एक बार एक राजकुमार किसी जंगल में शिकार खेलने गया।
शिकार ढूँढते-ढूँढते उसे एक कुटिया के पास कुछ हिलता हुआ दिखाई दिया।
भूलवश उसे हिरण समझकर राजकुमार ने उस पर तीर चला दिया।
पर राजकुमार यह देख अचंभित रह गया कि वह आश्रम में रहने वाला एक लड़का था।
राजकुमार घबरा उठा और भागा हुआ महल वापस आकर पूरी घटना अपने पिता को कह सुनाई।
राजा ने उसे डाँटते हुए कहा, “वत्स, तुमने पाप किया है... ।
तुम्हें उस घायल बालक का उपचार करना चाहिए था और उसके साथियों के पास जाकर अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए थी ।
" दोनों वापस उस आश्रम में गए। संन्यासी ने बड़ी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया।
राजकुमार ने अपनी भूल स्वीकार की।
संन्यासी ने शांतिपूर्वक कहा, “मेरी समझ से मेरा कोई भी शिष्य घायल नहीं है...।"
फिर उन्होंने अपने सभी शिष्यों को उनके समक्ष बुलवाया।
जिस बालक को राजकुमार का तीर
लगा था उसे पूरी तरह से स्वस्थ खड़ा देखकर राजकुमार अचंभित रह गया।
राजकुमार ने आश्चर्य में डूबे हुए कहा, “ पर मैंने तो उसे गिरकर मृत्यु को प्राप्त होते देखा
था!” संन्यासी ने तब समझाया, “वत्स, हमारा जीवन काल और वेदों द्वारा निर्धारित है...
आशीर्वाद स्वरूप हमें असमय मृत्यु नहीं प्राप्त होती है। "