्ष' देने में समर्थ है...,
किन्तु आपके प्रति अपने कर्तव्य का बोध मुझे हो गया है...
आपको मेरे कारण अवश्य गर्व की अनुभूति होगी...।”
वेदों के अनुसार महिदास ने यज्ञ करना प्रारम्भ किया।
भगवान विष्णु ने स्वयं प्रकट होकर उसे आशीर्वाद दिया,
“वत्स, तुम अत्यंत मेधावी हो... ।
तुम ऐतरेय ब्राह्मण की रचना करके अपने माता-पिता को गर्व की अनुभूति कराओगे।"