इक्ष्वाकु वंश के राजा नाभांग के पुत्र अंबरीष थे।
परमवीर राजा होने के साथ-साथ वे विष्णु भगवान
के परम भक्त थे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने अंबरीष की सुरक्षा
का काम अपने सुदर्शन चक्र को सौंपा था।
एक बार अंबरीष ने द्वादशी का
व्रत किया था। व्रत पूरा होने पर उन्हें महर्षि को खिलाकर पारण करना
था। उन्होंने दुर्वासा ऋषि को आमंत्रित किया था ।
आमंत्रण स्वीकार कर भोजन से पहले ऋषि नित्यकर्म के लिए नदी पर चले गए।
काफ़ी देर तक वह नहीं लौटे।
पारण का शुभ मुहूर्त निकलने वाला था।
राजपुरोहित ने अंबरीष को जल ग्रहण करने की सलाह दी जिससे व्रत टूटने की औपचारिकता पूरी हो जाए।
लौटने पर यह देखकर दुर्वासा कुपित हो उठे।
वह अंबरीष को श्राप देने ही वाले थे कि सुदर्शन चक्र उनके पीछे पड़ गया।
महर्षि दुर्वासा बचते-बचते विष्णु भगवान की शरण में बैकुण्ठ पहुँचे।
विष्णु ने कहा, “आप बेशक महर्षि हैं पर अंबरीष मेरा भक्त है...
आप उसी से जाकर क्षमा माँगिए...
" महर्षि आकर अंबरीष के चरणों पर गिर पड़े।
अंबरीष ने उन्हें क्षमा कर दिया और सुदर्शन चक्र ने भी उनका पीछा करना छोड़ दिया।