अतिथि का मान

ब्रह्मगिरि पर्वत के एक वृक्ष पर कबूतरों का जोड़ा घोंसला बनाकर रहता था।

एक दिन एक शिकारी ने मादा कबूतर को कैद कर पिंजरे में डाल दिया।

बारिश हो रही थी, शाम भी हो गई थी।

शिकारी उसी पेड़ के नीचे विश्राम करने लगा।

नर कबूतर ने कबूतरी को आज़ाद करना चाहा।

कबूतरी बोली, “नहीं, शिकारी काँप रहा है, पहले सूखी टहनियाँ और पत्ते जला दो...।"

आग की गर्मी से शिकारी की नींद खुली, उसने कबूतरों की बातें सुनीं।

कबूतरी ने कहा, “अब मुझे आज़ाद कर दो...।

मैं अपने अतिथि शिकारी का आग में कूदकर भोजन बनूँगी।”

“नहीं, मुझे कूदने दो..." यह कहकर कबूतर आग में कूद गया।

हैरान, परेशान शिकारी से क

बूतरी ने प्रार्थना की, “ श्रीमान्, कृपया मुझे आज़ाद कर दें...,

मैं अपने साथी के पास जाना चाहती हूँ...।

" शिकारी ने पिंजरा खोल दिया।

कबूतरी भी आग में कूद गई।

दोनों कबूतर-कबूतरी स्वर्ग से आए वाहन में चले गए।

शिकारी ने कबूतरों से प्रार्थना की, "मुझे अपने पापों का प्रायश्चित करने का उपाय बताओ...”

“उन्होंने कहा जाओ और गौतमी गंगा में

डुबकी लगाओ... तुम्हारे पापों का प्रायश्चित्त हो जाएगा।”